स्पीड ब्रेकर (व्यंग्य)
साहब का एक ड्राइवर था। ड्राइवर इसलिए कि वह मेहनती था। आलसी होता तो बड़ा साहब न बन जाता। मेहनत करने के शार्टकर्ट नहीं होते। सब स्ट्रेटफॉर्वर्ड होता है। जबकि आलस के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं। दिमाग दौड़ाना पड़ता है।
साहब बहुत पढ़े-लिखे थे। दीवार पर टंगी डिग्रियाँ इसी बात का साक्ष्य दे रही थीं। कागज पर एमए अंग्रेजी में गोल्ड मेडलिस्ट और हकीकत में ईटिंग-स्लिपिंग को पार नहीं कर पाए। जागते हैं तो ईटिंग और सोते हैं तो स्लिपिंग। अपने जरूरत के कामों के लिए कम, गो, गिव जैसे जरूरी शब्द सीख लिए हैं। पसंदीदा शब्दावली में इडियट, रास्कल, नॉनसेंस और बास्रटर्ड की जपमाला बना रखी है। सबसे ज्यादा इसी को फेरते रहते हैं। इस जपमाला के चलते साहब की ‘तगड़ी’ अंग्रेजी के सामने किसी के आने की हिम्मत नहीं होती थी।
साहब का एक ड्राइवर था। ड्राइवर इसलिए कि वह मेहनती था। आलसी होता तो बड़ा साहब न बन जाता। मेहनत करने के शार्टकर्ट नहीं होते। सब स्ट्रेटफॉर्वर्ड होता है। जबकि आलस के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं। दिमाग दौड़ाना पड़ता है। इस प्रक्रिया में इंसान ठेकेदार से लेकर वकील, इंजीनियर, डॉक्टर और स्कॉलर बन जाता है। एक झूठ को छिपाने के लिए हजार सच्चाइयों का गला घोंटना पड़ता है। यह काम बड़ा ही सच्चा धूर्त ही कर सकता है। सो साहब का ड्राइवर पढ़ा-लिखा तो था लेकिन खरीदी गई डिग्री वाले साहब का गुलाम था। आजकल असली डिग्रियाँ नकली डिग्रियों की सुरक्षा में चौक-चौबंद रहती हैं।
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एक दिन साहब किसी दावत से लौट रहे थे। फोकट की दावत थी सो दबाकर खा लिया। रास्ते भर ऊँघते रहे। ड्राइवर बड़ी सावधानी से चला रहा था। साहब की नींद न टूटे इसके लिए मक्खन से भी स्मूथ ड्राइविंग का नजारा पेश कर रहा था। लेकिन हर स्मूथनेस का एक अंत होता है। ड्राइवर ने अचानक से गाड़ी की गति धीमी की। साहब नींद में बडबड़ाने लगे, इडियट तुमने गाड़ी क्यों स्लो कर दी। पता नहीं यह हमारे बाप की सड़क है। किसमें इतनी मजाल जो हमारा रास्ता रोक दे। इतना सब कहते हुए वे ऊटपटांग भाषा में चालीस सेकंड वाली अपनी अंग्रेजी जपमाला बार-बार रिपीट कर रहे थे।
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यह देख ड्राइवर ने कहा, साहब रास्ते में स्पीड ब्रेकर है। बिना धीमे किए आगे नहीं बढ़ सकते। यह सुन साहब ने कहा, कौनसा स्पीड ब्रेकर?, कैसा स्पीड ब्रेकर। उसे पता नहीं हम कौन हैं? उसकी इतनी मजाल कि हमारा रास्ता रोक दे। बास्टर्ड पर इतना हॉर्न बजाओ कि दुम दबाकर भाग जाए। नहीं तो कह दो कि पुलिस थाने में ऐसा केस बुक करवायेंगे कि वह तो क्य उसकी सात पुश्ते जेल में पड़े-पड़े सड़कर मर जायेंगे। इतना सुनना था कि ड्राइवर भीतर ही भीतर हँसने लगा। लेकिन तुंरत अपनी ड्रावरी की नौकरी और पेट का ख्याल आते ही कागजी डिग्री के सामने बेवकूफ बनते हुए जोर-जोर से हॉर्न बजाने लगा।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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