हरनौत से हाजीपुर तक... पासवान और नीतीश के बीच की पुरानी अदावत के अनसुने किस्से
लोजपा में फूट और चाचा बनाम भतीजे के पीछे की स्किप्टिंग जेडीयू और नीतीश द्वारा ही लिखे जाने की बात समय-समय पर कही जाती रही है। रामविलास पासवान और नीतीश कुमार की पुरानी अदावत के भी कई किस्से हैं जब बीते चार दशक की राजनीति के दौरान दोनों के बीच शह और मात का सियासी खेल चलता रहा।
वर्ष 2004, साल का पहला दिन यानी 1 जनवरी, सोनिया गांधी अपने 10 जनपथ निवास से निकलती हैं। एसपीजी सुरक्षा के साथ गोलचक्कर को पैदल पार करती हैं और 12 जनपथ के गेट पर पहुंचती हैं। 12 जनपथ यानी रामविलास पासवान का आवास। सोनिया की यह छोटी सी पदयात्रा समसामयिक राजनीतिक इतिहास में एक बड़ी घटना बनकर उभरी। सोनिया गांधी को इससे पहले दिल्ली की सड़कों पर टहलते शायद ही किसी ने देखा होगा। सोनिया ने रामविलास पासवान से कोई अपॉइंटमेंट नहीं लिया था। केवल उनके दफ्तर ने यह चेक किया था कि पासवान घर पर हैं या नहीं। वह बिना ऐलान किए, बिना किसी अपॉइंटमेंट और बिना किसी सूचना के वहां पहुंचीं। पासवान के लिए भी यह बेहद आश्चर्यजनक घटना थी, लेकिन वह सोनिया की गर्मजोशी, पहल और राजनीतिक सूझबूझ के कायल हो गए थे। पासवान की पार्टी उस वक्त अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर अनिश्चितता में थी और ऐसे में सोनिया का गठजोड़ बनाने के लिए उनके पास आना पासवान के लिए बड़ी बात थी। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। साल 2014, आम चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर दिल्ली का 12 जनपथ सुर्खियों में था। इस बार भाजपा के वरिष्ठ नेता रामविलास पासवान से मुलाकात करने आए थे। इस बैठक के बाद देर रात लोकसभा चुनाव में लोजपा और बीजेपी के गठबंधन की घोषणा हुई। इतिहास की ये दो घटनाएं बताने के लिए काफी हैं कि भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान की यही अहमियत रही है। बिहार की सियासत में आज जबरदस्त हलचल है। आज रामविलास पासवान की पहली जयंती है और चिराग पासवान आज पटना पहुंचे और आशीर्वाद यात्रा शुरू की। चिराग की आशीर्वाद यात्रा हाजीपुर से शुरू हुई। आशीर्वाद यात्रा के द्वारा न केवल चिराग का शक्ति प्रदर्शन है बल्कि आज सुबह ही चिराग ने लोगों से बात करते हुए कहा था कि बिहार की जनता का साथ ही है जो मेरे पास है। उस साथ को और मजबूत करने के तौर पर भी इस यात्रा देखा जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने रामविलास पासवान की जयंती पर उन्हें याद करते हुए कहा कि आज मेरे दिवंगत दोस्त रामविलास पासवान की जयंती है मुझे उनकी बहुत कमी महसूस होती है। वो देश के सबसे अनुभवी सांसदों और प्रशासकों में से एक थे। जनसेवा और दलितों को सशक्त बनाने में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। गौरतलब है कि चाचा पशुपति से अनबन के बाद चिराग पहली बार बिहार आए और अपने पिता की कर्म भूमि और चाचा पशुपति के संसदीय क्षेत्र हाजीपुर से अपनी आशीर्वाद यात्रा शुरू किया। इस दौरान चारो तरफ 90 के दशक से चर्चित हुआ नारा "धरती गूंजे आसमान, रामविलास पासवान" की गूंज चारो तरफ सुनाई पड़ रही थी। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि चिराग 2024 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इस सीट पर अपनी दावेदारी का भी ऐलान करेंगे। आशीवार्द यात्रा के बहाने ही यह भी साफ हो जाएगा कि चिराग पासवान अगला लोकसभा चुनाव हाजीपुर सीट से ही लड़ने वाले हैं। लोजपा में फूट और चाचा बनाम भतीजे के पीछे की स्किप्टिंग जेडीयू और नीतीश द्वारा ही लिखे जाने की बात समय-समय पर कही जाती रही है। जिस तरह से विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान मुखर हुए उसका खामियाजा जेडीयू को भुगतना पड़ा। एलजेपी में जो मौजूदा स्थिति है वो तो आनी ही थी। सिर्फ समय की देर थी। जब वो समय आया तो चिराग पासवान के चाचा ने पांच सांसदों के साथ हुंकार भरी और नतीजा सामने है। लेकिन लोजपा औऱ नीतीश की जंग को समझने के लिए आपको वर्तमान की उंगली पकड़कर इतिहास की गलियों में लिए चलते हैं और सुनाते हैं रामविलास पासवान और नीतीश कुमार की पुरानी अदावत के किस्से जब बीते चार दशक की राजनीति के दौरान दोनों के बीच शह और मात का सियासी खेल चलता रहा।
