गैरों में कहां दम था...क्या शरद पवार ने संजय राउत के सहारे रफ्ता-रफ्ता उद्धव को निपटा दिया?
15 अक्टूबर 1961 को रायगढ़ के पास चौंदी गांव में जन्में राउत सोमवंशी क्षत्रिय पठारे समुदाय से आते हैं। संजय राउत ने वैसे तो अपने करियक की शुरुआत 1980 में मुंबई के एक लीडिंग मीडिया हाउस में क्लर्क के तौर पर की थी। राउत ने मार्मिक में भी काम किया, जिसे 1960 में बाल ठाकरे ने अपने छोटे भाई श्रीकांत के साथ मिलकर शुरु किया था। राउत शुरुआत में श्रीकांत के नजदीक आ गए।
ठाकरे परिवार अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना आबाद होगी या बर्बादी के मुहाने पर खड़ी है। ऐसे कई सवाल आपके जेहन में कौंध रहे होंगे। आप ये भी जानना चाह रहे होंगे कि आखिर शिवसेना और उद्धव ठाकरे की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? क्या वो संजय राउत हैं। संजय राउत राजनीति का वो किरदार जब वो बोलते हैं तो जुबान से जिस स्कूल में आप पढ़ते हो उस स्कूल के हम हेडमास्टर हैं जैसे फिल्मी डॉयलाग निकलते हैं। वो जब मुझसे पंगा मत लेना मैं नंगा आदमी हूं जैसी धमकी देते हैं तो बदमाश भी बदमाशी भूल जाए। वो जब सामना में लिखते हैं तो दोस्ती और दुश्मनी की परवाह नहीं करते हैं। उद्धव गुट के पास संजय राउत जैसा ऐसा दोस्त है जिसे दुश्मन की जरूरत ही नहीं। ये हम नहीं कह रहे बल्कि सियासत की समझ रखने वाला बच्चा बच्चा कह रहा है। संजय राउत ही हैं जो ठाकरे परिवार से जुड़ने और जड़े जमाने के बाद उनकी जड़े हिलाने तक के जिम्मेदार बनते जा रहे हैं।
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15 अक्टूबर 1961 को रायगढ़ के पास चौंदी गांव में जन्में राउत सोमवंशी क्षत्रिय पठारे समुदाय से आते हैं। संजय राउत ने वैसे तो अपने करियक की शुरुआत 1980 में मुंबई के एक लीडिंग मीडिया हाउस में क्लर्क के तौर पर की थी। राउत ने मार्मिक में भी काम किया, जिसे 1960 में बाल ठाकरे ने अपने छोटे भाई श्रीकांत के साथ मिलकर शुरु किया था। राउत शुरुआत में श्रीकांत के नजदीक आ गए। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार संजय राउत श्रीकांत को पापा-पापा कहकर संबोधित करते थे। संजय राउत इस दौरान राज ठाकरे के भी करीब आए। धीरे धीरे वो राज का सहारा लेकर बाला साहब तक पहुंच गए। उन दिनों राज ही बाला साहब के सबसे करीबी थे। राउत इस वक्त शिवसेना के मराठी डेली सामना के एक्जीक्युटिव एडिटर हैं। खबरों के अनुसार राउत को एडिटोरियल और उनका वीकली लिखना पसंद है। 30 साल से संजय राउत ठाकरे परिवार की आंख, नाक और जुबान सबकुछ बने हुए हैं।
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बात सिर्फ चुनाव में लगे झटके या पार्टी के कमजोर होने की नहीं है। बात है विचारधारा से समझौका कर लेना। आज उद्धव जो भी कर रहे हैं उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो बाला साहब करते थे। बिल्कुल विपरीत तरह की राजनीति। उद्धव ठाकरे ने पार्टी की विरासत के साथ ही लगता है कि प्रतिबद्ध शिवसैनिकों को भी मुख्यमंत्री बनने की लालच में गंवा दिया। वैसे वैसे बातें भी की जो कभी कांग्रेस और शरद पवार ने भी नहीं किया। कभी औरंगजेब तक की तारीफ कर दी। सावरकर के अपमान पर चुप्पी साध रखने के अलावा एआईएमआईएम जैसी पार्टियों से भी हाथ मिलाने से गुरेज नहीं रखी। संजय राउत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि शिवसेना और ठाकरे परिवार के वर्तमान हालात के एकमात्र जिम्मेदार हैं। एक पत्रकार तो यहां तक दावा करते हैं कि एक बार बाला साहब ने एक बार इनका अपमान किया था। वो अंदर से हो सकता है इसकी चोट अब तक दिल में रखे हो। शरद पवार के साथ मिलकर सारी स्क्रिप्ट लिखी हो। रोज मीडिया में आकर अनर्गल बयानबाजी करना। जानकार बताते हैं कि मोदी, अमित शाह और फडणवीस से लड़ने के चक्कर में उद्धव, शरद पवार पर इतना ज़्यादा निर्भर हो गए कि अपनी असली संघर्ष की ताकत खो बैठे। शिवसना का कोर हिन्दुत्व, जो बीजेपी से भी दो कदम आगे था, उससे बड़ा समझौता करना उनकी मजबूरी हो गई। अब अगर लौटना भी चाहें तो लंबा सफर तय करना होगा। एकनाथ शिन्दे बहुत आगे निकल गए हैं। मजे की बात ये है कि शरद पवार के हाथों में अभी भी लड्डू हैं, विपक्ष के महत्वपूर्ण नेता तो बने हुए हैं वहीं भतीजे अजित के रूप में उनके पास एक विक्लप हमेशा खुला रहता है।
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