विज्ञान के विद्यार्थी अखिलेश ने राजनीतिक गणित में इतिहास के सिलेबस से खाया धोखा
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के 11 विधायक सांसद बन गए हैं और अब इन गोविंदनगर, लखनऊ कैंट, टूंडला, जैदपुर, मानिकपुर, बलहा, गंगोह, इगलास, प्रतापगढ़, रामपुर, जलालपुर सीटों पर उपचुनाव होने हैं। बसपा अध्यक्ष मायावती ने इन सीटों पर अपने दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है।
सियासत की दुनिया का यही कायदा, वही करो जिसमें हो फायदा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा महागठबंधन से महापरिवर्तन लाने की बात को जनता ने सिरे से खारिज कर दिया। नतीजतन बुआ मायावती ने अपने लाडले भतीजे अखिलेश से दूरी बनाना ही मुनासिब समझा। बसपा सुप्रीमो ने यूपी की 11 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में गठबंधन में गिरफ्तार होने से बेहतर अपनी जमानत की सलामती के लिए अकेले ही मैदान में उतरने का निर्णय ले लिया। इतिहास को देखें तो जून का था वो महीना और साल था 1995 का जब मायावती मुलायम सिंह यादव को दरकिनार करते हुए भाजपा के साथ गठबंधन कर यूपी की गद्दी पर काबिज हो गई थी। खुद को विज्ञान का छात्र बताने वाले अखिलेश यादव इतिहास को याद रखने में थोड़ा फिसड्डी साबित हो गए और ठीक 24 साल बाद जून के महीने में ही मायावती ने ये इतिहास दोहराया और इस बार मुलायम के पुत्र अखिलेश को किनारे लगाया। हालांकि अखिलेश ने गठबंधन के प्रयोग पर दलील देते हुए इसे एक प्रयोग बातकर साइंस से जोड़ने की कोशिश भी की है।
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अखिलेश ने कहा, 'मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं, वहां प्रयोग होते हैं और कई बार प्रयोग फेल हो जाते हैं लेकिन आप तब यह महसूस करते हैं कि कमी कहां थी। लेकिन मैं आज भी कहूंगा, जो मैंने गठबंधन करते समय भी कहा था, मायावती जी का सम्मान मेरा सम्मान है। सपा अध्यक्ष भले ही दलों के बीच की दूरी को सम्मान से पाटने की कोशिश कर रहे हों। लेकिन सियासत में हर रिश्ते की एक उम्र होती है, जो फायदा और नुकसान से प्रभावित होती है।
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भले हीं मायावती ने लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के प्रयोग के फेल होने का जिम्मेदार अखिलेश यादव और सपा वोटरों को ठहरा दिया हो। लेकिन चुनावी आंकड़ों पर गौर करें तो शून्य से दहाई में पहुंचकर अपना अस्तित्व बचाने में बसपा के लिए कई सीटों पर यादव वोटरों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लोकसभा चुनाव 2014 के प्रचंड मोदी लहर में संसद में अपनी पार्टी की उपस्थिति को तरस रही बसपा को इस चुनाव में 10 सीटें हासिल हुई। लोकसभा चुनाव 2019 में बसपा को 19.26 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त हुए जबकि सपा का वोट प्रतिशत 17.96 रहा। वहीं बात करें 2014 के लोकसभा चुनाव की जब सपा-बसपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था तो सपा को पिछली बार 22.20, बसपा को 19.60 प्रतिशत वोट मिले थे। यानी सपा को इस बार 4 फीसदी का नुकसान हुआ है। वहीं बसपा अपने वोट शेयर पर लगभग कायम रही और साथ ही 10 सीटें भी जीतीं। उत्तर प्रदेश की 10 सीटों पर बसपा प्रत्याशी की जीत हुई है उसपर नजर डालें तो छह सीटें बिजनौर, नगीना, अमरोहा, श्रावस्ती, लालगंज, गाजीपुर ऐसी हैं जहां 2014 के आम चुनाव में सपा प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे।
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लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के 11 विधायक सांसद बन गए हैं और अब इन गोविंदनगर, लखनऊ कैंट, टूंडला, जैदपुर, मानिकपुर, बलहा, गंगोह, इगलास, प्रतापगढ़, रामपुर, जलालपुर सीटों पर उपचुनाव होने हैं। बसपा अध्यक्ष मायावती ने इन सीटों पर अपने दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। जिन सीटों पर चुनाव होना है उनमें से 9 सीटें भाजपा के पास थीं और दो पर समाजवादी पार्टी का कब्जा था। ऐसे में मायावती 2022 के चुनाव से पहले यूपी की बसपा की ताकत और यूपी की जमीनी हकीकत को भांपना चाहती हैं। सपा की बैसाखी लगाकर शून्य से दहाई पर आई बसपा को इस चुनाव में अखिलेश के साथ ने संजीवनी देने का काम किया। ऐसे में उपचुनाव से पहले गुम हुए गठबंधन के बाद एकला चलो की राह के तहत अखिलेश यादव और मायावती सफल हो जाते हैं या मोदी के तूफान में फिर डूब जाते हैं यह देखना दिलचस्प होगा।
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