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और इस तरह नीतीश लोकसभा चुनाव लड़ने से रह गए वंचित
ये 1977 की बत है लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होने वाला था। लेकिन इंदिरा गांधी ने अचानक 18 जनवरी को चुनाव की घोषणा करके देशवासियों और विपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया था। आपातकाल हटने के बाद भारत में छठे लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर थी। जयप्रकाश नारायण द्वारा अपने हिस्से से तीन लोगों को लोकसभा का टिकट दिया। जिनमें पहले थे लालू प्रसाद यादव, दूसरे महामाया प्रसाद सिन्हा और तीसरे रामविलास पासवान। हालांकि बिहार की सियासत के एक और चर्चित चेहरे नीतीश कुमार के बारे में भी कहा जाता है कि उन्हें भी जयप्रकाश नारायण की तरफ से टिकट मिलना था। लेकिव वह जेल में थे जिस वजह से उन्हें इस बात का संदेश नहीं मिल सका और टिकट से वंचित रह गए। कहा तो ये भी जाता है कि नीतीश कुमार इस सब का जिम्मेदार रामविलास पासवान को मानते थे। और यहीं से दोनों के बीच पनपी अदावत वक्त के साथ हमेशा बढ़ती ही रही।
बेलछी नरसंहार और कुर्मी बनाम पासवान की जंग
छठे लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता से इंदिरा गांधी की बिदाई हो चुकी थी। कांग्रेस विरोधी लहर पर सवार युवा नेता रामविलास पासवान ने कांग्रेस के किले में सेंध लगाई और 4,69,007 वोट प्राप्त कर अपनी धाक जमाई थी और उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल हुआ वहीं लालू छपरा सीट (वर्तमान सारण सीट) से उतरे और 85.97% वोट हासिल किए। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। बिहार विधानसभा चुनाव में जाने को तैयार था। लेकिन 27 मई की वो स्याह तारीख जब हथियारों से लैस एक समूह ने 500 की आबादी वाले बेलछी गांव पर धावा बोल दिया। घंटों गोलियां चलीं और 11 लोगों को जिंदा जला दिया गया था। एक 14 साल के लड़के ने आग से निकलने की कोशिश की तो उसे उठाकर फिर से आग में झोंक दिया गया। उसकी चीखें आग की लपटों में दफन हो गई। मरने वालों में 8 पासवान जाति के थे और हत्याकांड को अंजाम देने वाले कुर्मी थे। घटना जंगल में आग की तरह फैली। था जिसके बाद इंदिरा गांधी ने बेलछी जाने का फैसला किया और दिल्ली से हवाई जहाज के जरिए सीधे पटना और वहां से कार से बिहार शरीफ पहुंच गईं। तब तक शाम ढल चुकी थी और मौसम बेहद खराब था। नौबत इंदिरा गांधी के वहीं फंस कर रह जाने की आ गई लेकिन वे रात में ही बेलछी पहुचने की जिद पर डटी रहीं। स्थानीय कांग्रेसियों ने बहुत समझाया कि आगे रास्ता एकदम कच्चा और पानी से लबालब है लेकिन वे पैदल ही चल पड़ीं।
मजबूरन साथी नेताओं को उन्हें जीप में ले जाना पड़ा मगर जीप कीचड़ में फंस गई और फिर उन्हें ट्रैक्टर में बैठाया गया और जब ट्रैक्टर भी फंस गया तो इंदिरा गांधी ने वो किया जिसे देखकर साथी कांग्रेसी भी हैरान रह गए, इंदिरा गांधी ने अपनी साड़ी थामकर पैदल ही चल दीं तब किसी ने हाथी मंगाकर इंदिरा गांधी और उनकी महिला साथी को हाथी की पीठ पर सवार किया। बिना हौदे के हाथी की पीठ पर उस उबड़-खाबड़ रास्ते में इंदिरा गांधी ने बियाबान अंधेरी रात में साढ़े तीन घंटे लंबा सफर तय किया। इस घटना में बिहार में दलित बनाम कुर्मी की लड़ाई को और ज्यादा बड़ा कर दिया और फिर जिसे आगे चलकर नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने अपने-अपने हिसाब से एक दूसरे के खिलाफ इसका सियासी इस्तेमाल किया।
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हरनौत से नीतीश की लगातार दो हार
