श्रीलंका के लोगों को समझना होगा कि संकट से उबारने वाली संजीवनी बूटी अब भी वहीं है
श्रीलंका में एक तरफ तो खाद्यान्न वस्तुओं की जबरदस्त महंगाई ने वहां के सभी लोगों की कमर तोड़कर रख दी है, वहीं दूसरी तरफ देश की बेहद खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के लेखा-जोखा ने श्रीलंका व दुनिया के अर्थशास्त्रियों व उसके सभी मददगार देशों की चिंता बढ़ा दी है।
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' कविता की यह चंद पंक्तियां अक्सर मुझे उसे वक्त जरूर याद आ आती हैं, जब देश या दुनिया के किसी भी क्षेत्र से आम जनमानस के द्वारा बड़े जन विद्रोह की कोई आहट सुनाई देने लगती है। आज भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका के मौजूदा हालात पर 'दिनकर' की कविता की यह चंद पंक्तियां एकदम से सटीक बैठती है। कभी दुनिया के विभिन्न देशों के पर्यटकों के लिए बेहद आकर्षण का केंद्र रहने वाला एक छोटा-सा यह समुद्री द्वीप पर बसा देश श्रीलंका था। हालांकि दुनिया के अन्य देशों की तरह पिछले कुछ वर्षों से श्रीलंका भी कोरोना महामारी के जबरदस्त प्रकोप के चलते मंदी से ग्रस्त था, लेकिन मंदी के बावजूद भी कोई यह नहीं कह सकता था कि चंद माह के बाद ही यह देश अचानक दिवालिया होने के कगार पर खड़ा हो जायेगा। लेकिन ऐसा हो गया। श्रीलंका अपने हुक्मरानों की ग़लत आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार के चलते आज जबरदस्त आर्थिक संकट में फंसकर के दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुका है। देश की सत्ता पर आसीन चंद राजनेताओं की अदूरदर्शिता के चलते श्रीलंका राजनीतिक व आर्थिक अस्थिरता के मोर्चे पर जंग लड़ रहा है। पिछले कुछ माह में ही श्रीलंका के हालात बेहद बद से बदतर हो चले गए हैं। अब तो श्रीलंका के आर्थिक हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि वहां के आम जनमानस के लिए भोजन व पानी समय से उपलब्ध करवाने का भी गंभीर संकट पैदा हो गया है। हालात इतने भयावह हो गये हैं कि श्रीलंका में आम जनमानस के रोजमर्रा के उपभोग की आम वस्तुओं की भी बाजार में किल्लत होने के चलते कालाबाजारी व महंगाई अपने चरम पर पहुंच गयी है। आज श्रीलंका में लगभग सभी वस्तुओं के मूल्यों ने महंगाई की चपेट में आकर के आसमान को छू लिया है।
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वैसे श्रीलंका के संदर्भ में हम अगर कुछ आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2020 के मानव विकास सूचकांक यानी ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स के आंकड़ों में जहां भारत दुनिया में 0.645 अंक के साथ 131वें स्थान पर था, वहीं इस सूची में श्रीलंका 0.782 अंक के साथ 72वें स्थान पर था। यानी की दुनिया के 189 देशों की सूची में श्रीलंका भारत से बहुत ऊपर था। यहां आपको बता दें कि मानव विकास सूचकांक मानव विकास के 3 मूल मानदंडों यानी जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय में देशों की औसत उपलब्धि को मापता है। इसके आंकड़ों को देखा जाये तो वर्ष 2020 में श्रीलंका की प्रति व्यक्ति आय भी भारत से कहीं बहुत ज्यादा थी। विचारणीय तथ्य यह है कि ऐसी मजबूत स्थिति होने के बाद भी दो वर्षों में ही श्रीलंका में ऐसा आखिरकार क्या हुआ कि एक हंसता खेलता हुआ खुशहाल देश अचानक तबाही के कगार पर आ गया। श्रीलंका के हालातों पर एक-एक पल की नजर रखने वाले देश-दुनिया के विशेषज्ञों के विचारों को देखें तो उन विचारों