रेवड़ी कल्चर और वेलफेयर स्कीम में क्या अंतर है? Freebies वाली याचिका पर SC जज ने क्यों सुनाई अपने ससुर की कहानी
स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, सीवरेज, बिजली और परिवहन जैसी कुछ सेवाएं हैं जिन्हें लोग अपने लिए व्यवस्थित नहीं कर सकते हैं। इसलिए वे सरकारें चुनते हैं। ये सभी कल्याणकारी उपाय हैं। इनमें से कितनी सेवाएं मुफ्त होनी चाहिए यह सरकार के राजकोषीय दायरे पर निर्भर करता है।
देश के अन्य राज्यों में वैसे तो फ्री- पॉलिटिक्स का चलन काफी पहले से है। चाहे वो बिहार में नीतीश कुमार द्वारा साइकिल दिया जाना हो या ओडिशा की पटनायक सरकार द्वारा एलईडी बल्ब और शिक्षा लोन दिया जाना हो। लेकिन बिजली और पानी ऐसा मुद्दा रहा है जो सीधे-सीधे निम्न और मध्यम वर्ग के वोटरों को कनेक्ट करता है। दिल्ली में ये फॉर्मूला हिट रहा है। देश में रेवड़ी कल्चर यानी चुनाव के वक्त फ्री योजनाओं के ऐलान पर बहस छिड़ी है। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एनवी रमन्ना और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। राजनीतिक पार्टियों के जरिये मुफ्त योजनाओं के ऐलान के खिलाफ बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने याचिका दायर की है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले को बहुत गंभीर माना। कोर्ट ने कहा कि लोगों की भलाई के लिए चलाए जाने वाली वेलफेयर स्कीम और देश की आर्थिक सेहत दोनों में बैलेंस बनाए रखने की जरूरत है। सुनवाई के दौरान एनवी रमन्ना ने अपने ससुर से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाया।
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उन्होंने कहा कि मेरे ससुर एक किसान हैं। किसानों को उन दिनों बिजली का कनेक्शन नहीं मिल पाता था। मेरे ससुर ने मुझसे इस बारे में याचिका दाखिल करने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि ये सरकार की नीति है, इस पर कुछ नहीं कर सकते। लेकिन कुछ दिनों बाद सरकार ने अवैध तरीके से कनेक्शन जोड़ने वाले सभी किसानों के अवैध कनेक्शन वैध कर दिए। मेरे पास अपने ससुर को देने के लिए कोई जवाब नहीं था।
वेलफेयर बनाम फ्रीबीज
स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, सीवरेज, बिजली और परिवहन जैसी कुछ सेवाएं हैं जिन्हें लोग अपने लिए व्यवस्थित नहीं कर सकते हैं। इसलिए वे सरकारें चुनते हैं। ये सभी कल्याणकारी उपाय हैं। इनमें से कितनी सेवाएं मुफ्त होनी चाहिए ये सरकार के राजकोषीय दायरे पर निर्भर करता है। यदि आपकी व्यय-राजस्व की स्थिति मजबूत है, तो आप जितनी चाहें मुफ्त सेवाएं दें। लेकिन हकीकत यह है कि सभी राज्यों में अक्सर नकदी की कमी रहती है। लेकिन हम इस पर बाद आएंगे। सबसे पहले समझते हैं कि फ्रीबीज क्या हैं? फ्रीबीज शब्द का डिक्शनरी में अर्थ है जो आपको मुफ्त में दिया जाता हो। लेकिन वास्तविक अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछ रहे हैं। कुछ के लिए ये एक अभिजात्य निर्माण है तो वहीं अन्य लोगों की नजर में ये तुच्छ है। एक फ्रीबीज और एक आवश्यक सेवा के बीच भेद करने के लिए समय और स्थान के उचित संदर्भ की आवश्यकता होती है। मसलन, हेल्थ और एजुकेशन को कभी भी रेवड़ी नहीं समझा गया। उदाहरण के लिए, मध्याह्न भोजन योजना राष्ट्रीय हो गई है, लेकिन जब इसे 1980 के दशक की शुरुआत में दक्षिण में शुरू किया गया था, तो उत्तर में कई लोग इस विचार को पचा नहीं सके। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है प्राकृतिक आपदा या महामारी के दौरान जीवन रक्षक दवाएं, भोजन या धन मुहैया कराने से लोगों की जान बच सकती है लेकिन इसे नियमित रूप से लागू किया जाना मुफ्त उपहार कहा जा सकता है। आरबीआई ने अपनी इस रिपोर्ट में ‘कैग’ के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि राज्य सरकारों का सब्सिडी पर खर्च लगातार बढ़ रहा है। 