मौत को क्रिया की प्रतिक्रिया बताकर राकेश टिकैत ने खुद को असंवेदनशील साबित कर दिया
आम जीवन में तो लोग दुख की घड़ी में सब कुछ भूलकर दुश्मन के यहां भी संवेदना व्यक्त करने पहुंच जाते हैं। उसे गले लगा लेते हैं। कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहते हैं। लखीमपुर हिंसा में चार किसानों और एक पत्रकार सहित बीजेपी के भी तीन कार्यकर्ताओं की भी जान गई थी।
लखीमपुर में आठ लोगों की मौत पर सियासत थमने का नाम नहीं ले रही है। नेताओं ने यहां मौत का भी बंटवारा कर दिया है। नेतागण अपनी सियासी सहूलियत के अनुसार मृतकों के परिवार वालों को सांत्वना, श्रद्धांजलि देने व शोक व्यक्त करने जा रहे हैं। इसीलिए विपक्षी पार्टी वाले लखीमपुर हिंसा में मारे गए बीजेपी कार्यकर्ताओं के यहां जाने से गुरेज कर रहे हैं, वहीं सत्ता पक्ष के लोग हिंसा में मारे गए किसानों के यहां जाने से कतरा रहे हैं। राजनीति का ऐसा घिनौना रूप देखकर आम आदमी ही नहीं बुद्धिजीवी और समाज को एकजुट करने के प्रयास में लगे लोग भी आशंकित हैं। भगवान न करे यदि यही परिपाटी आगे भी चलती रही तो इससे देश को बड़ा सामाजिक नुकसान हो सकता है। हमारे नेता यदि किन्हीं व्यक्तियों के मरने के बाद भी उनके धर्म और विचारधारा के आधार पर मतभेद करता है तो यह ‘राजनीति’ का हिस्सा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि राजनीति तो देश को जोड़ने के लिए होती है, न कि तोड़ने के लिए। फिर मृतकों में कोई अपराधी तो थे नहीं।
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आम जीवन में तो लोग दुख की घड़ी में सब कुछ भूलकर दुश्मन के यहां भी संवेदना व्यक्त करने पहुंच जाते हैं। उसे गले लगा लेते हैं। कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहते हैं। लखीमपुर हिंसा में चार किसानों और एक पत्रकार सहित बीजेपी के भी तीन कार्यकर्ताओं की भी जान गई थी, लेकिन किसी गैर बीजेपी नेता ने बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिवार वालों के घर जाना उचित नहीं समझा, जबकि यही नेता अक्सर अपने विरोधी दलों के नेताओं के साथ मिलते समय यह कहते हुए परहेज नहीं करते हैं कि हमारे मतभेद हैं, मनभेद नहीं। इसीलिए पुरानी पीढ़ी के करीब-करीब सभी नेता अपनी-अपनी विचारधारा से ऊपर उठकर सुख-दुख की घड़ी में एक-दूसरे के यहां आते जाते रहते थे। ऐसे नेताओं में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व मुख्यमंत्रियों बनारसी दास, एनडी तिवारी, वीर बहादुर सिंह, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह और इनसे भी पहले के मुख्यमंत्रियों सहित दिग्गज नेताओं लालजी टंडन, कांग्रेस के प्रमोद तिवारी, जगदम्बिका पाल, नरेश अग्रवाल, पुराने समाजवादी जनेश्वर मिश्र, बेनी प्रसाद वर्मा आदि कई नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन आज के नेताओं ने इस परम्परा को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी है।
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हाल यह है कि नई पीढ़ी के नेताओं में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा सहित तमाम सफेदपोश वहीं पर खड़े नजर आते हैं जहां उन्हें सियासी फायदा मिल सकता है। इसीलिए हाथरस रेप केस और लखीमपुर में किसानों की हत्याओं की घटनाओं पर तो विप़क्ष हो-हल्ला मचाता है, लेकिन तब मुंह नहीं बोलता है जब यूपी के दिल्ली से सटे नोएडा में दलित महिला से गैंगरेप, संतकबीरनगर में मदरसा शिक्षक बच्ची के साथ बलात्कार का घिनौना खेल खेला जाता है। हाल यह है कि किसान नेता राकेश टिकैत तो गैर किसानों की मौत को ही जायज ठहरा रहे हैं। टिकैत तीन बीजेपी नेताओं की मौत को किसानों की मौत की प्रतिक्रिया बता रहे हैं।
यही नहीं, विपक्ष की तरह सत्ता पक्ष भी अपनी जिम्मेदारी से बचता रहता है। जबकि सरकार जब शपथ लेती है तो सीएम और उनके मंत्री शपथपूर्वक कहते हैं कि वह धर्म और जाति के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेंगे, लेकिन सत्तासीन नेता भी लखीमपुर में पीड़ित किसानों के परिवार वालों के आंसू पोंछने से न जाने क्यों कतरा रहे हैं। बीजेपी के कई नेता अपने कार्यकर्ताओं की मौत पर तो संवेदना व्यक्त करने लखीमपुर गए लेकिन इन्होंने भी मृतक किसानों के परिवार वालों से मिलना उचित नहीं समझा। इस पर विपक्ष योगी सरकार पर हमलावर भी है। चुनावी मौसम में जब बाल की खाल निकाली जाती है, तब लखीमपुर हिंसा से बीजेपी को कितना नुकसान और गैर भाजपा दलों को कितना फायदा होगा, यह नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल तो लखीमपुर पर सियासत पूरे चरम पर है और चुनाव तक यह जारी रहेगी।
- अजय कुमार
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