हे भगवान! नहीं ...हे इंसान ! (व्यंग्य)
समझदार इंसान ही दूसरे कम समझदार इंसान को बाज़ार के बहाने लूट रहा है। विदेश में तो महंगा ही मिलेगा देश में भी तो सिनेमा में तीन सौ मिलीलीटर पीने का पानी, सौ रूपए में बेचा जाता है। यहां भी मुंह से, हे इंसान मुंह से निकलता है।
आजकल मैं सपरिवार विदेश में हूं। पिछले कल सपरिवार अंग्रेज़ी फिल्म देखने गए। फिल्म के दौरान कुछ न कुछ खाना पड़ता है इसलिए बेटे ने टिकट लेने के बाद, लम्बी लाइन में खड़े होकर पॉप कॉर्न का बड़ा पैक लिया और कोल्ड ड्रिंक भी। हॉलीवुड की फिल्मों में अचरज भरी स्टोरी लाइन होती है। वीएफएक्स प्रभाव इतने सधे हुए, स्पष्ट और जबर्दस्त होते हैं कि दर्शक सीट से हिल नहीं सकता या कहिए सीट पर बैठा बैठा पूरा हिल जाता है। इस साइंस फिक्शन फिल्म में एक भी सीन कहानी से बाहर का नहीं था जैसा कि भारतीय फिल्मों में कभी हो नहीं सकता। माफ़ करें, बात कहीं और जा रही है।
घर वापिस आकर मेरी पत्नी ने उत्सुकतावश बेटे से पूछा, यहां पॉप कॉर्न का बड़ा पैक कितने का आता है तो जवाब मिला अट्ठारह डॉलर का। हे भगवान् ! नौ सौ रूपए का, पत्नी ने कहा। बेटे ने कहा मम्मी, हे भगवान नहीं, हे इंसान कहो। उसके ऐसा कहने पर मुझे अहसास हुआ कि विदेश में पॉप कॉर्न का बड़ा पैक नौ सौ रूपए का है इसमें भगवान् का वाकई कोई रोल नहीं है। यह सब इंसान का किया धरा है तभी बेटे ने कहा कि हे इंसान कहो। खाने की चीज़ों को इतना स्वाद बना दिया जाता है कि जीभ मानती ही नहीं। ख़ास चीज़ें ख़ास जगहों पर मनमाने दामों में बेची जाती हैं, इंसान खरीदता है और जीभ को संतुष्ट करता है।
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समझदार इंसान ही दूसरे कम समझदार इंसान को बाज़ार के बहाने लूट रहा है। विदेश में तो महंगा ही मिलेगा देश में भी तो सिनेमा में तीन सौ मिलीलीटर पीने का पानी, सौ रूपए में बेचा जाता है। यहां भी मुंह से, हे इंसान मुंह से निकलता है। दिमाग कहता है प्लास्टिक की बोतल भी पी ली जाए लेकिन यह हो नहीं सकता। हम उसे दुखी दिल से वहीँ छोड़ आते हैं या कुछ ज़रूरतमंद लोग घर भी ले आते होंगे, पानी भर भर कर पीने के लिए या काटकर पौधा लगाने के लिए ताकि पर्यावरण बचाने में सहयोग दे सकें। इस मामले में हम वाह! इंसान बोल सकते हैं।
इस तरह हम चीजों के दोबारा प्रयोग का नियम भी अपनाते हैं जोकि समझदार इंसानों द्वारा उजाड़ी जा रही धरती के पर्यावरण को इंसानों द्वारा ही बचाने की योजना के अंतर्गत आता है। पानी अब एक ख़ास पेय होता जा रहा है लेकिन इंसान ने अभी तक इसे ख़ास नहीं माना। सिनेमा में इतना महंगा पानी खरीद कर आर्थिक सम्पन्नता दिखती है लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसके उचित प्रयोग बारे विपन्नता ही बहती है।
कहने का अर्थ है कि हम माहौल के मद्देनज़र कई मामलों में, हे भगवान की जगह, हे इंसान कह सकते हैं।
- संतोष उत्सुक
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