2020-21 में सब्सिडी पर कुल खर्च का 11.2 फीसदी खर्च किया था, जबकि 2021-22 में 12.9 फीसदी खर्च किया था। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब राज्य सरकारें सब्सिडी की बजाय मुफ्त ही दे रहीं हैं। सरकारें ऐसी जगह पैसा खर्च कर रहीं हैं, जहां से उन्हें कोई कमाई नहीं हो रही है। फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री यात्रा, बिल माफी और कर्ज माफी, ये सब ‘फ्रीबाई हैं, जिन पर राज्य सरकारें खर्च कर रहीं हैं। संविधान के भाग IV में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत कहते हैं कि राज्य सरकार को उन लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना चाहिए जो गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं या समर्थन के बिना प्रगति नहीं कर सकते हैं। लेकिन हमने देखा है कि चुनावी घोषणापत्र अक्सर ऐसे भेदों का सम्मान नहीं करते हैं।
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कहां से हुई शुरुआत
1990 के दशक में अन्नाद्रमुक की जे जयललिता ने वादा किया की तमिलनाडु में मुफ्त साड़ी, प्रेशर कुकर, टेलीविजन सेट और वाशिंग मशीन वितरित की जाएगी। लगभग उसी समय पंजाब में अकालियों ने मुफ्त बिजली देने की ऐलान किया। फ्रीबीज कल्चर के विस्तार की जड़ जनता दल (जिसके वीपी सिंह 1989 में प्रधान मंत्री बने) के आने के बाद से भी जोड़ कर देखी जा सकती है। कैसे जिसके बाद के वर्षों में क्षेत्रीय दलों का जन्म होता रहा।
बिहार: जॉर्ज फर्नांडीस की 1994 वाली समता पार्टी (जो 2003 में नीतीश कुमार की जदयू हो गई), लालू यादव की राजद 1997 में और रामविलास पासवान की लोजपा साल 2000 में बनी।
उत्तर प्रदेश: 1992 में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी।
ओडिशा: 1997 में बीजू पटनायक की बीजद।
कर्नाटक: 1999 में एचडी देवेगौड़ा की जेडीएस।
हरियाणा: देवी लाल की इनेलो और 1996 में अजीत सिंह की रालोद।
इन दलों के नेताओं की विचारधारा कमोबेश एक जैसी थी लेकिन उनके बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही थी। आपसी खींचतान के बीच मुफ्त उपहार एक आसान शॉर्टकट बना। कई मामलों में, पार्टियों ने उचित आर्थिक नीतियों के माध्यम से लोगों के लिए पर्याप्त रोजगार या कौशल प्रदान करने या लोगों के लिए अच्छी आजीविका सुनिश्चित करने में अपनी सरकारों की विफलता को कवर करने के लिए फ्रीबी संस्कृति का सहारा लिया। कई पार्टियां नहीं चाहतीं कि मुफ्तखोरी बंद हो। लेकिन चुनाव जीतना और सुशासन देना दो अलग चीजें हैं। 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने बेतहाशा उम्मीदों को पार किया और मुफ्त (कुछ सीमा तक) बिजली और पानी के वादे पर सत्ता में आई। वोटरों ने झोली भर कर केजरीवाल की पार्टी को 2020 के विधानसभा चुनाव में वोट दिया। यहां तक कि जब आप नेता अरविंद केजरीवाल पहली बार 2013 में (49 दिनों के लिए) दिल्ली में सत्ता में आए, तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से लंबित बकाया बिलों को माफ कर दिया था। उन्होंने यह कहकर अपने कार्यों को सही ठहराया कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार आवश्यक सेवाएं प्रदान करने की आड़ में जनता को लूट रही थी।
मुफ्त सुविधाओं की लागत
विशेषज्ञों का मानना है कि मुफ्त सुविधाओं पर ज्यादा जोर देने से राज्य की वित्तीय स्थिति प्रभावित होती है और सरकारें कर्ज के जाल में फंस जाती हैं। आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि फ्रीबीज क्रेडिट संस्कृति को कमजोर करते हैं, क्रॉस-सब्सिडी के माध्यम से कीमतों को विकृत करते हैं, निजी निवेश के लिए प्रोत्साहन को कम करते हैं, वर्तमान मजदूरी दर पर काम को हतोत्साहित करते हैं जिससे श्रम बल की भागीदारी में गिरावट आती है। पंजाब की बिजली सब्सिडी और राज्य के खजाने पर इसकी बढ़ती लागत कुल राजस्व का 16 प्रतिशत से अधिक है। विश्लेषणात्मक फर्म क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश राज्य अनिश्चित ऋण स्थितियों में हैं, जो अधिक महत्वपूर्ण जन कल्याणकारी उपायों पर खर्च करने की उनकी क्षमता को बाधित करेगा।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की State Finances- A Risk Analysis रिपोर्ट के मुताबिक 2021-2022 में किस राज्य में अपनी जीएसडीपी की तुलना में कितना कर्ज है आपको बताते हैं-
