क्या थी 1950 की भारत-नेपाल संधि? सच में नेहरू ने ठुकराया था राजा त्रिभुवन का विलय वाला प्रस्ताव
भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी ऑटोबायोग्राफी 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' में एक बड़ा खुलासा किया। बकौल मुखर्जी, नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम सिंह ने नेपाल को भारत का प्रांत बनाने की पेशकश की थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस ऑफर को ठुकरा दिया था।
कहते हैं इंसान गलतियों का पुतला है। लेकिन एक सफल इंसान वहीं है जो वक्त-वक्त पे अपनी गलतियों से सीख लेता रहे और उन्हें सुधारता भी रहे। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने वैसे तो कई गलतियां की। इतिहास के हवाले से जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधने के आरोप भी कई बार वर्तमान सरकार पर लगते रहे हैं। चाहे वो कश्मीर को लेकर नेहरू की नीतियों की बात हो या नेहरू की विदेशी नीति का मुद्दा। संयुक्त राष्ट् सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए चीन की पैरवी करना हो या फिर तिब्बत पर चीन के कब्जे का समर्थन। कभी नेहरू हिंदी चीनी भाई-भाई के झांस में फंसे तो कभी शेख अब्दुल्ला पर भरोसा करना पड़ा भारी। यहां तक की संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने की भी कर ली थी तैयारी। इतिहास के ही आइने में देखेंगे तो नजर आयेगा की सामाजिक परिदृश्यों की चाह में देश टूटते रहे हैं। भारत से टूटकर पाकिस्तान बना और फिर पाकिस्तान से बांग्लादेश। लेकिन आज की कहानी दो देशों के मिलने की मंशा और इससे होने वाले नफा-नुकसान की है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी ऑटोबायोग्राफी 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' में एक बड़ा खुलासा किया। बकौल मुखर्जी, नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम सिंह ने नेपाल को भारत का प्रांत बनाने की पेशकश की थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस ऑफर को ठुकरा दिया था। इस आरोप के पीछे कितनी सच्चाई है। आइए इतिहास के हवाले से पूरे माजरे को समझने की कोशिश करते हैं कि क्या थी इसके पीछे की सच्चाई और अगर 1950 में नेपाल के विलय का प्रस्ताव मान लिया जाता तो कैसा होता भारत?
पहले आपको नेपाल के अहम किरदारों के बारे में बताते हैं-
राणा- नेपाल का राजघराना जिसने 1846 से 1951 तक राज किया। जो खुद को अलग-थलग रखने की नीति पर चलता था।
राजा त्रिभुवन- 1911 से नेपाल के राजा थे। राणा शासकों को हराने के बाद 1951 में वे फिर से नेपाल के राजा बने। उन्होंने नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र के तहत लोकतंत्र की स्थापना की।
दि नेपाली कांग्रेस- नेपाली नेशनल कांग्रेस और नेपाली डेम्रोक्रेटिक पार्टी के विलय के बाद इसका गठन 1946 में हुआ।
प्रणब मुखर्जी की किताब में क्या लिखा है
प्रणब मुखर्जी की ऑटोबायोग्राफी 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' में बताया गया है कि विलय का प्रस्ताव नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम सिंह शाह द्वारा पंडित नेहरू को दिया गया था। लेकिन उस वक्त नेहरू ने इस ऑफर को ठुकरा दिया था। नेहरू का कहना था कि नेपाल स्वतंत्र राष्ट्र है और इसे स्वतंत्र ही रहना चाहिए। उन्होंने नेपाल के साथ संबंधों को बेहद ही कूटनीतिक रखा। किताब के 11वें अध्याय 'माई प्राइम मिनिस्टर डिफ्रेंट स्टाइल, डिफ्रेंट टेम्परामेंट में प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि अगर नेहरू की जगह इंदिरा होतीं तो सिक्किम की तरह शायद इस मौके को भी हाथ से नहीं जाने देती। किताब में मुखर्जी ने लाल बहादुर शास्त्री का भी जिक्र करते हुए लिखा है कि उनका तरीका नेहरू से बिल्कुल अलग था। यहां तक की एक पार्टी से होते हुए भी अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के सोचने और काम करने का तरीका एक दूसरे से अलग था।
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सुब्रमण्यम स्वामी ने इससे पहले किया था दावा
ये कोई पहला मौका नहीं है जब नेपाल के भारत में विलय को लेकर इस तरह के दावे किए गए हैं और इस विलय को न होने देने के लिए नेहरू को जिम्मेदार माना गया हो। बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने 4 जून 2020 के अपने ट्वीट में ये दावा किया था कि जवाहर लाल नेहरू ने 1950 में नेपाल को भारत के साथ मिलाने का ऑफर ठुकरा दिया था। लेकिन उस वक्त स्वामी ने जिक्र किया था कि नेपाल के राणा राजघराने ने नेहरू को विलय का प्रस्ताव दिया था। लेकिन इतिहास के जानकारों के अनुसार नेपाल के राणा राजघराने ने 1846 से 1946 तक राज किया था। इस वक्त नेपाल को दूसरों से अलग-थलग रखने की ही नीति थी। लेकिन दूसरे राजा त्रिभुवन जो 1911 से नेपाल के राजा थे। राणा शासकों को हराने के बाद 1951 में वो फिर से राजा बने।
