1953 का तख्तापलट, 1979 की क्रांति, ईरान-अमेरिका में दुश्मनी की पूरी कहानी
ईरान के खिलाफ अमेरिका भी जंग नहीं चाहता है इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि अमेरिकी संसद के निचले सदन से ईरान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए डोनाल्ड ट्रंप की शक्तियों को सीमित करने का ''वॉर पावर्स'' प्रस्ताव पारित हो गया है।
पहले अमेरिका ने ईरान के जनरल को मारा फिर ईरान ने अमेरिकी ठिकानों पर किया हमला। वार और पलटवार से दहशत में आ गई दुनिया। फिर सामने आए ट्रंप और अमन का दिया पैगाम।
ईरान और अमेरिका के बीच जो पंद्रह दिनों तक तलवारें खिचीं तो उसमें दोनों लगातार एक दूसरे पर हमले करते रहे। इस तनातनी में जब अमेरिका ने ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी को खत्म किया तो ये तय माना जा रहा था कि अब दुनिया में एक और जंग छिड़ने वाली है। ईरान की जनता के गुस्से ने जंग का खौफ और बढ़ा दिया।
जनरल की मौत का बदला लेने की कसम खा चुके ईरान ने ईराक में अमेरिकी ठिकानों पर हमला बोल दिया। एक के बाद एक 22 मिसाइलों से अमेरिकी एयरबेस को निशाना बनाया गया। ईरान के इस पलटवार से विश्व युद्ध का संकट और गहरा गया। अब इंतजार अमेरिका के अगले वार का था। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जंग के दहकते शोलों को ठंडा करना ही बेहतर समझा।
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ईरान के खिलाफ अमेरिका भी जंग नहीं चाहता है इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि अमेरिकी संसद के निचले सदन से ईरान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए डोनाल्ड ट्रंप की शक्तियों को सीमित करने का 'वॉर पावर्स' प्रस्ताव पारित हो गया है। इस प्रस्ताव के पक्ष में 194 वोट पड़े। अगर उच्च सदन में भी यह प्रस्ताव पारित हो गया, तो डोनाल्ड ट्रंप की शक्तियां ईरान के खिलाफ युद्ध संबंधी निर्णय लेने में सीमित रह जाएंगी।
फिलहाल ऐसा लग रहा है कि जंग के बादल छट गए और अमन की नई सुबह आ गई है। लेकिन आज आपको बताएंगे अमेरिका और ईरान के बीच अदावत कोई नई नहीं है बल्कि दशकों पुरानी है। तो आपको सुनाते हैं 1953 का तख्तापलट, 1979 की क्रांति, ईरान-अमेरिका में दुश्मनी की पूरी कहानी...
वर्ल्ड वॉर 2 से पहले ईरान के तेल उद्योग पर ब्रिटेन का खासा प्रभाव था। ब्रिटेन इस प्रभाव और कंट्रोल को एंग्लो-ईरानी ऑइल कंपनी के माध्यम से बनाए रखता था। वक्त बीतता है और फिर साल 1953 आता है, ईरान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई मुहम्मद मोसेद्दक सरकार का राज था। जिसका तख्तापलट हो गया। इस तख्तापलट के पीछे लंबे समय से अमेरिका और ब्रिटेन का हाथ होने की संभावना जताई जा रही थी। अब US स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा सार्वजनिक किए गए कुछ अहम कागजातों से इस पूरी घटना के पीछे अमेरिका की भूमिका को स्पष्ट कर दिया है और साबित हो गया है कि इस पूरी घटना के पीछे CIA का हाथ था। 1953 में ईरान की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई मुहम्मद मोसेद्दक सरकार के तख्तापलट के पीछे लंबे समय से अमेरिका और ब्रिटेन का हाथ होने की संभावना US स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा सार्वजनिक किए गए कुछ अहम कागजातों से स्पष्ट हो गया है। 1,000 पन्नों में 1951 से 1954 के बीच अमेरिका के ईरान के साथ संबंधों का ब्योरा दिया गया है। इन्हीं कागजातों में बताया गया है कि किस तरह तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन ने ईरान में गुप्त ऑपरेशन की मदद से मोसेद्दक सरकार का तख्तापलट कराया।
1953 से लेकर 1977 तक ईरान में शाह रेजा पहलवी ने अमेरिका की मदद से हुकूमत चलाई। अपने काल में ईरान में अमेरिकी सभ्यता को फलने-फूलने तो दिया, लेकिन साथ ही साथ आम लोगों पर कई तरह के अत्याचार भी किए। ऐसे में कई धार्मिक गुरू शाह के खिलाफ हो लिए। 1963 में शाह पहलवी की पश्चिमीकरण की नीतियों खिलाफ रूहोल्लाह खोमैनी ने मोर्चा खोल दिया। खोमैनी को शाह के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए पहले गिरफ्तार किया गया और फिर 1964 में देश निकाला दे दिया गया। ईरान पर इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू किया गया।
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अमेरिका ने ऐसा कुछ नहीं किया। और फिर वो घटना घटी जिसके बाद अमेरिका और ईरान के संबंध ऐसे टूटे के आज तक नहीं जुड़ पाए। 1979 में ईरानी रेवोल्यूशन के दौर में नवंबर 4, 1979 को तेहरान की अमेरिकी एम्बेसी पर हमला हुआ। इसमें 63 लोगों को कब्जे में लिया गया। उसके बाद तीन और लोगों को बंदी बनाकर लाया गया।कुल 66 लोगों को बंदी बनाया गया। छात्रों ने बंधकों के बदले अमेरिका से शाह को लौटाने की मांग की जो उस वक्त ईरान से भागकर अमेरिका की पनाह में थे। अमेरिका ने जवाब में देश के बैंकों में मौजूद ईरान की संपत्ति जब्त कर ली। अमेरिकी राष्ट्रपति ने बाकायदा आर्मी ऑपरेशन Eagle Claw की मदद से बंधकों को छुड़वाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ये सफल न हो पाया। इस ऑपरेशन में 8 अमेरिकी सर्विसमैन और 1 ईरानी नागरिक की मौत भी हो गई थी। सितंबर में इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला बोल दिया। ईरान को साथ की जरूरत थी। लेकिन लगभग सभी देशों की शर्त थी कि अमेरिकी नागरिकों को कैद में रख कर ईरान मदद की अपेक्षा नहीं कर सकता। जिसके बाद अल्जीरिया के राजनयिकों की मध्यस्थता से कुछ दिन बाद उनमें से कई लोगों को छोड़ा गया, लेकिन बचे 52 लोगों को तेहरान की अमेरिकी एम्बेसी में ही 444 दिनों तक रहना पड़ा यानी पूरे डेढ़ साल तक। इन 52 बंधकों को 20 जनवरी, 1981 में छुड़वाया गया था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इसे ब्लैकमेल और आतंकवाद की घटना बताई थी। ये घटना इतनी ताकतवर थी कि अमेरिका में भी जिमी कार्टर को अपनी सत्ता गंवानी पड़ गई थी। इसे ईरान में अमेरिकी के दख्ल का विरोध बताया जा रहा था। इस घटना के बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाए।
- अभिनय आकाश
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