साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता को करना पड़ रहा खेतो में काम, 400 रुपए मिलती है देहाड़ी

Navnath Gore

अपने पहले उपन्यास 'फासती' के लिए पुरस्कार जीतने वाले 32 वर्षीय नवनाथ गोरे अप्रैल से खेत में मजदूर के तौर पर काम कर रहे हैं। जहां पर उनकी कुछ 400 रुपए रोजाना कमाई हो जाती है।

कोल्हापुर। साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार विजेता नवनाथ गोरे का जीवन उस वक्त परिवर्तित हो गया, जब हिन्दुस्तान में कोरोना वायरस नामक महामारी ने पैर पसारा। देखते ही देखते मार्च में केंद्र की मोदी सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी और स्कूल, कॉलेज के साथ-साथ तमाम चीजों पर ताला लग गया। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के कॉलेज भी बंद हो गए, जहां पर नवनाथ गोरे मराठी के अस्थायी लेक्चरर थे। 

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अपने पहले उपन्यास 'फासती' के लिए पुरस्कार जीतने वाले 32 वर्षीय नवनाथ गोरे अप्रैल से खेत में मजदूर के तौर पर काम कर रहे हैं। जहां पर उनकी कुछ 400 रुपए रोजाना कमाई हो जाती है। फरवरी में पिता का निधन हो जाने की वजह से नवनाथ गोरे के कंधों पर मां और दिव्यांग भाई दोनों की जिम्मेदारी आ गई है। जो सांगली जिले की जाट तहसील के निगड़ी नामक स्थान पर रहते है।

अंग्रेजी समाचार पत्र द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, नवनाथ गोरे ने कहा कि जब भोजन और दवाईयों का खर्चा पूरा कर पाना कठिन हो गया तब हमें अपने पैतृक गांव लौटना पड़ा। उन्होंने कहा कि साहित्य अकादमी जीतने के बाद मुझे कॉलेज में नौकरी मिली वो भी स्थायी नहीं थी। जहां पर मैं प्रतिमाह करीब 10,000 रुपए कमा लेता था। 

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400 रुपए मिलती है देहाड़ी 

मौजूदा परिस्थितियों के बारे में बात करते हुए नवनाथ गोरे ने बताया कि वह कृषि से जुड़ा हुआ काम करते हैं और उन्हें काम के लिए अपने गांव से करीब 25 किमी का सफर तय करना पड़ता है। जहां पर उन्हें आधे दिन के 200 रुपए और पूरे दिन में 400 रुपए मेहनताना मिलता है। लेकिन मानसून की वजह से रोजाना काम मिले ये भी जरूरी नहीं है।

कृषि कार्य समाप्त हो जाने के बाद गोरे को कोई काम मिलेगा भी या नहीं उन्हें इस बात की चिंता सता रही है क्योंकि उन्हें अपनी मां और दिव्यांग भाई का पेट भरना है। 

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धनगर परिवार में जन्में नवनाथ गोरे ने जीवनभर संघर्ष किया। आर्थिक तंगी से बदहाल परिवार ने और खासकर उनकी मां ने जोर दिया कि वह अपनी शिक्षा पूरी करें। कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय से मराठी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने वाले नवनाथ गोरे अक्सर स्कूल जाने की बजाय झुंड का ध्यान रखने के लिए निकल जाते थे। इसके बावजूद उन्होंने अपनी शिक्षा भी पूरी की और मराठी में उपन्यास भी लिखा। उनके उपन्यास में ग्रामीण इलाकों की झलक खासतौर पर देखी जा सकती है।

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