कृषि कानून बनाते समय सभी पक्षों को विश्वास में लिया जाता तो यह दिन नहीं देखने पड़ते

Farmer
अशोक मधुप । Dec 11 2021 4:25PM

प्रारंभ से मोदी सरकार अचानक निर्णय लेकर लोगों को चौंकाने का प्रयास करती रही है। कृषि कानून बनाते भी यह हुआ। कानून बनाने से पूर्व इसके मसविदे पर किसान नेता और विशेषज्ञों से बात की जाती, उन्हें विश्वास में लेकर कृषि कानून बनते तो ये हालत नहीं देखनी पड़ती।

केंद्र सरकार द्वारा सभी मांग स्वीकार किए जाने के बाद भी किसान आंदोलन खत्म नहीं, स्थगित हुआ। सरकार के द्वारा सभी मांगें मान लिए जाने के बाद भी किसान आंदोलन समाप्त नहीं हुआ। अभी स्थगित ही हुआ है। आंदोलनकारी किसान संगठनों ने घोषणा की है कि वे 15 जनवरी को आकर फिर मीटिंग करेंगे। देखेंगे उनकी मांगों पर कितना काम हुआ। नहीं हुआ तो आंदोलन होगा। किसान नेताओं ने कहा कि वे 11 दिसंबर को घर वापिस होंगे। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह है कि आंदोलन अभी खड़ा है। खत्म नहीं हुआ। कहीं गया नहीं।

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किसानों के आंदोलन स्थगित करने और इतनी बात पर आगे बढ़ने के पीछे की कहानी यह है कि मांगों पर कुछ किसान नेता पीछे हटे, जबकि अब तक वह अपना अड़ियल रुख अपनाए थे। सरकार का रवैया पहले ही समझौता करने का था। वह समस्या का निदान निकालने को पहले से ही प्रयासरत थी। यदि किसान नेता पहले ही ऐसा करते, उनका रवैया लचीला रहता तो मामला इतना न बढ़ता। कृषि मंत्री के कई बार वार्ता करने के बाद भी समस्या के निदान पर वार्ता बंद हो गई। ये वार्ता बंद नहीं होनी चाहिए थी। वार्ता के लिये दूसरे चैनल देखे जाते। अब वार्ता में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आगे बढ़े। माना जाता रहा है कि गृह मंत्री अमित शाह या रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह वार्ता में लगते तो काफी पहले निदान हो गया होता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर में अमित शाह को इस मामले को सुलझाने के लिए तैनात किया। सब मामलों पर सहमति के बाद भी लखीमपुर प्रकरण में किसान गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र के निलंबन पर अड़े थे। सरकार के स्पष्ट कर देने पर कि यह मांग स्वीकार नहीं होगी, किसान नेताओं ने पीछे हटना अच्छा समझा।  मामला सुलझ गया। यह मांग विशेष रूप से भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत की थी। उन्होंने भी इसे नजरअंदाज कर आगे बढ़ना अच्छा समझा।

प्रारंभ से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अचानक निर्णय लेकर लोगों को चौंकाने का प्रयास करती रही है। कृषि कानून बनाते भी यह हुआ। कानून बनाने से पूर्व इसके मसविदे पर किसान नेता और विशेषज्ञों से बात की जाती, उन्हें विश्वास में लेकर कृषि कानून बनते तो ये हालत नहीं देखनी पड़ती। कानून वापिस नहीं लेने पड़ते। सरकार को पीछे हटने का अपमान नहीं उठाना पड़ता। दूसरे वह झूठ के फैल रहे विभ्रम के हालात में किसान नेताओं को कृषि कानून के लाभ नहीं बता सकी। कृषि कानून लागू करने के बाद उसने किसान प्रतिनिधियों से इन कानून के बारे में बात की होती, उन्हें इसके लाभ बताए होते, तो शायद यह हालत न होती। उसे पीछे नहीं हटना पड़ता।

    

