कागज़ है कागज़ क्या... (व्यंग्य)

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ऐसे ही किसी दिन मेरी गाड़ी सिग्नल पर खड़ी थी। चौराहा इतना भीड़-भाड़ वाला था कि 180 सेकेंड तक वहाँ रुकना था। गाड़ियों का हुजूम देश की बढ़ती जनसंख्या का समर्थन कर रहा था। पदचालक गाड़ियों और गाड़ियाँ पदचालकों की जगह खा रहे थे।

सिग्नल पर सिर्फ बत्तियों के रंग नहीं बदलते, वहाँ आती-जाती गाड़ियों और उनके चालकों के भी रंग बदलते हैं। पक्की और चमचमाती सड़कों की बांहों में लोटने वाली फेरारी, ऑडी, बीएमडब्ल्यू कारों के साथ-साथ भीख मांगने वाले हाथ विकास के बदन पर किसी फोड़े-फुंसी से कम नहीं लगते। यहाँ पर देश का विकास महंगी कारों की ओर निहारता है तो पिछड़ापन भिखारियों के कटोरे में चिल्लर बनकर खनकता है। सच कहें तो अमावस और पूर्णिमा एक साथ देखने का अहसास केवल हमारे देश में ही हो सकता है। 

ऐसे ही किसी दिन मेरी गाड़ी सिग्नल पर खड़ी थी। चौराहा इतना भीड़-भाड़ वाला था कि 180 सेकेंड तक वहाँ रुकना था। गाड़ियों का हुजूम देश की बढ़ती जनसंख्या का समर्थन कर रहा था। पदचालक गाड़ियों और गाड़ियाँ पदचालकों की जगह खा रहे थे। जिब्रा क्रॉसिंग तो जिब्राओं के लिए होता है। जब देश में जिब्रा है ही नहीं तो इनके बनाने का क्या मतलब? यह तो सरासर लोगों को बेवकूफ बनाना नहीं तो और क्या है? क्रॉसिंग बनाने का इतना ही शौक है तो कोई गधा क्रॉसिंग बनाते।

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मैं अब तक समझता था कि व्यापार केवल दुकानों, शॉपिंग मॉलों, रेहड़ पट्टी पर ही हो सकता है। किंतु सिग्नल वाले चौराहे को देखने पर समझ आया कि यह मेरी गलतफहमी है। यहाँ जितना व्यापार होता है उतना ही शायद कहीं ओर होता होगा। कलम, अगरबत्ती, खिलौने, खाने-पीने की चीज़ें, सीजनल वस्तुएँ जैसे पतंग, पिचकारी, झंडे, दिवाली की लाइटें सभी कुछ तो यहाँ बिकता है। ऐसे ही बेचने वालों में एक छह-सात का लड़का मेरे पास आया और कलमें बेचने लगा। मैंने उससे पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? स्कूल क्यों नहीं जाते? मेरे सवालों की झड़ी के बीच में अचानक से कहीं उसकी माँ आकर कूद पड़ी। बोली– 'खरीदना है तो खरीदो सहब! बेकार की बातें मत करो!' मैं कुछ कहने ही वाला था कि वह मुझे भांप गयी। वह दूसरी पर छोर पर गाड़ी साफ करने वाले युवक की ओर संकेत करते हुए कहने लगी– ‘पढ़-लिखकर आज के जमाने में लोग कितना कमाते हैं, उससे जाकर पूछो। डिग्री पढ़ा है। लेकिन क्या फायदा? डिग्री से इज्जत बढ़ती होगी, भूख नहीं मिटती। भूख लगने पर खाना खाते हैं, डिग्री के टुकड़े तो नहीं। जो काम आए उसे डिग्री कहते हैं नकारे को कागज़ का टुकड़ा नहीं तो और क्या कहेंगे। इसलिए अपना रास्ता नापो बेकार का ज्ञान मत झाड़ो साहब!‘ इतना कहते हुए वह अपने लड़के को लेकर इतनी तेजी से मुड़ी कि लड़के के हाथ से दो कलमें गिर गयी। उधर दूसरी ओर बत्ती बदल गयी।   

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, 

प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार

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