कल्पना बड़े काम की चीज़ है (व्यंग्य)
महामारी की स्थिति में भी कर्मठ राजनेता राजनीति बिल्कुल नहीं कर रहे। धार्मिक नेता, मानवता, सदभाव, समानता व सहृदयता की ज़बान बोल रहे हैं। नैतिकता झूम झूम कर सभ्य, सांस्कृतिक नृत्य कर रही है। कलाकार केवल धन अर्जन के लिए नहीं बेहतर सामाजिक बदलावों के लिए जुट गए हैं।
किसी भी समस्या को हल करने का सबसे सुरक्षित और सफल हथियार कल्पना है। कल्पना कोई भी काम कहीं भी बैठे निबटा सकती है। संक्रमण काल में अनुशासन के कारण घर बैठे बैठे कल्पना के पौधे इतने उग गए कि फेसबुक, व्ह्त्सेप के खेत अभी तक लहलहा रहे हैं। कल्पना कुछ भी करवा सकती है, जैसे हम यह मान सकते हैं कि आम आदमी को सड़क, खेत, झोपडी, आश्रम, शिविर या खोली में कभी कभी खाने को मिलता रहे तो वह हमेशा जीवित रह सकता है। सर्दी के मौसम में छोटे से कमरे में आठ दस बंदे, पानी रहित शौचालय, साबुन रहित हाथ धोना आम आदमी को ज्यादा दुखी नहीं करता।
इसे भी पढ़ें: आविष्कारों की गिरफ्त्त में ज़िंदगी (व्यंग्य)
यह आर्थिक कल्पना की वास्तविक उड़ान है कि कुछ हज़ार रूपए उनके लिए काफी होते हैं क्यूंकि उनके सादा, सरल जीवन को सामान्य रूप से जीने के लिए ज्यादा चीज़ों की ज़रूरत नहीं। यह लघुकल्पना भी सकारात्मक है कि स्थिति ठीक होते ही कुछ न कुछ रोज़गार मिल ही जाएगा, विकट समय में किए गए वायदे पूरे किए जाएंगे। ‘कल्पना कीजिए और सुखी रहिए’ बेहद सफल सामाजिक योजना है। भूख से सहमी हुई ख़बरें देखकर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि सभी को भरपेट खाना मिलता रहे तो कितनी अच्छी दुनिया हो। क्या हर्ज़ है अगर हम यह अनुमान लगा लें कि हमारे चैनल निष्पक्ष होकर सामाजिक मुद्दों की उचित आवाज़ बन गए हैं। महामारी की स्थिति में भी कर्मठ राजनेता राजनीति बिल्कुल नहीं कर रहे। धार्मिक नेता, मानवता, सदभाव, समानता व सहृदयता की ज़बान बोल रहे हैं। नैतिकता झूम झूम कर सभ्य, सांस्कृतिक नृत्य कर रही है। कलाकार केवल धन अर्जन के लिए नहीं बेहतर सामाजिक बदलावों के लिए जुट गए हैं। यह वास्तविकता नहीं बलिक कल्पना की ही शक्ति है जिसके आधार पर हम देशभक्त, राष्ट्रवादी, नैतिकतावादी, समाजवादी, लोकतांत्रिक, कर्मठ और ईमानदार हो सकते हैं।
इसे भी पढ़ें: बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होए (व्यंग्य)
यह भी जाना बुझा तथ्य है कि कल्पना दर्द की कहानी को आसानी से आंकड़ों में तब्दील कर सकती है। यह कार्य हमारे विशेषज्ञ बेहतर तरीके से निरंतर करते हैं। यह कल्पना का ठोस धरातल ही है जिस पर प्रेमी अपनी प्रेमिका, भावी पति अपनी भावी पत्नी के लिए सदियों से बार बार कितने तरह के चांद उतार लाया है। असली फूल भी तो उन्हें कल्पना लोक में ही ले जाते हैं। क्या पत्थर में ईश्वर की मान्यता की रचना इंसान की कल्पना का नायाब उदाहरण नहीं। वास्तविकता तो हर एक कठिनाई को मुसीबत में बदल देती है, दुःख के कचरे में गिरे हुए भी हम सुवासित सुख की कल्पना करते हैं। बातों बातों में साबित हो गया न कि कल्पना बड़े काम की चीज़ है, ये बेदाग़ बे दाम की चीज़ है।
- संतोष उत्सुक
अन्य न्यूज़