आम आदमी सरकार से भ्रष्टाचार या मानव अधिकार के हनन के बारे में सूचना मांगता है और नहीं मिलने की सूरत में वो सूचना आयोग की ओर रूख करता है। लेकिन अगर आयोग में जो आयुक्त बैठे हैं वो कमज़ोर हो जाते हैं तो लोगों की सूचना लेने की प्रक्रिया कमज़ोर हो जायेगी और वो ऐसी सूचना नहीं ले सकेंगे। नतीजतन सरकार को जवाबदेह बनाने की प्रक्रिया में भी बाधा उत्तपन्न हो जाएगी। सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 22 जुलाई 2019 को लोकसभा में पास हुआ। जिसके पक्ष में पड़े 218 और विरोध में 89 वोट। इस बिल को राज्यसभा में पास करवाने को लेकर जद्दोजहद जारी है। राज्यसभा से पास हो जाने के बाद फिर इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। वहां से मंजूरी मिलने के बाद इस बिल में बदलाव हो जाएगा। लोकसभा में इस बिल के पास होने के बाद से ही बवाल शुरू हो गया।
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आरटीआई कानून में संशोधन के खिलाफ संसद के अंदर और बाहर विरोध तेज़ है। बीजेडी और टीआरएस जैसे गैर-एनडीए गैर-यूपीए दल भी इसके खिलाफ खड़े हो गए हैं। आरटीआई कार्यकर्ता और कई पूर्व सूचना आयुक्त भी इसके विरोध में सामने आ गए हैं। पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने तो सांसदों को पत्र लिखकर इस बिल की खिलाफत करने की अपील कर दी है। सांसदों को लिखे एक पत्र में श्रीधर आचार्युलु ने कहा कि मैं संसद के प्रत्येक सदस्य से अनुरोध करता हूं कि वे आरटीआई को बचाएं और सरकार को सूचना आयोगों और इस मूल्यवान अधिकार को मारने की अनुमति न दें। श्रीधर आचार्युलु ने सभी सांसदों को लिखे पत्र में अनुरोध किया कि राज्यसभा के सदस्यों पर जिम्मेदारी अधिक है क्योंकि वे उन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी स्वतंत्र आयुक्तों को नियुक्त करने की शक्ति केंद्र को दी जा रही है। पूर्व सूचना आयुक्त ने इसके विरोध को लेकर तर्क देते हुए कहा कि सूचना प्राप्त किए बिना कोई भी नागरिक अपना विचार व्यक्त नहीं कर सकता है या सरकार की गलत नीतियों की आलोचना नहीं कर सकता है। यदि कानून के अनुसार आरटीआई आवेदन का जवाब दिया जाता है, तो यह सीधे शासन, विशेष रूप से सार्वजनिक सुविधाओं की प्रणाली और भ्रष्टाचार को उजागर करेगा।
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आरटीआई की दिशा में काम करने वाला गैर सरकारी संगठन सूचना के जन अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) ने भी एक प्रेस रिलीज जारी कर प्रस्तावित आरटीआई संशोधन विधेयक की कड़ी आलोचना की है। सामाजिक कार्यकार्ता अन्ना हजारे ने भी आरटीआई कानून में संशोधन को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि मोदी सरकार ने लोगों से धोखा किया।
आरटीआई कानून को लेकर केंद्र सरकार का तर्क है कि सूचना आयुक्त की सैलरी और उनका कार्यकाल चुनाव आयोग की सैलरी और उनके कार्यकाल पर निर्भर करता है। लेकिन चुनाव आयोग का काम और सूचना आयुक्त का काम अलग-अलग है। लिहाजा दोनों के स्टेटस और उनके काम करने की स्थितियां अलग-अलग हैं।
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मोदी सरकार के इस बिल में प्रस्तावित बदलाव पर नजर डालें तो सूचना का अधिकार 2005 के दो सेक्शन में बदलाव हुए हैं। सेक्शन 13 और सेक्शन 16 में बदलाव किए गए हैं। साल 2005 के कानून में सेक्शन 13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की तनख्वाह का जिक्र है। मुख्य सूचना आयुक्त की तनख्वाह मुख्य चुनाव आयुक्त के बराबर होगी। सूचना आयुक्त की सैलरी निर्वाचन आयुक्त की सैलरी के बराबर होगी। 2019 के संशोधन के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी। यानि वो तय करेगी कि किसे कितने पैसे दिए जाए। 2005 के सूचना का अधिकार के तहत सेक्शन 16 में जिक्र था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल 5 साल या फिर 65 साल की उम्र तक रहेगा। 2019 में संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार पर निर्भर रहेगा। यानि केंद्र सरकार तय करेगी कि मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त कितने साल तक अपने पद पर बना रहेगा।
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बता दें कि 2005 में जब ये बिल पास हुआ था, तो इससे पहले ये बिल संसद की कई समितियों जैसे कार्मिक मामलों की संसदीय समिति, लोक शिकायत समिति और कानून और न्याय समिति के सामने गया था और वहां से मंजूर हुआ था। इस समितियों में उस वक्त के भाजपा सांसद और वर्तामान के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, बलवंत आप्टे और राम जेठमलानी जैसे भाजपा के नेता शामिल थे। ईएमएस नचीअप्पन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने 2005 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की, तो नए नियम सामने आए, जो 14 साल तक चले।
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