अल्लाह, आर्मी और अमेरिका... जिन्ना के मुल्क को चलाने वाले तीन 'A', कैसे 75 सालों से प्रभावित करते रहे पाकिस्तान की राजनीति

Allah, Army and America
prabhasakshi
अभिनय आकाश । Aug 10 2023 3:34PM

आज बात पाकिस्तान की राजनीति के तीन ए यानी अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की करेंगे, साथ ही आपको उस रिपोर्ट के बारे में भी विस्तार से बताएंगे जिसमें इमरान को सत्ताबदर करने की कहानी बताई गई है।

अक्सर कहा जाता है कि अल्लाह, आर्मी और अमेरिका पाकिस्तान की राजनीति के तीन ए जो कि मुल्क को चलाते हैं। निर्णयों से लेकर दल-बदल तक, सब कुछ इनमें से किसी एक सिद्धांत द्वारा निर्देशित होता है। जैसे-जैसे पाकिस्तान में मौजूदा राजनीतिक संकट सामने आ रहा है, इन तीन ए में से दो  सेना और अमेरिका की लगभग स्पष्ट उपस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जहां सेना सक्रिय रूप से पाकिस्तान में होने वाली राजनीतिक घटनाओं पर नजर रखती रही है। हालिया दिनों में 9 मई को हुए पीटीआई समर्थकों द्वारा हिंसक विरोध के बाद आर्मी कोक्ट में ट्रायल भी चलाया गया। वहीं अमेरिका को कथित तौर पर उनकी सरकार को गिराने की कोशिश करने के लिए अपदस्थ प्रधानमंत्री इमरान खान और उनके शीर्ष सहयोगियों के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। इसकी पुष्टि अब विदेशी मीडिया रिपोर्ट के जरिए एक बार फिर से हुई है। इंटरसेप्ट, अमेरिका का गैर लाभकारी समाचार संगठन है। उसने कुछ केबल्स के हवाले से कहा है कि अमेरिका के दबाव में इमरान को उनकी सत्ता से हटाया गया था। संकट में धर्म की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं रही। लेकिन फिर भी खान पर अक्सर उनके विरोधियों द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में अपने अंतिम दिनों में समर्थन हासिल करने के लिए अल्लाह के नाम का उपयोग करने का आरोप लगाया जाता रहा। लेकिन इन तीन 'ए' की बदौलत पाकिस्तान में कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। ऐसे में आज बात पाकिस्तान की राजनीति के तीन ए यानी अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की करेंगे, साथ ही आपको उस रिपोर्ट के बारे में भी विस्तार से बताएंगे जिसमें इमरान को सत्ताबदर करने की कहानी बताई गई है। 

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30 प्रधानमंत्री में से कोई नहीं पूरा कर पाया कार्यकाल 

 प्रधानमंत्री साल  कार्यकाल
 लियाकत अली खान 1947 50 महीना 2 दिन
 खवाजा नज़ीमुद्दीन 1951 24 महीना
 महामद अली बोगरा 1953  27 महीना
 चौधरी मोहम्मद अली 1955 13 महीना
 हुसेन शहीद सुहरावर्दी 1956 13 महीना
 इब्राहीम इस्मैल चुन्द्रिगर 1957 2 महीना
 फीरोज़ खान नून 1957 9 महीना
 अयूब खान 1958 4 दिन 
 नूरुल अमीन 1971 13 दिन
 ज़ुल्फिकार अली भुट्टो 1973 46 महीना
 खान जुनेजो 1985 38 महीना
 बेनज़ीर भुट्टो 1988 20 महीना
 गुलाम मुस्तफा जतोई 1990 3 महीना
 नवाज़ शरीफ 1990 29 महीना
  बलख शेर मज़ारी 1993 1 महीना
  नवाज़ शरीफ़ 1993 1 महीना
मोइन कुरेशी
 1993 3 महीना
 बेनज़ीर भुट्टो
 1993 36 महीना
 मालिक मेराज  1996 3 महीना
नवाज शरीफ 1997 31 महीना
 ज़फरुल्लाह खान जमाली 2002 19 महीना
 चौधरी शुजात हुसेन 2004 1 महीना
  शौकत अज़ीज़ 2004 38 महीना
  मुहम्मद मियां सूम्रो 2007 4 महीना
 यूसुफ रजा गिलानी
 2008 50 महीना 25 दिन
राजा परवेज़ अशरफ़
 2012 9 महीना
 मीर हज़ार ख़ान खोसो
 2013 2 महीना
 नवाज़ शरीफ़ 2013 49 महीना
 शाहिद खाकन अब्बासी
 2017 9 महीना
 नासिर-उल-मुल्क 2018 1 महीना
इमरान ख़ान
 2018 33 महीना
 शहबाज शरीफ 2022 अभी तक