का मूल सार यह है कि श्रीलंका के हुक्मरानों ने परिवारवाद व भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसकर देश व अपनी बर्बादी की पटकथा की पूरी कहानी स्वयं ही अपने हाथों से लिखने का कार्य किया है। वह इस भयावह हालात के लिए किसी दूसरे व्यक्ति व देश को दोषी ठहरा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका की सरकार में बैठे हुए हुक्मरानों की लगातार ग़लत आर्थिक नीतियों व जबरदस्त भ्रष्टाचार के चलते आज पूरा देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है।
श्रीलंका के इस बेहद चिंताजनक हालात के लिए राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके भाई पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को जिम्मेदार माना जा रहा है, क्योंकि चंद दिनों पहले तक भी राजपक्षे बंधुओं व सत्ता का आनंद ले रहे उनके परिजनों से पक्ष, विपक्ष व सिस्टम के लोगों में से कोई भी प्रश्न करने की ताकत नहीं रखता था। जिसके चलते लंबे समय से श्रीलंका के शासन व प्रशासन में ऊपर से नीचे तक पूरे तंत्र में देश व समाज के हित की जगह एक परिवार के प्रति जी-हुज़ूरी व्याप्त हो गयी थी और सिस्टम ने सही व गलत निर्णय पर अपने विचार ना देकर के केवल राजपक्षे बंधुओं की हां में हां मिलाना जारी रखा हुआ था। जिसकी वजह से शासक निरंकुश होते चले गये और राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया था। आज श्रीलंका दुनिया में एक उदाहरण बन गया है कि कैसे वहां के राजनीतिक लोगों, उनके परिजनों, ब्यूरोक्रेसी व सिस्टम में बैठे चंद लोगों ने भ्रष्टाचार के दम पर देश की मजबूत जड़ों को दीमक की तरह खोखला करके चंद वर्षों में ही बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है। लेकिन अब देश में धीरे-धीरे हालात खराब होने लगे और श्रीलंका के सिस्टम के सामने लोगों का पेट भरने की समस्या के साथ-साथ देश में विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और शासन-प्रशासन से संबंधी गंभीर चुनौतियां खड़ी होने लगी, परंतु उस समय तक स्थिति को नियंत्रण करने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। हालांकि इस सब हालात के बाद भी श्रीलंका का राजनीतिक नेतृत्व अपने तुगलकी फरमान जारी करने में ही व्यस्त रहा। वह देश व आम जनता की वास्तविक जरूरतों की अनदेखी करता रहा, जिसके फलस्वरूप श्रीलंका में बहुत बड़े स्तर पर जन विद्रोह हो गया है।
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आज सरकार की विभिन्न ग़लत नीतियों के चलते ही श्रीलंका की सरकार पर 51 बिलियन डॉलर का बहुत भारी-भरकम कर्ज हो गया है। हालात यह हो गये हैं कि श्रीलंका की सरकार इसका ब्याज तक भी चुकाने में पूर्णतः नाकाम है। क्योंकि श्रीलंका में राजनीतिक भ्रष्टाचार बहुत बड़े पैमाने पर रहा है। उसने सुरसा राक्षसी के खुले हुए मुंह की तरह फैल कर श्रीलंका के आम जनमानस की खुशियों को लीलने का कार्य ही किया है। राजनीतिक व आर्थिक भ्रष्टाचार के चलते ही श्रीलंका के हुक्मरानों ने अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की जगह उसको हर पल अपनी तिजोरी भरने के उद्देश्य से केवल फिजूलखर्च करने की राह पर धकेलने का कार्य किया था। श्रीलंका की सरकार ने अपनी आय में बढ़ोत्तरी करने के लिए पिछले दो-तीन वर्षों से कोई भी ठोस प्रयास धरातल नहीं किये थे, हुक्मरानों ने अपने शाही खर्चों में कटौती तक नहीं की थी। बल्कि ठीक उसके उल्टा चलकर वर्ष 2019 में अपनी लोकलुभावन चुनावी घोषणाओं को पूरा करने के उद्देश्य से टैक्स की दरों में 15 फीसदी की भारी कटौती कर दी, जिसके चलते अचानक से ही श्रीलंका सरकार की प्रति वर्ष आय में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये का भारी भरकम कटौती हो गयी।
