इतिहास कब भूलता है (व्यंग्य)

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लोगों को डराना, धमकाना, कत्लेआम करना, अबलाओं को हवस का शिकार बनाना इनकी पाठशाला का पाठ्यक्रम है। ये अपने पाठ्यक्रम के इतने पक्के होते हैं कि कोई मजाल जो इन्हें शत-प्रतिशत अंक पाने से रोक पाये।

आप लोगों को महाभारत की घटनाएँ तो याद ही होंगी। याद नहीं भी है तो कोई बात नहीं। यह तो ऐसी घटनाएँ हैं जो आए दिन घर-दुनिया में कहीं-न-कहीं घटती रहती हैं। ऐसी ही एक घटना है– द्रौपदी चीरहरण। वैसे तो द्रौपदी का चीरहरण एक बार हुआ था। किंतु हमारी भूल ने न जाने कितनी बार द्रौपदी को चीरविहीन होने पर मजबूर कर दिया। मानो द्रौपदी का चीर, चीर न हुआ उतार फेंकने का तमाशा हो गया। 

ऐसी ही एक घटना आजकल सुर्खियों में है। 

वैसे जो सूर्ख होते हैं वे सुर्खियों में ही रहते हैं। बात है तालिबान की। ये तालिबानी न तो ताली से सुनते हैं न ही बानी से। इनका तो एक ही फार्मूला है– गोलाबारी। ये प्राणी अत्यंत आतंकप्रिय हैं। लोगों को डराना, धमकाना, कत्लेआम करना, अबलाओं को हवस का शिकार बनाना इनकी पाठशाला का पाठ्यक्रम है। ये अपने पाठ्यक्रम के इतने पक्के होते हैं कि कोई मजाल जो इन्हें शत-प्रतिशत अंक पाने से रोक पाये। विश्वास न हो तो मलाला को देख लीजिए। मलाला उन्हीं आतंकी पाठशाला का शिकार है। अंतर केवल इतना है कि मलाला को नोबल मिला और तालिबान को अफगानिस्तान।

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यदि आप सोच रहे हैं कि द्रौपदी चीरहरण का तालिबान से क्या रिश्ता है, तो इसका समाधान वर्तमान परिदृश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ, मानवाधिकार संघों और आए दिन इंसानियत की दुहाई देने वाले कुकुरमुत्ता एंड कंपनी धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म जैसे धुरंधरों का पात्र निभा रहे हों तो तालिबानी घटना नहीं घटेगी तो क्या भरत मिलाप होगा! अफगानिस्तान किसी द्रौपदी सी निस्सहाय है। तालिबानी कौरव हैं। शकुनी के पात्र में पाकिस्तान और चीन आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। अमेरिका, जिन्हें आए दिन भगवान बनने का दौरा पड़ता है, वे पांडवों की भांति हाथ पर हाथ धरे मौन बैठा है। तालिबानी कौरव निस्सहाय अफगानिस्तानी द्रौपदी का चीरहरण करते जा रहे हैं और दुनिया चुपचाप तमाशा देख रही है। साहब तमाशे में मजा जरूर आता है। लेकिन तमाशे इतने में भी मत देखिए कि एक दिन खुद का तमाशा बन जाए।

कहते हैं इंसान जब मरता है तब मरता है। सबसे पहले वह अपने कर्मों से मरता है फिर कहीं जाकर शरीर से। चाहे देश अफगानिस्तान हो या फिर फलांस्तान। देश तो देश है। वहाँ रहने वाले भी हमारे जैसे इंसान हैं। अफगानिस्तान में फैले मुट्ठी भर तालिबानी आज नहीं तो कल मारे जायेंगे, जरूरत है तो सबसे पहले अपने भीतर के तालिबान को मारने की।

अफगानिस्तान की घटना से पता चलता है कि हम सभी के भीतर कहीं न कहीं थोड़ा ही सही तालिबान जरूर बसा है। भीतर का तालिबान जिस दिन मिटेगा उस दिन बाहरी तालिबान अपने आप नेस्तनाबूद हो जाएगा।     

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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