अल्लाह

एक ऐसे देश के लिए जिसकी स्थापना इस्लाम पर हुई थी, राजनीति में धर्म का हमेशा ही महत्व रहा है। इसे पिछले कुछ घटनाक्रमों से समझने की कोशिश करते हैं। एक बरस पहले नेशनल असेंबली में राजनीतिक हार से पहले इमरान सरकार को हिंसक धार्मिक भीड़ से एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा था, जिसने पूरी राज्य मशीनरी को घुटनों पर ला दिया था। नवंबर में पाकिस्तान सरकार को कट्टरपंथी इस्लामी नेता और तहरीक-ए-लबैक पाकिस्तान (टीएलपी) के प्रमुख साद रिज़वी को उनके अनुयायियों द्वारा हफ्तों के घातक विरोध प्रदर्शन को समाप्त करने के लिए एक समझौते के तहत रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। यह इस बात की एक झलक थी कि कैसे इस्लामवादी कट्टरपंथी पाकिस्तान में अपनी जगह बनाने के लिए अपने धार्मिक प्रभाव का इस्तेमाल कर रहे हैं। वास्तव में पाकिस्तान में मुख्यधारा के राजनीतिक दल अब तेजी से आतंकवादी समूहों के साथ गठबंधन बना रहे हैं और अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए धर्म का उपयोग कर रहे हैं। यहां तक ​​कि विपक्षी दलों के जिस इंद्रधनुषी गठबंधन ने इमरान खान को सत्ता से उखाड़ फेंका, उसमें कुछ कट्टरपंथी धार्मिक समूह भी शामिल थे। इमरान खुद अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में अपने लगभग सभी भाषणों में अल्लाह का जिक्र करते रहे थे। संकटग्रस्त नेता अक्सर अपनी साख बचाने के लिए धर्म का सहारा लेते रहे, भले ही वे अपने सांसदों को खोते रहे। हालाँकि धर्म अंततः इमरान के सत्ता से हटने का कारण नहीं बना, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह पड़ोसी देश में सरकारों को गिराने की शक्ति रखता है। जैसा कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उल-हक ने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस्लाम को पाकिस्तान से बाहर ले जाओ और इसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाओ, यह ढह जाएगा।