लेकिन श्रीलंका की अदूरदर्शी सरकार ने समय रहते उस मोटे नुक़सान की भरपाई करने के लिए किसी भी ठोस विचार को धरातल पर अमलीजामा नहीं पहनाने का कार्य किया। जिसके नकारात्मक परिणामस्वरूप आज श्रीलंका एक-एक पैसे के लिए दुनिया के सामने हाथ फ़ैलाने के लिए मोहताज हो गया है। दुनिया के विभिन्न देशों से बार-बार मिलने वाली सहायता राशि व कर्ज की धनराशि के बावजूद भी आज के हालात में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बचाने के रास्ते अब बेहद जटिल हो गये हैं। वैसे श्रीलंका में कोरोना महामारी और वर्ष 2019 के चर्चों पर हुए आतंकी हमलों के बाद से विदेशों से आने वाले पर्यटकों की रुचि बेहद कम हो गयी थी, जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर पर्यटन क्षेत्र की आय पर निर्भर रहने वाले श्रीलंका में आम जनमानस व सरकार की आय में बेहद कमी आ गयी थी, जिसकी वजह से श्रीलंका के आर्थिक विकास का पहिया एकदम से रुक गया और देश को जबरदस्त मंदी के बेहद बुरे दौर की चपेट में आना पड़ गया है।
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आज श्रीलंका में एक तरफ तो खाद्यान्न वस्तुओं की जबरदस्त महंगाई ने वहां के सभी लोगों की कमर तोड़कर रख दी है, वहीं दूसरी तरफ देश की बेहद खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के लेखा-जोखा ने श्रीलंका व दुनिया के अर्थशास्त्रियों व उसके सभी मददगार देशों की चिंता बढ़ा दी है। श्रीलंका में आलम यह हो गया है कि ईंधन, गैसोलीन व खाद्यान्नों आदि की कमी की वजह से लोगों को दो वक्त की रोटी खाने के भी अब तो लाले पड़ गये हैं। हालांकि वैसे देखा जाये तो श्रीलंका को एक उष्णकटिबंधीय देश होने के चलते खाद्यान्न की वस्तुओं के लिए कभी भी बहुत ज्यादा दूसरे देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए था, लेकिन वहां की अदूरदर्शी सरकार ने कभी इस पर विचार ही नहीं किया।
देश को बर्बाद करने में रही-सही कसर को श्रीलंका की राजपक्षे सरकार पर दुनिया में पहला पूर्ण रूप से 100 फीसदी जैविक खेती करने वाला देश श्रीलंका को बनाने के भूत सवार होने ने पूरा करने का कार्य कर दिया। अचानक ही बिना किसी पूर्व तैयारी के वर्ष 2021 के अप्रैल माह में श्रीलंका के नासमझ हुक्मरानों ने अपने जैविक खेती के सपने को पूरा करने के लिए रासायनिक उर्वरकों के देश में आयात करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिये थे। जबकि जिस देश की 90 फीसदी से अधिक खेती पूर्णतः रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर हो वहां पर बिना किसी चरणबद्ध तरीके के रासायनिक उर्वरकों पर अचानक से ही प्रतिबंध लगा देना, वहां की सरकार व सिस्टम का बेहद नासमझी भरा कदम था। ना जाने श्रीलंका के हुक्मरानों ने क्यों ऐसा करके रातों-रात ही श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देने वाला आत्मघाती कदम स्वयं ही उठाने का कार्य किया था। क्योंकि देश में अचानक ही जैविक खेती पर जोर दिए जाने से आगामी तीन-चार वर्षों में फसलों की उपज की मात्रा में भारी कमी आना तय होता है। श्रीलंका के हठधर्मी हुक्मरानों के इस निर्णय से श्रीलंका व दुनिया के अन्य देशों के अर्थशास्त्री भी अचंभित थे। इसका सीधा असर तत्काल ही खाद्यान्न की वस्तुओं के उत्पादन पर जबरदस्त रूप से पड़ने लग गया था।