पंजाब
GSDP का 53.3% कर्ज है
राजस्थान
GSDP का 39.5% कर्ज है
बिहार
GSDP का 38.6% कर्ज है
केरल
GSDP का 37% कर्ज है
उत्तर प्रदेश
GSDP का 34.9% कर्ज है
पश्चिम बंगाल
GSDP का 34.4% कर्ज है
झारखंड
GSDP का 33% कर्ज है
आंध्र प्रदेश
GSDP का 32.5% कर्ज है
मध्य प्रदेश
GSDP का 31.3% कर्ज है
हरियाणा
GSDP का 29.4% कर्ज है
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फ्रीबीज पर आरबीआई
श्रीलंका के हालात से तो आप सभी रूबरू होंगे। लेकिन भारत के राज्यों को लेकर भी बीते दिनों बड़ी चिंता जताई गई। आरबीआई ने श्रीलंका के ऋण संकट की पृष्ठभूमि के खिलाफ तैयार की गई अपनी रिपोर्ट में राज्य के वित्त की गंभीर स्थिति को "फ्रीबीज" से जोड़ा है। विशेष रूप से बिजली सब्सिडी, जिसने डिस्कॉम को बकाया राशि बढ़ा दी है। श्रीलंकाई सरकार ने बड़े पैमाने पर कर में कटौती की थी और कई मुफ्त सामान और सेवाएं प्रदान की थीं। जिससे अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई। रिजर्व बैंक के सालाना प्रकाशन ‘राज्य वित्त:2021-22 के बजट का एक अध्ययन’ में यह भी कहा गया है कि चूंकि कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर का प्रभाव अब काफी हद तक समाप्त हो गया है, ऐसे में राज्य सरकारों को कर्ज स्थिरता संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए विश्वसनीय कदम उठाने की आवश्यकता है। बड़े राज्यों की बात करें तो पंजाब में सबसे खराब ऋण-से-जीडीपी अनुपात 39.9 प्रतिशत है, इसके बाद उत्तर प्रदेश है, जहां ऋण का स्तर सकल घरेलू उत्पाद का 38.1 प्रतिशत तक पहुंच गया है। हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में भी ऋण-से-जीडीपी अनुपात सीमा से कहीं अधिक है। इसके विपरीत, असम, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में ऋण-से-जीडीपी अनुपात सबसे कम है।
सुप्रीम कोर्ट का 2013 का हस्तक्षेप
संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का अधिकार है। आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का पालन करने में विफलता के लिए आयोग किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की मान्यता को निलंबित या वापस ले सकता है। लेकिन आयोग ने शायद ही कभी इस शक्ति का प्रयोग किया हो। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि फ्रीबीज के लिए बजट नियमित बजट से ऊपर जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुफ्त उपहार, निस्संदेह, सभी लोगों को प्रभावित करते हैं। यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की जड़ को काफी हद तक हिला देता है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों के परामर्श से दिशानिर्देश तैयार करने को कहा।
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चुनाव आयोग के 2014 दिशानिर्देश
2014 में चुनाव आयोग ने अपने दिशानिर्देश जारी किए जिसमें। इन बातों को अनिवार्य रूप से इसे अपने एमसीसी का हिस्सा बनाने के लिए कहा गया।
पार्टियां ऐसे वादे नहीं करेंगी जो मतदाताओं को प्रभावित कर सकें।
घोषणापत्र में वादों के औचित्य को भी दर्शाया जाना चाहिए और वित्तीय आवश्यकता को पूरा करने के तरीकों और साधनों को व्यापक रूप से इंगित करना चाहिए।
मतदाताओं का विश्वास केवल उन्हीं वादों पर मांगा जाना चाहिए, जिन्हें पूरा किया जा सकता है। 2015 में आयोग ने पार्टियों को अपने घोषणापत्र की एक प्रति जमा करने के लिए कहा।
लेकिन मुफ्तखोरी की समस्या खत्म नहीं हुई है।
फिर कोई अंकुश क्यों नहीं?
