वर्चुअल पुस्तक मेले पर चर्चा (व्यंग्य)
सरकारी कला साहित्य संस्कृति अकादमियों ने अपना काम पहले से ही वर्चुअली चला रखा है। कार्यक्रम में नकली तालियां बजवा देते तो बहुत से लोगों में लेखक हो जाने की तमन्नाएं जवां हो जाती।
लेखकों, किताबों व प्रकाशकों का एक और मेला वास्तव में वर्चुअली संपन्न हो गया। जो पाठक, लेखक और प्रकाशक अपनी वर्चुअल हैसियत के आधार शामिल हो सकते थे, हुए। सरकारी कला साहित्य संस्कृति अकादमियों ने अपना काम पहले से ही वर्चुअली चला रखा है। कार्यक्रम में नकली तालियां बजवा देते तो बहुत से लोगों में लेखक हो जाने की तमन्नाएं जवां हो जाती। फेसबुक, व्हाट्सेप, अखबार और अन्य मंचों पर चिर परिचित और अतिअपरिचित व्यक्तियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाएं वर्चुअल देखकर वर्चुअली मज़ा आ रहा था जिसे इस मेले से राष्ट्रीय विस्तार मिला। पहले लग रहा था जैसे देश के प्रतिष्ठित कर्णधारों द्वारा किए जा रहे भीड़ मेलों से प्रेरित हो इस बार मेला शारीरिक दूरी को सामाजिक दूरी कहते और समझते हुए सशरीर आयोजित किया जाएगा।
इसे भी पढ़ें: हम अपनी रेटिंग खुद करते हैं (व्यंग्य)
पिछले कई साल से मैं भी वहां जाने की तलब में रहा जान पहचान के वरिष्ठ लेखकों ने कई बार कहा भी, लेकिन दिल्ली वर्चुअली दूर ही रही। कई साल से देख रहा हूँ किसी की भी पहली पुस्तक ही वहां मशहूर हाथों से रिलीज़ हो रही है। अनुभवी लेखक की तीसवीं पुस्तक तो वहीँ होनी होती थी। कहीं पढ़ा था, विचारोतेजक, प्रखर लेखन से समाज में परिवर्तन आता है तो दर्जनों के हिसाब से पुस्तकें लिखने वालों ने काफी ज्यादा बदलाव ला दिया होगा। ऐसे में क्रान्ति की चाहत रखने वाले आम व्यक्ति के मन में भी लेखन का कीड़ा घुस जाता होगा लेकिन इस बार वह एक अच्छा, महंगा सा पैन खरीदने का निश्चय नहीं करेगा। उसे वर्चुअली लगेगा कि किताबें छपती ज्यादा हैं और पढी जाती कम।
कई लोग चुटकी ले रहे होंगे कि फलां लेखक का अमुक यशस्वी लेखक के साथ या प्रसिद्ध प्रकाशक के स्टाल पर फोटो खिंचवाना इस बार रह गया। सिर्फ लेखक होने, बनने या दिखने के लिए भी नहीं जा सके, दूसरों के लड्डू और बर्फी, फेस्बुकिया या व्ह्त्सेपिया मित्र लेखक भी मिलने से रह गए। ताज़ा सुन्दर किताबें, स्थापित चेहरे और व्यवसायिक लेखकों के साथ फोटो व सेल्फियां कम खिंचने पर उदासी रही होगी। लगता है वहां सभी एक दूसरे से असली प्यार से, असली गले मिलकर असली खुश होते हैं। लेखक छोटे शहर की साहित्यिक दुनिया की तरह, बड़े खेमों में बंटे नहीं होते लेकिन इस बार सभी को उन्हीं पुराने खेमों में घुसना होगा या अपने घर के तंबू में रहना होगा। उनमें ईर्ष्या, एक दूसरे को खारिज करने जैसी कुभावनाएं भी उगने से बच गई।
इसे भी पढ़ें: माननीयों के अच्छे दाग (व्यंग्य)
यह तो हमारी साहित्यिक परम्परा है कि किताब या लेखक से मिलकर हम सोचते है कि काश हम भी लेखक होते, इस बार ऐसे सैंकड़ों ख़्वाब टूट गए। कुछ लेखक वहां पहुंचकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक, विमोचक या मुख्यमंत्री या फिर राज्यपाल के प्रसिद्ध हाथों से पुस्तक का विमोचित पैकट खुलवाने की तुलना न कर सके। वैसे किसी भी मुख्यमंत्री के हाथों विमोचित होने से किताब ज्यादा खुश हो सकती है क्योंकि यह आजकल भी एक्चुली संभव है। पुस्तक लिखना, छपवाना और विमोचन करवाना आसान है लेकिन पाठक, मित्रों या सरकार को बेचना मुश्किल है। कई बार किताबें भी एक दूसरे को देखकर नाराज़ हो जाती थी इस बार वो भी नहीं हुआ। कुल मिलाकर अच्छा ही रहा, मेला वर्चुअली संपन्न हो गया, कई तरह के गलत कीटाणु एक से दूसरे के दिमाग में प्रवेश करने से रह गए।
- संतोष उत्सुक
अन्य न्यूज़