बिहार की हरनौत विधानसभा सीट नालंदा जिले में आती है। ये नालंदा लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। हरनौत विधानसभा सीट का गठन 1977 में हुआ। लोकसभा चुनाव लड़ने से वंचित नीतीश कुमार पहला विधानसभा चुनाव 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर हरनौत से लड़ने का मौका मिला। लेकिन जनता पार्टी की लहर में भी नीतीश कुमार को निर्दलीय भोला प्रसाद से शिकस्त मिली। जिसके पीछे की बड़ी वजह रही मई के महीने में हुआ बेलछी का नरसंहार। हत्याकांड को अंजाम देने के आरोप कुर्मी जाति के लोगों पर लगे थे और नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं। जिसका नतीजा चुनाव में नीतीश कुमार को हार के साथ चुकाना पड़ा। 1980 के चुनाव में भी दूसरी बार नीतीश को हार ही नसीब हुई।
लालू को सीएम बनाने में लगे नीतीश और राम सुंदर दास के साथ खड़े पासवान
मार्च 1990 के बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल के जीत जाने की स्थिति में लालू अपने मुख्यमंत्री बनने की संभावना को लेकर निश्चित नहीं थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह लालू यादव का समर्थन नहीं कर रहे थे। वे एक दलित नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के इच्छुक थे। बिहार की सियासत में अलग ही खेल चल रहा था। लेकिन लालू तो जैसे ठान ही चुके थे कि आलाकमान का फैसला या फरमानों जो हो सीएम की कुर्सी पर तो विडाउट एनी इफ और बट उन्हें ही बैठना है। उस दौर में लालू यादव के सबसे बड़े रणनीतिकार कोई और नहीं बल्कि नीतीश कुमार हुआ करते थे। जिन्होंने लालू के पक्ष में लॉबिंग की जिम्मेदारी संभाली। वहीं लालू ने बलिया के दबंग नेता चंद्रशेखर से लगभग एक छोटे बच्चे की तरह शिकायत भी की और मदद की गुहार लगाई। उन्होंने कहा कि यह राजा हमारी संभावनाओं को खत्म करने पर तुला हुआ है। ‘‘कृपया हमारी मदद कीजिए, वरना वीपी सिंह अपने आदमी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देंगे। चंद्रशेखर, बिना शक, वीपी सिंह से इतनी नफरत करते थे कि उनकी किसी भी इच्छा का विरोध कर सकते थे। उन्होंने लालू यादव को आश्वासन दिया कि वे इस मामले में कुछ करेंगे। जिसके बाद बिहार की सियासत में एक नया मोड़ आया। जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहां अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए -रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन वे वहां सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। झा को अपने मिशन में कामयाबी भी मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए, हरिजनों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। नतीजा लालू मामूली अंतर से जीत गए। इस चुनाव के वक्त रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस अलौली से विधायक थे। उन्होंने विधायक दल के नेता के तौर पर राम सुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट किया था।
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नीतीश के सीएम बनने के बाद भी कम नहीं हुई अदावत
2005 में जब नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की बात शुरू हुई थी तो उस वक्त रामविलास पासवान ने कहा था कि अब 1977 की जनता पार्टी की लहर में चुनाव हारने वाला भी बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा।
पासवान के दलित वोट बैंक में लगाई सेंध
बिहार में लालू यादव के 1990 से क़ायम 15 साल पुराने राजनीतिक क़िले को नीतीश कुमार ने 2005 में ध्वस्त कर दिया और फिर उन्होंने बिहार की राजनीति में लालू और रामविलास पासवान की राजनीति का तोड़ निकालने के लिए महादलित योजना शुरू की। इसमें कहा गया कि दलितों में भी जो सबसे ज़्यादा दलित हैं उन्हें महादलित माना जाएगा। शुरू में जो 18 जातियाँ शामिल की गईं, उनमें रामविलास पासवान की जाति दुसाध शामिल नहीं थी। मगर 2018 में उन्हें भी इसमें शामिल कर लिया गया।
बहरहाल, रामविलास की विरासत को आगे बढ़ाने और उनकी बनाई पार्टी और राजनीति पर अपना कब्जा करने की जंग में चिराग ने सड़क का रास्ता चुना है। चिराग़ पासवान अपने पिता से काफ़ी अलग हैं, रामविलास पासवान काफ़ी लोकप्रिय व्यवहार कुशल और लोगों का काम करवाने वाले नेता थे, जबकि चिराग़ की छवि महानगर के नेता जैसी है। ऐसे में उनके सामने आगे की राह काफी कठिन रहने वाली है।-अभिनय आकाश
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