चुनाव आयोग को अपने दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए और अधिक शक्तियों की आवश्यकता है। लेकिन उसी के लिए इसके प्रस्ताव ज्यादातर धूल फांक रहे हैं। 2004 में आयोग ने चुनावी सुधारों के लिए 22 प्रस्ताव केंद्र को भेजे, जिसमें राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्तियाँ भी शामिल थीं। फिर 2016 में आयोग ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को नियमों में संशोधन करने और घोर चुनावी कदाचार के लिए एक राजनीतिक दल को पंजीकृत करने में सक्षम बनाने के लिए एक प्रस्ताव भेजा। लेकिन ज्यादा कुछ नहीं हुआ है।
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वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में मामला
सुप्रीम कोर्ट दिल्ली बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें चुनाव से पहले मुफ्त उपहार देने के लिए चुनाव चिन्ह को फ्रीज करने या किसी पार्टी का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश देने की मांग की गई है। कोर्ट ने इसे गंभीर मसला बताया है। अदालत ने कहा, "गरीबों को खाना खिलाने की जरूरत है, लेकिन लोक कल्याण को संतुलित करने की जरूरत है, क्योंकि मुफ्त कल्चर की वजह से अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है। वैसे इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार भी लगाई है। कोर्ट ने कहा कि हमें हलफनामा नहीं मिलता। लेकिन अखबारों को मिल जाता है, लीक हो जाता है, छप जाता है।
पूरे मसले पर केंद्र का स्टैंड
मुफ्तखोरी बंद होनी चाहिए क्योंकि अवसरवादियों की नासमझ घोषणाएं अर्थव्यवस्था को संकट की ओर धकेल रही हैं।
जनता के पैसे का इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए और चुनाव आयोग को उनसे निपटने के तरीके तलाशने चाहिए।
मेरी बाईं जेब में जो आता है वह मेरी दाहिनी जेब से लिया जाता है।
पीएम मोदी ने जनसभाओं में मुफ्त और सब्सिडी की संस्कृति के खिलाफ जोरदार ढंग से बात की, जिस पर आप ने पलटवार किया।
आम आदमी पार्टी का रूख
आप ने अदालत से कहा है कि उसकी सरकार (दिल्ली और पंजाब में) द्वारा दी जाने वाली बिल्कुल आवश्यक स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं फ्रीबीज नहीं हैं। आप ने कहा है कि जनहित याचिका इस बारे में बात नहीं करती है कि केंद्र ने कैसे खर्च किया है या सरकारी खजाने से महत्वपूर्ण राशि को स्वेच्छा से कॉर्पोरेट क्षेत्र की सहायता और अमीरों को समृद्ध करने के लिए यूज किया है।
तो आगे क्या?
चुनाव आयोग ने कहा है कि मुफ्त उपहार का मुद्दा मतदाताओं पर छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि यह राज्य की नीतियों और निर्णयों को विनियमित नहीं कर सकता है जो जीतने वाली पार्टी द्वारा सरकार बनाते समय लिए जा सकते हैं। आयोग ने कहा है कि इस तरह की कार्रवाई, कानून में प्रावधानों को सक्षम किए बिना, शक्तियों का अतिरेक होगा। इस सबमिशन के जवाब में, अदालत ने इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिए नीति आयोग, वित्त आयोग, चुनाव आयोग, आरबीआई और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधित्व के साथ एक समिति गठित करने का प्रस्ताव दिया है। चुनाव आयोग ने अदालत के प्रस्ताव का स्वागत किया है लेकिन कहा है कि एक संवैधानिक प्राधिकरण होने के नाते वह समिति का हिस्सा नहीं हो सकता। आयोग ने हालांकि कहा कि वह विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों को सर्वोच्च विचार देगा। -अभिनय आकाश
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