क्या है गुटनिरपेक्ष आंदोलन? जिसका जिक्र कर ड्रैगन की सरपरस्ती में श्रीलंकाई पीएम ने भारत का क्रेडिट भी चीन को दे दिया

China Sri Lanka
अभिनय आकाश । Jul 13 2021 5:36PM

श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जन्मदाता चीन के पूर्व प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई को बता दिया। जबकि इस आंदोलन के संस्थापक भारत का नाम तक नहीं लिया है और न ही इसकी नींव रखने वाले पंडित नेहरू के नाम का कहीं जिक्र किया। जबकि तथ्य इसके उलट हैं, चीन गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन का पूर्ण सदस्य तक नहीं है।

ये 18-24 अप्रैल की बात है साल 1955 जब इंडोनेशिया के पश्चिमी प्रांत बांडुंग में एशियाई और अफ्रीकी देशों की एक बैठक होती है। जिसमें म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, और भारत शामिल होते हैं। इस बैठक को बांडुंग सम्मेलन कहा जाता है। उसी बांडुंग सम्मेलन में जब श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर जॉन कोटलेवाला ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया और रोमानिया जैसे देश उसी तरह सोवियत संघ के उपनिवेश हैं जैसे एशिया और अफ्रीका के दूसरे उपनिवेश हैं। ये बात नेहरू जी को बहुत बुरी लगी। वो उनके पास गए और आवाज ऊंची करके बोले, सर जॉन आपने ऐसा क्यों किया? अपना भाषण देने से पहले आपने उसे मुझे क्यों नहीं दिखाया? जॉन ने छूटते ही जवाब दिया कि मैं क्यों दिखाता अपना भाषण आपको? क्या आपने अपना भाषण देने से पहले मुझे दिखाते? इतना सुनते ही पंडित नेहरू क्रोध से भर उठे और छह वर्ष तक प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाले पूर्व आईपीएस केएफ रूस्तमजी की माने तो नेहरू जी ने अपना हाथ ऊपर उठा लिया था और ऐसा लगा कि जैसे वो कोटेलावाला को तमाचा न जड़ दें। लेकिन बीच में आईं इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू का हाथ पकड़ कर उनके कान में आहिस्ता से कहा- आप शांत हो जाइए। वहां मौजूद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चाऊ एनलाई ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में दोनों को समझाने की कोशिश की।  इस वाक्या का जिक्र करते हुए जॉन कोटलेवाला ने अपनी किताब 'एन एशियन प्राइम मिनिस्टर्स स्टोरी' में लिखा कि मैं और नेहरू हमेशा से बेहतरीन दोस्त रहे और मुझे विश्वास है कि नेहरू ने मेरी उस धृष्टता को भुला दिया होगा। 

इसे भी पढ़ें: इटली को आजाद कराने के लिए 5 हजार भारतीय सैनिकों ने दी प्राणों की आहुति, सेना प्रमुख ने इनकी याद में बने स्मारक का किया उद्घाटन

ये तो सभी जानते हैं श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्रा राजपक्षे चीन के परम हितैषी रहे हैं। देश को चीन के कर्ज के बोझ तले दबाने के पीछे भी राजपक्षे की मुख्य भूमिका रही है। चीन की चरणवंदना में इतिहास की सच्चाईयों को भी नकारने से श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को गुरेज नहीं है। अपनी 100वीं वर्षगांठ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मनाया जा रहा है। इसी अवसर पर श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जन्मदाता चीन के पूर्व प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई को बता दिया। जबकि इस आंदोलन के संस्थापक भारत का नाम तक नहीं लिया है और न ही इसकी नींव रखने वाले पंडित नेहरू के नाम का कहीं जिक्र किया। जबकि तथ्य इसके उलट हैं, चीन गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन का पूर्ण सदस्य तक नहीं है और बतौर पर्यवेक्षक देश के तौर पर वो इस संगठन से जुड़ा है। 

इसे भी पढ़ें: वन नेशन वन राशन कार्ड, इससे जुड़ा राजनीतिक विवाद और कैसे करेगा काम,

महिंद्रा राजपक्षे ने क्या कहा?

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक आभासी सम्मेलन को संबोधित करते हुए श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्रा राजपक्षे ने कहा कि जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटी हुई थी, उस दौर में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने दुनिया के सामने गुट निरपेक्ष देशों का विचार रखा। उन्होंने गुटनिरपेक्षता की नीति की वर्तमान दौर में प्रासंगिकता का भी उल्लेख किया। चीन की शान में कसीदे पढ़ते हुए राजपक्षे ने कहा कि यह स्पष्ट है कि आने वाली सदी में चीन एशिया की अगुवाई करेगा। चीन ने कभी भी अपने राजनीतिक विचारों को दुनिया पर थोपने की कोशिश नहीं की है और न ही कभी दूसरे देशों के मामलों में दखलअंदाजी की है। उन्होंने कहा कि दुनिया के दो खेमों (अमेरिका और रूस) में बंटने के कारण एशिया और अफ्रीका के कई देशों को मुश्किल का सामना करना पड़ा है। इन देशों को चीन ने उबारकर ऐतिहासिक काम किया है। 