अब तक केंद्र सरकार का रवैया अकेले चलो का रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने विपक्ष को ज्यादातर विश्वास में नहीं लिया। इसीलिए वह सरकार की प्रत्येक अच्छी बात और अच्छे कार्य में भी कमी निकालते हैं। ऐसा ही इस आंदोलन में हुआ। कृषि कानून बनाते समय यदि सरकार ने विपक्ष को विश्वास में लिया होता, तो वह इस मामले में राजनैतिक रोटी नहीं सेंक पाते। आंदोलनकारी आंदोलन के दौरान मरे किसानों के परिवार को मुआवजे की मांग कर रहे थे। केंद्र इसके लिए तैयार नहीं था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संसद के सत्र में किसान आंदोलन के दौरान मृतक किसानों की सूची प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि पंजाब की सरकार ने इस आंदोलन में मृतक लगभग 400 किसानों को पांच लाख रुपए प्रति किसान  मुआवज़ा दिया। उनमें से 152 किसानों के आश्रित को रोज़गार भी दिया। उन्होंने बताया कि उन्होंने  हरियाणा के 70 किसानों की भी सूची बनाई है। जब राजनैतिक दल और प्रदेश सरकार अपनी मनमर्जी से अपने राजनैतिक लाभ के लिए इस तरह के निर्णय ले रहे हों, तो केंद्र कब तक मजबूती के साथ खड़ा हो सकता है? 

जब एक राज्य सरकार पहले ही मृतक किसानों का मुआवजा बांट रही हों, उनके आश्रितों को नौकरी दे रही हों, तो क्या किया जा सकता है? इससे दूसरे राज्यों पर तो सीधे ही प्रभाव पड़ेगा। 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च के दौरान लालकिले पर उत्पात करने वाले 83 किसानों को पंजाब सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर दो−दो लाख रुपया मुआवजा देने की की भी घोषणा की। राज्य सरकार अपराधी को मदद करने लगे तो क्या होगा। इससे तो आगे चल कर अपराधी को सरकारी मदद देने का रास्ता खुलेगा।

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इस आंदोलन से सीख लेने की बात यह है कि केंद्र को अब ऐसी योजना बनानी होगी कि आगे से राजधानी का घेराव नहीं हो। इस आंदोलन से स्पष्ट हो गया कि कोई भी संगठन केंद्र की राजधानी के मार्ग कभी भी रोक सकता है। इसलिए केंद्र की राजधानी के विकेंद्रीकरण पर भी विचार किया जाना चाहिए। महाभारत में कृष्ण के पांच गांव मांगने के प्रस्ताव पर दुर्योधन ने यह कह कर मना कर दिया था कि ये पांच गांव मेरी राजधानी के चारों और हैं। आप जब चाहोगे तब मेरे राज्य के रास्ते बदं कर दोगे। युद्ध की स्थिति में भी दुश्मन देश हमला करके एक बार में एक जगह स्थित राजधानी का सब कुछ खत्म कर सकता है। इस  सबको रोकने के लिए राजधानी के विकेंद्रीकरण पर सोचना होगा।

सरकार और किसानों में समझौता हो गया। जो हुआ अच्छा हुआ। अब दोनों पक्षों को अपने बात पर अडिग रहना होगा। उनका प्रयास रहना चाहिए कि आपस में बातचीत होती रहे। आपस में कोई गलतफहमी नहीं हो। कोई तीसरा पक्ष इसका लाभ नहीं उठा पाए। भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत का बहुत अच्छा बयान आया है। उन्होंने कहा कि आंदोलन के दौरान किसी की भी हार−जीत नहीं हुई। उन्होंने कहा कि ये अच्छी पहल है। सरकार और किसानों का रुख वार्ता के दौरान नरम रहा। उन्होंने आंदोलन के दौरान मजदूर, किसान, व्यापारी, यात्री आदि को हुई परेशानी के लिए खेद व्यक्त किया।

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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