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आर्मी

पाकिस्तान भले ही खुद को एक लोकतांत्रिक संसदीय गणतंत्र कहता हो, लेकिन हर कोई जानता है कि सत्ता के गलियारों में सेना ही हुकूमत करती है। आप बिना कुछ लिए प्रतिष्ठान या डीप स्टेट जैसे उपनाम नहीं अर्जित करते हैं। सेना ने अपने अस्तित्व के अधिकांश समय में देश पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से- मार्शल लॉ, आपातकाल या प्रॉक्सी के माध्यम से शासन किया है। आधिकारिक तौर पर, सेना ने आजादी के बाद से 36 वर्षों तक पाकिस्तान पर शासन किया है जो इसके अस्तित्व का लगभग 50% है। पाकिस्तान पर सीधे शासन न करते हुए भी शीर्ष सैन्य अधिकारी पर्दे के पीछे से काम करने के लिए कुख्यात हैं। यहां तक ​​कि पाकिस्तानी मीडिया भी अक्सर इमरान सरकार को "हाइब्रिड रिजाइम" कहा करती थी। इमरान का मामला लीजिए। एक समय सेना के पसंदीदा रहे पीटीआई नेता को विपक्षी हमले के दौरान व्यावहारिक रूप से त्याग दिया गया था क्योंकि उन्होंने प्रतिष्ठान का समर्थन खो दिया था। सेना के साथ खान की परेशानियां कुछ महीने पहले शुरू हुईं जब आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति पर वह सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से अलग हो गए।

सैन्य खर्च करने वाले शीर्ष 10 देशों से पाकिस्तान की स्थिति

 देश खर्च (डॉलर) जीडीपी का प्रतिशत
 अमेरिका 778232 3.7 %
 चीन 252304 1.7 %
 भारत 72887 2.9 %
 रूस 61713 4.3%
 ब्रिटेन 59238 2.7%
 सऊदी अरब 57519 8.4%
जर्मनी  52765 1.4%
 फ्रांस 52747 2.1%
 जापान 49149 1.0%
 साउथ कोरिया 45735 2.8%

 *पाकिस्तान इस सूची में 23वें स्थान पर है।

हालांकि राजनीतिक संकट के दौरान इमरान ने सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा से कई बार मुलाकात की, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि सेना ने संकटग्रस्त नेता से अपना समर्थन वापस ले लिया है। और सेना के इस बात पर जोर देने के बावजूद कि इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है, बारीकियां बिल्कुल स्पष्ट थीं। इस प्रकार, जब राजनीति की बात आती है तो पाकिस्तान की सेना मेज पर सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और अन्य लोकतंत्रों की सेनाओं के विपरीत, पाकिस्तानी सेना सड़कें बनाती है, कारखाने चलाती है, बैंकों की मालिक है और यहां तक ​​कि टीवी चैनलों का प्रबंधन भी करती है। पाकिस्तान पहली बार 1958 में सैन्य शासन के अधीन आया जब जनरल अयूब खान ने इस्कंदर मिर्जा से राष्ट्रपति पद छीन लिया। आधिकारिक तौर पर मार्शल लॉ 44 महीने तक चला, लेकिन अयूब खान ने 1969 में ही पद छोड़ दिया और जनरल याह्या खान को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। अयूब खान की तरह, याह्या खान मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक थे। 1971 के युद्ध में भारत से शर्मनाक हार के बाद, याह्या खान को ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का नाम लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिन्होंने देश के पहले आम चुनाव में जीत हासिल की थी। दूसरा सैन्य तख्तापलट 1977 में हुआ जब जनरल जिया उल हक ने संसद भंग कर दी और भुट्टो को नजरबंद कर दिया। उन्होंने 1985 में मुहम्मद खान जुनेजो को देश का नया प्रधान मंत्री चुनने के बाद इस्तीफा दे दिया। हक 1988 में एक विमान दुर्घटना में अपनी मृत्यु तक राष्ट्रपति पद पर बने रहे। तीसरा और आखिरी सैन्य तख्तापलट 1999 में हुआ जब जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को अपदस्थ कर दिया, जो कारगिल से पीछे हटने के लिए आलोचना का सामना कर रहे थे। आसिफ अली जरदारी के नए राष्ट्रपति बनने के साथ ही 2008 में मुशर्रफ ने इस्तीफा दे दिया। 