एतिहासिक तथ्यों को भूले राजपक्षे

महिंद्रा राजपक्षे ने कहा कि दो ध्रुवीय विश्व के कारण दुनिया को जिस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था वो चीन ही था जिसने दुनिया को मुश्किल वक्त से उबारा। उस दौर में चाऊ एनलाई के द्वारा गुट निरपेक्ष देशों का विचार दुनिया के सामने रखा गया। गुटनिरपेक्ष नीति वर्तमान दौर के लिए बड़ी राहत की बात लगती है। इसी दौरान इतिहासिक तथ्यों को दरकिनार कर चीन को खुश करने की कोशिश में राजपक्षे इस बात को भूल गए कि चीन गुटनिरपेक्ष देशों का कभी पूर्ण सदस्य रहा ही नहीं, बल्कि बतौर पर्यवेक्षक देश ही वो इस संगठन से जुड़ा रहा। 

इसे भी पढ़ें: ऐप स्टोर में गूगल की दादागिरी के खिलाफ अमेरिका के 36 राज्यों में मुकदमा, कभी माइक्रोसॉफ्ट के खिलाफ भी हुआ था एक्शन

क्या है गुटनिरपेक्ष आंदोलन

इसे समझने के लिए आपको फिर से कहानी में थोड़ा पीछे लिए चलते हैं। जब हमने नेहरू और श्रीलंकाई पीएम जॉन कोटलेवाला के बीच हुई नोक-झोंक का जिक्र किया था। दरअसल, गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अवधारणा शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में इंडोनेशिया में आयोजित इसी बांडुंग सम्मेलन के दौरान रखी गई थी। जब वर्ल्ड वॉर टू के बाद कोल्ड व़ॉर का दौर चल रहा था और दुनिया के अधिकतर देश दो धरों में साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका के नेतृत्व में बंट गया था। इसके साथ ही उस दौर में विश्व के अधिकाशं हिस्सों में औपनिवेशिक शासन का अंत होना शुरू हो गया और एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका व अन्य क्षेत्रों में कई नए देश दुनिया के नक्शे पर उभरने लगे। इसी दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने इन देशों के लिये दोनों गुटों से अलग रहकर एक स्वतंत्र विदेशी नीति रखते हुए आपसी सहयोग बढ़ाने का एक मज़बूत आधार प्रदान किया। जिसकी स्थापना में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसेफ ब्रॉज टीटो और मिस्त्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर ने अहम भूमिका निभाई। इसके साथ ही इंडोनेशिया के अहमद सुकर्णो और घाना के प्रधानमंत्री वामे एनक्रूमा ने भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपना समर्थन दिया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन वर्ष 1961 में बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में आयोजित किया गया था, इस सम्मेलन में विश्व के 25 देशों ने हिस्सा लिया था। वर्तमान में विश्व के 120 देश इस समूह के सक्रिय सदस्य हैं।

राजपक्षे श्रीलंका से ज्यादा चीन के दोस्त हैं

महिंद्रा राजपक्षे को हमेशा से चीन के लिए झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है। चीन का पुराना फार्मूला है इन्वेस्टमेंट, श्रीलंका हो या मालदेव पाकिस्तान हो या नेपाल, इन देशों में खूब इनवेस्ट करता है और तरक्की के सपने बेचता है और फिर इसी कर्ज की राह अपने सामरिक हित साधता है। राजपक्षे 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे। चीन के परम हितैशी रहे। उनके समय में चीन ने श्रीलंका को बेतहाशा कर्ज दिया। श्रीलंका इस हालत में पहुंच गया कि उसे अपना हंबनटोटा बंदरगाह, अपनी जमीन गिरवी रखना पड़ा। पूरे 99 सालों के लिए ये बंदरगाह चीन का है। बंदरगाह ही नहीं, बल्कि श्रीलंका ने भारत की सीमा से लगी लगभग 15 हजार एकड़ जमीन भी चीन को दे दी। श्रीलंका के सिर से कर्ज तब भी खत्म नहीं हुआ है। आज की तारीख में उसके कुल राजस्व का 80 फीसदी कर्ज चुकाने में जाता है। कहा जाता है कि राजपक्षे श्रीलंका से ज्यादा चीन के दोस्त हैं, चीन के हितों की परवाह करते हैं। चीन को श्रीलंका में हावी करने का क्रेडिट राजपक्षे को ही जाता है। 2018 में इनके वापस लौटना फिर से एक बार बताता है कि चीन श्रीलंका को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। श्रीलंका की केंद्रीय बैंक द्वारा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 100वीं वर्षगांठी और श्रीलंका-चीन संबंधों के 65 साल पूरे होने पर दो सोने और एक चांदी का सिक्का जारी किया। साल 1998 में देश की आज़ादी की 50वीं सालगरिह पर सोने का सिक्का जारी किया था।  पहली बार है कि श्रीलंका ने किसी अन्य देश की राजनीतिक पार्टी के सम्मान में सिक्के जारी किए हैं।- अभिनय आकाश

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़