वहीं यूक्रेन व रूस का युद्ध शुरू होने के चलते दुनिया में वैसे ही ईंधन व खाद्यान्न की सभी वस्तुओं के मूल्यों में एकदम से भारी बढ़ोत्तरी होने लगी थी, जिसके चलते पेट भरने के लिए जरूरी वस्तुओं की कीमतें पूरी दुनिया में चंद दिनों में ही 60 फीसदी तक मंहगी होकर के अचानक से ही आसमान छूने लगीं थीं। श्रीलंका में तो हालात और ज्यादा खराब हो गये थे। लोगों को ईंधन, दूध, चावल आदि तक भी बहुत महंगी दरों पर मिलने लगा। श्रीलंका के हुक्मरानों के एक ग़लत निर्णय के चलते वहां पर अचानक ही स्थिति ऐसी बन गयी कि देश के आयात व निर्यात के संतुलन के बीच एक बहुत बड़ा फासला बन गया था, जिसके कारण से सरकार के पास विदेशी मुद्रा का कोष बहुत तेजी के साथ खत्म होने लगा। उसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि आज श्रीलंका के नागरिक भूखे रहने के लिए मजबूर हो गये हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के आंकड़े देखें तो वह दर्शाते हैं कि 10 में 9 श्रीलंकाई परिवार एक समय का भोजन त्याग कर अपना व अपने परिजनों को पालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिसकी वजह से श्रीलंका में आजकल अराजकता की ऐसी भयावह स्थिति हो गयी है कि राष्ट्रपति भवन पर श्रीलंका की आम जनता का पूर्णतः कब्जा हो गया है। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश छोड़कर भागने में सफल हो गये हैं, वह मालदीव में कहीं सुरक्षित जगह पर छिप गये हैं। वहीं फिलहाल श्रीलंका के पास 25 मिलिय़न डॉलर मात्र का विदेशी मुद्रा भंडार बचा है, जो कि रोजमर्रा की जरूरतमंद वस्तुओं के आयात के लिए नाकाफी है, जिसकी वजह से श्रीलंका ईंधन, दवाई, खाद्यान्न आदि जैसी रोजमर्रा की जरूरत की तमाम वस्तुओं का भी अब आयात करने की स्थिति में नहीं रहा है। देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं, ईंधन का स्टॉक पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है, जरूरी समय के लिए बिजली और फ्यूल को बचाने के लिए अब स्कूल और दफ्तरों तक को बंद कराया जा रहा है।
देश में व्याप्त इस प्रकार की बेहद विकट आर्थिक परिस्थितियों के चलते श्रीलंका की मुद्रा का 80 फीसदी तक अवमूल्यन हो चुका है, एक अमेरिकी डॉलर अब लगभग 360.65 श्रीलंकाई रुपए तक का हो गया है। जिसके चलते वर्ष 2009 तक दशकों लंबे चले गृहयुद्ध को झेल चुका श्रीलंका अब हुक्मरानों के गलत फैसलों के चलते एक बहुत ही गंभीर आर्थिक व राजनीतिक संकट में फंस कर पुनः गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा होकर के अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। हालांकि दुनिया के अर्थशास्त्रियों को श्रीलंका के पुनः अपने पैरों पर खडे होने की पूरी उम्मीद है, क्योंकि श्रीलंका के हिस्से में दुनिया का एक बहुत ही व्यस्त समुद्री मार्ग आता है, जोकि भविष्य में उसकी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए संजीवनी बूटी साबित हो सकता है। लेकिन उसके लिए देश में पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से श्रीलंका का नेतृत्व करने वाला एक योग्य देशभक्त राजनेता लंकावासियों को चाहिए, तब ही देश व उनका भविष्य पुनः पटरी पर आकर सामान्य हो सकता है।
-दीपक कुमार त्यागी / हस्तक्षेप
(वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व राजनीतिक विश्लेषक)
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