अमेरिका

ऑल वेदर सहयोगी से लेकर अच्छे मौसम के सहयोगी तक, पाकिस्तान-संयुक्त राज्य अमेरिका के रिश्ते में हाल के वर्षों में काफी बदलाव आया है। संबंधों पर ताजा हमला निवर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा स्वयं किया गया, जिन्होंने खुले तौर पर एक अमेरिकी राजनयिक का नाम लिया और उन पर उनकी सरकार को गिराने के लिए विदेशी साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया। अमेरिका पर इमरान के विचार राष्ट्रपति जो बाइडेन के सत्ता संभालने के बाद से सख्त हो गए हैं। अपने बयान के जरिए उन्होंने वाशिंगटन को सेना के खिलाफ भी खड़ा कर दिया है, जो अमेरिकी सहायता पर बहुत अधिक निर्भर रहती है। 20वीं सदी में अमेरिका और पाकिस्तान के बीच मजबूत रणनीतिक संबंध हुआ करते थे, जब वाशिंगटन इस्लामाबाद को सोवियत संघ के खिलाफ एक इस्लामी गढ़ के रूप में देखता था। इसने 1980 और 90 के दशक में अफगानिस्तान में युद्ध के दौरान पाकिस्तान का समर्थन किया और 2010 तक आर्थिक और सैन्य दोनों तरह से सहायता देना जारी रखा।

पाकिस्तान को अमेरिका से मिलने वाली मदद

साल 2010-2015 के दौरान कैरी लुगार बिल के तहत पाकिस्तान को साढ़े सात अरब डॉलर दिए गए। इस तरह 2002 से 2015 के दौरान समग्र तौर पर पाकिस्तान को आर्थिक मदद के मद में 15.539 अरब डॉलर मिले और सैन्य मदद के मद में 11.40 अरब डॉलर मिले। मरीकी थिंकटैंक सेंट्रल फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट और अमरीकी कांग्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अमरीका ने 2002 से 2015 तक कैरी लुगार बिल के तहत मिलने वाली मदद समेत समग्र तौर पर पाकिस्तान को 39 अरब 93 करोड़ डॉलर दिए।

वास्तव में पाकिस्तान ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी सहायता प्राप्त करने वाले शीर्ष देशों में से एक रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता में भारी गिरावट आई है। खासकर 2019 के बाद से, जब तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आतंक को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाने के लिए इस्लामिक देश पर हमला बोला था। 2020 में जब बाइडेन ने पदभार संभाला, तो संबंध और भी अधिक ख़राब हो गए। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद इमरान को पारंपरिक फोन कॉल तक नहीं मिला। जब से इस्लामाबाद ने बीजिंग के साथ अपना संबंध बढ़ाया है तब से पाकिस्तान के साथ अमेरिका के संबंधों में भी गिरावट आ रही है। चीन, जिसने अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत पाकिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश किया है, जब भारत का मुकाबला करने की बात आती है तो वह देश को एक सदाबहार सहयोगी और एक प्रमुख समर्थन के रूप में गिनता है। पाकिस्तान के सहयोगी के रूप में चीन के महत्व को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने रेखांकित किया, जिन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में बीजिंग के साथ इस्लामाबाद की मित्रता का जिक्र किया। इसके अलावा, अफगानिस्तान से बाहर निकलने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान में अपना निहित स्वार्थ भी खो दिया

इमरान खान सरकार को लेकर क्या बड़ा खुलासा हुआ

इंटरसेप्ट ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया कि क्लासीफाइड पाकिस्तान के सरकारी दस्तावेजों के अनुसार अमेरिका के विदेश विभाग ने सात मार्च 2022 की मीटिंग में इमरान को पीएम पद से हटाने के लिए पाकिस्तानी सरकार से कहा था। अमेरिका यूक्रेन पर रूसी आक्रमण पर उनके तटस्थ रुख से खुश नहीं था। पाकिस्तानी सरकार के लीक हुए दस्तावेज में अमेरिकी अधिकारियों के साथ मीटिंग के एक महीने बाद, संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। वोटिंग के बाद इमरान खान की सरकार गिर गई और उन्हें सत्ता से हटना पड़ा। 

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