काहे छपवाई किताब (व्यंग्य)
किताब लेते हुए एक भी लेखक ने एक बार भी नहीं कहा यह लीजिए किताब का मूल्य। जिन्हें डाक से भेजी उन्होंने शुक्रिया तो छोडो, पहुंचने की खबर न दी। क्या करते इतनी किताबों का, देनी पड़ी। पता था दो पेज पढेंगे।
हमारा कोई लेख छपता तो शुभचिंतकों के आग्रह पर उसे फेसबुक पर चिपका देते। डिसलाइक करते हुए कुछ बंदों को लाइक करना पड़ता। कुछ सिर्फ बधाई देते, मज़ाल है कुछ लिखा हो। कई आम लोग अच्छी टिप्पणी करते। एक शाम कई शुभचिंतक बोले, अब किताब छपवालो हम भी पार्टी कर लें। भाषा अकादमी के पूर्व सचिव ने हमारी इच्छाओं में और ऑक्सीजन भरी, छपवाओ, लोकार्पण करवाओ, खबर छपवाओ, नाम कमाओ। हमारे दिमाग में किताब उगने लगी, लोकार्पण, बधाईयाँ, फोटोज़, अखबार व न्यूज़ चैनल अच्छे लगने लगे।
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हम उन लेखकों में से तो थे नहीं कि प्रकाशक उछल जाए और तपाक से किताब छाप दे। किताब का प्रस्तावना लिखने वाले, होने वाले लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि ने प्रकाशक से बात की तो हम धन्य हो गए। किताब की प्रूफ रीडिंग पर ज्यादा मेहनत हमने ही की बस उन्होंने तो एडवांस लिया और छापकर भिजवा दी। किताब बढ़िया बनी, अकादमी की खरीद योजना का विज्ञापन छपा तो किताबें भिजवा दी। सरकार के सहयोग से किताब का कुछ खर्चा तो निकले। सोचा, ज़िंदगी की पहली किताब है, विमोचन समारोह भी करवा ही लें।
पत्रकार मित्र ने सरकारी सर्किट हाउस में मुख्य अतिथि के ठहरने का इंतजाम किया लेकिन ऐन मौके पर व्यवस्था के कुचक्र में फंसने के कारण उन्हें होटल में रुकवाना पड़ा। विमोचन में पूरे परिवार की फोटो खिंची तो खुश पत्नी बोली अच्छा किया किसी नेता को नहीं बुलाया नहीं तो उनकी ही लल्लो चप्पो होती रहती। अखबारों में सबकी फोटो छपी लेकिन किताब का नाम गलत छाप दिया। कुछ दिन बाद अकादमी द्वारा स्वीकृत किताबों की लिस्ट आई, तीन बार पढी अपना नाम नदारद था। जिनका नाम कभी छपा नहीं उनकी किताबें खरीदी जा रही थी । पूर्व सचिव बोले इस बार निज़ाम बदलने के कारण अपनी भी रह गई।
शुभ चिन्तक बोले, यार पहले जुगाड़ क्यूं नहीं किया। अब दिमाग में कई नाम आने लगे थे जो बाद में ज़रूर कहेंगे हमें क्यूं नहीं कहा। सब भूलकर हमने सोचा अखबारों में समीक्षा तो छप जाए। एक अखबार वाले बोले समीक्षा लिखवाकर भेज दीजिए लेकिन ध्यान रखें सिर्फ प्रशंसा न हो। कुछ को याद दिलाया तो समीक्षा छपी। सरकारी पत्रिका में भेजी, एक साल तक छपी नहीं, कितनी बार फोन किया। कई स्थानीय मित्र लेखकों ने नकली खुश होकर भी प्रशंसा नहीं की उलटे उनका भेजा फ्राई हो गया। पिछले चालीस साल की जान पहचान लेकिन चार शब्द नहीं थूके। कुछ शिकवा कर मांगते रहे हमें भी चाहिए किताब, आपने हमें नहीं दी।
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किताब लेते हुए एक भी लेखक ने एक बार भी नहीं कहा यह लीजिए किताब का मूल्य। जिन्हें डाक से भेजी उन्होंने शुक्रिया तो छोडो, पहुंचने की खबर न दी। क्या करते इतनी किताबों का, देनी पड़ी। पता था दो पेज पढेंगे। सब का पता चल गया कि कौन कितना लेखक हैं और कितना संजीदा पाठक। कुछ किताबें अभी भी बची पड़ी हैं सोचते हैं किस किसको दें। एक सज्जन मिले बोले इसका साल वाला पेज बदलवा दो, करवा देंगे।
अगली किताब छपवाने बारे पत्नी से परामर्श करता हूं तो कहती है खबरदार ऐसा सोचा। ऐसा सुनकर खुद से पूछता रहता हूं, तुमने काहे छपवाई किताब।
- संतोष उत्सुक
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