हम अपनी रेटिंग खुद करते हैं (व्यंग्य)
अब तो डर व्याप्त कर ही काम चलता है। कई बार लगता है डर खत्म हो गया तो जीने का मज़ा खत्म हो जाएगा। राजनीतिक शहर में बढ़ती मंहगाई को सभी पसंद करते हैं तभी तो खातों में दान डालकर वोटें सलामत रखी जाती है।
नहीं चाहिए किसी की रेटिंग, हम अपनी रेटिंग खुद किया करते हैं। मैं तो बरसों से मानता हूं कि अपना कामकाज जैसा भी हो किसी की भी रेटिंग स्वीकार नहीं करनी चाहिए चाहे। चाहे रेटिंग एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय हो उसका नाम कितना भी आकर्षक हो। इन संस्थाओं द्वारा रेटिंग अपनी सुविधा के लिए दी जाती है और हमारे लिए दुविधा हो जाती है। इतने यशस्वी, अनुभवी, तेज तर्रार लोगों से सही अनुमान नहीं लगता और हर दो तीन महीने में अनुमान को छेड़ते रहते हैं। उसे घटाते ज्यादा हैं और बढाते कम हैं। अपना वक़्त बर्बाद करते रहते हैं हमारा मूड बिगाड़ते हैं। अंदाजा कुछ लगाते हैं परिणाम कुछ और निकालते हैं। विश्वगुरुओं के सन्दर्भ में यह अच्छी बात नहीं है।
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अब तो डर व्याप्त कर ही काम चलता है। कई बार लगता है डर खत्म हो गया तो जीने का मज़ा खत्म हो जाएगा। राजनीतिक शहर में बढ़ती मंहगाई को सभी पसंद करते हैं तभी तो खातों में दान डालकर वोटें सलामत रखी जाती है। वैसे भी हम अब, कब किस रेटिंग से कहां परेशान होते हैं। रेटिंग भुलाकर यह सोच पाली जाती है कि हमारी सारी वोटें सलामत रहें, जातीय समीकरण बिगड़ें नहीं। उदाहरणतया पारदर्शिता के अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने गुरुओं को ईमानदारी के पैमाने पर सौ में से इकतालिस प्रतिशत अंक दिए हैं। हम क्यूं खाएं उनका बेस्वाद आकलन। उन्हें पता होना चाहिए कि हमें पसंद नहीं आएगा, स्वीकारेंगे नहीं तो ऐसा आकलन किया ही क्यूं।
ज्ञानी हैं हम, इस बारे हम दो क्या तीन राय भी नहीं रखते। इस बारे दिलचस्प परिचर्चा हो सकती है कि नैतिक मूल्य सिखाए जा सकते हैं या नहीं। हमारे यहां नैतिकता एक पवित्र संस्था के रूप में स्थापित है इसलिए नैतिकता क्या किसी भी किस्म के मूल्य सिखाए जा सकते हैं। पेट से तो कोई भी सीख कर नहीं आता। हम तो कूड़ा कचरा प्रबंधन सीखने के लिए दर्जन लोगों की टीम हज़ारों किलोमीटर दूर भेजते हैं फिर भी बदतमीज़ कूड़ा कचरा काबू में नहीं आता।
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वर्तमान युग में भ्रष्टाचार, बेईमानी, दुष्टता व धूर्तता में फलेफूले परिवेश में थोड़ी परेशानी तो है लेकिन उससे कहीं कोई फर्क हम पड़ने नहीं देते तो फिर दूसरा कोई हमारी रेटिंग क्यूं करे। करना चाहे तो आंख मींच कर सौ में सौ नंबर दे। यहां यह सवाल प्रवेश करता है क्या त्रेतायुग और द्वापरयुग में रावण और कंस नहीं थे। क्या वे अपने बारे में किसी भी तरह की रेटिंग की परवाह करते थे। हर युग का कठोर सत्य यही है इसलिए अपनी रेटिंग खुद करिए और सुखी रहिए।
- संतोष उत्सुक
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