सेब नहीं आम (व्यंग्य)
यार आजकल तो प्याज़ फिर मंहगा हो गया है। टमाटर और प्याज़ चाहे जितने महंगे हो जाएं उन पर कोई क्वालिटी की चिट लगाकर नहीं बेचता। लेकिन इधर कई सालों से फलों पर छोटा सा स्टिकर चिपका दिया जाता है जिस पर बेस्ट, सुपर या प्रीमियम क्वालिटी लिखा होता है।
पिछले दिनों हमारे घर कुछ मेहमान आए। बातों बातों में बात हुई फिर से महंगे हुए टमाटरों की जो हमारे छोटे शहर में अस्सी रूपए किलो बिक रहे हैं। बड़े शहर या वातानुकूलित मॉल में शायद सौ रूपए किलो भी हो सकते हैं। मेरे मित्र बोले, टमाटर काफी महंगे होकर, फिर सस्ते बिककर, अब फिर से महंगे हो गए हैं लेकिन आजकल अच्छे सेब नहीं मिल रहे। दूसरे मित्र बोले, यार आजकल तो प्याज़ फिर मंहगा हो गया है। टमाटर और प्याज़ चाहे जितने महंगे हो जाएं उन पर कोई क्वालिटी की चिट लगाकर नहीं बेचता। लेकिन इधर कई सालों से फलों पर छोटा सा स्टिकर चिपका दिया जाता है जिस पर बेस्ट, सुपर या प्रीमियम क्वालिटी लिखा होता है। कुछ चिप्पियों पर फल का फोटो भी होता है, वह बात अलग है कि बढ़िया क्वालिटी हो या नहीं। फलों और सब्जियों को बेच डालने के लिए उनके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है किसी से छिपा नहीं।
कुछ भी खरीद लेने वाले, कुछ भी खा जाने वाले, बेचारे भारतीय ग्राहकों को फलों पर ‘क्वालिटी’ लिखा देखकर तुरंत ‘मिसगाइड’ होना अच्छा लगता है। विक्रेता को ज्यादा अच्छा लगता है। हैरानी तब हुई जब सेब पर स्टिकर लगा हुआ पाया ‘क्वालिटी अल्फांजो मैंगों’ का जिसमें किसी भी आम का छोटा सा फोटो भी रहा। मजेदार यह कि आम आजकल उपलब्ध नहीं है। बात तो कुछ नहीं है। चिप्पी लगाने वाले की गलती से यह हो गया लेकिन यह सच आम की खुशबू की तरह फ़ैल गया कि हम होते कुछ हैं मगर दिखाते कुछ और हैं। होते सामान्य किस्म के सेब जैसे, मगर दिखाते हैं लखनऊ के ऐतिहासिक बागीचे के स्वादिष्ट ख़ास आम जैसे।
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खैर, हमारे यहां तो गधे को घोड़ा बनाने की सांस्कृतिक परम्परा भी है। चुनाव में एक दल को बहुमत न मिले तो बहुतज्यादागधे को सुपर घोड़ा बनाने की लोकतान्त्रिक परम्परा भी। इस प्रक्रिया में कोई चिप्पी भी नहीं चिपकाई जाती। आचार संहिता के मौसम में कितने ही खच्चर, भेड़ और गधे, जैसी कैसी खाल पहनकर घोड़ा दिखने की फिराक में रहते हैं। चुनाव परिणाम, वक़्त और किस्मत साथ दे तो वे अच्छी नस्ल के घोड़े साबित होते हैं। घोड़े बनने के बाद वे हिनहिनाते भी कमाल हैं। लाखों में नहीं करोड़ों में बिकते हैं। कई बार तो दर्जन करोड़ों में खरीद लिए जाते हैं। यह वैसा ही है जैसे एक शरीफ बंदा मजबूरन बदमाश दिखने की कोशिश करे लेकिन दिख न सके। बुरा इत्तफाक रहा इस बार गधे, घोड़े न बन पाए।
क्या इस व्यंग्य का शीर्षक, ‘गधे नहीं घोड़े’ भी हो सकता है?
- संतोष उत्सुक
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