Today another folly of Nehru emerges from historical records: When the Ranas ruled Nepal, and Nepal royalty was in India. the Rana rulers like other rajas in India offered to merge in India in 1950. Nehru declined!! A genetic flaw runs in one family--so banish family rule
— Subramanian Swamy (@Swamy39) June 4, 2020
अब आते हैं पूरे मामले को और नजदीक से समझने की कोशिश करते हैं। जिसके लिए आपको नेपाल और उसकी आजादी पर नेहरू की सोच के बारे में बताते हैं।
अंतरराष्ट्रीय गठबंधनों की राजनीति चीन के खिलाफ थी और गोवा के विलय से भारत के खिलाफ विरोध था। जिसकी वजह से पंडित नेहरू नेपाल को भारत में मिलाने को संभव नहीं माना। लेकिन नजदीकी रिश्तों की बात 150 की संधि में जरूर थी, जो राणा के समय में हुई थी।
1950 की भारत-नेपाल संधि
भारत के प्रतिनिधि चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह और उस वक्त के नेपाली प्रधानमंत्री मोहन शमशेर जंग बहादुर रामा के बीच शांति और मैत्री संधि पर दस्तखत किए। 1950 की संधि भारत और नेपाल के बीच राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को परिभाषित करती है। कई नेपालियों को लगता था कि भारत ने राणा के खिलाफ गुस्से का फायदा उठाया। लेकिन चीन में कम्युनिस्टों की जीत और उनके तिब्बत के खिलाफ बढ़ते कदमों ने हिमालयी क्षेत्र के समीकरण को बदल दिया। उस वक्त के बाद से अबतक नेपाल में कई राजनीतिक बदलाव हो चुके हैं और भारत के प्रति नेपाल की विदेश नीति भी बदली है।
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राणा-त्रिभुवन के बीच का समीकरण
ईसा से कोई 1000 साल पहले की बात है। छोटी-छोटी रियासतों औऱ परिसंघों में बंटा हुआ था नेपाल। मध्यकाल के रजवाड़ों की सदियों से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता को समाप्त करने का श्रेय गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह को जाता है। राजा पृथ्वी नारायण शाह ने 1765 में नेपाल की एकता की मुहिम शुरू की। कहा जाता है कि उसी दौर में आधुनिक नेपाल का जन्म होता है। नेपाल के राजपरिवार में अस्थिरता का दौर जारी हुआ। 1846 में राजा सुरेंद्र बिक्रम शाह के शासन काल में जंग बहादुर राणा शक्तिशाली सैन्य कमांडर के रूप में उभरे। रानी ने षड़यंत्र रचा, लड़ाई हुई औऱ रानी के सैकड़ों समर्थक मारे गए। परिमामस्वरूप राजपरिवार जंग बहादुर राणा की शरण में चला गया और प्रधानमंत्री पद वंशानुगत हो गया। 1940 के दशक में नेपाल में लोकतंत्र समर्थित आंदोलन की शुरुआत हुई। त्रिभुवन को नेपाली कांग्रेस के साथ ही उन असंतुष्ट राणाओँ का भी समर्थन प्राप्त हुआ जो लोकतंत्र के पक्षधर थे। 1950 में नेपाली कांग्रेस ने राणाओं के तख्तापलट के लिए इंकलाब की घोषणा की। इन सब के बीच चीन ने तिब्बत पर जबरन कब्जा कर लिया। जिसके बाद भारत को चिंता हुआ कि कहीं चीन के हाथों में नेपाल न पहुंच जाए। भारत की सहायता से नेपाली कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी और राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह नए शासक घोषित किए गए। न्यूज वेबसाइट क्विंट की रिपोर्ट के अनुसार त्रिभुवन भारत के साथ करीबी रिश्ते रखने के पक्षधर थे। वहीं नेहरू चाहते थे कि नेपाल आजाद रहे क्योंकि विलय जैसे कदम से फिर अंग्रेजों की दखलअंदाजी से समस्या खड़ी हो सकती थी।
वहीं एक अन्य मीडिया रिपोर्ट में भारत में पूर्व राजदूत लोकराल बरल के हवाले से कहा गया कि सरदार पटेल ने नेहरू के सामने नेपाल को भारत में मिला लेने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन नेहरू ने इस सुधाव को खारिज कर दिया था। हालांकि इस दावे के कोई सबूत पेश किए जाने का कोई जिक्र नहीं है।
अगर भारत में होता नेपाल तो...
सामरिक दृष्टि के लिहाजे से देखा जाए तो नेपाल भारत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। चीन अक्सर भारत पर दवाब बनाने के लिए नेपाल पर अपनी पकड़ मजबूत करता रहता है। लेकिन नेपाल अगर भारत का हिस्सा होता तो ऐसी कभी नौबत ही नहीं आती। इसके अलावा चीन के खिलाफ हमें एक मजबूत सामरिक स्थान भी मिल जाता।
बहरहाल, दोनों ही देशों के बीच रोटी-बेटी का संबंध माना जाए या धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत समान हो। अब इसके विलय वाले प्रस्ताव को लेकर चर्चाएं जितनी भी हो लेकिन शाश्वत सत्य यही है कि नेपाल एक अलग देश है।- अभिनय आकाश
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