बयानों में संस्कारों का सुप्रवेश (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

सवाल यह है कि क्या संस्कार सीमित प्रकार व रंग रूप के होते हैं। अपने कर्तव्य का कर्मठता से पालन करने वालों द्वारा, दुर्भावना का प्रचार करने मात्र से, संस्कारों का कार्यान्वन बदल दिया जाता है। फटे, कटे, घिसे कपडे तो पारम्परिक मजबूरियों का फैशनेबल पुनर्जन्म है।

चुनावों के देश में जब भी नया चुनाव नज़दीक आता है बयानों की दुनिया में संस्कार प्रवेश करना शुरू हो जाते हैं। इतिहास के अनुसार, महा जन थोडा बहुत कटा फटा हुआ बयान भी दें तो बढ़िया असर पड़ना शुरू हो जाता है। ख़बरों के रंग ढंग बदलने लगते हैं। उनमें आम इंसान से चिपके मुद्दों की पूछ बढ़ जाती है। ऐसी चीज़ों और भावनाओं की बिक्री और बाज़ार भाव बढ़ जाते हैं, जो बरसों से अबिकाऊ रही। फटेहाली भी हाथों हाथ बिकनी शुरू हो जाती है। प्रतिस्पर्धा बढाने के लिए, दूसरे बयान वातावरण में आकर कहते हैं, इस तरह का ब्यान उस तरह की ज़बान से शोभा नहीं देता। 

हमारे यहां तो ब्यान ही ज़बान को विशेषज्ञ बना देता है। ज़बान है तो हिलना भी ज़रूरी है। संस्कारों की बात करें तो संस्कार अनेक बार कपड़ों में भी प्रवेश कर जाते हैं। सुवासित कपड़ों की धुलाई में प्रयोग किए जाने वाले, वाशिंग पाउडर का इस्तेमाल शुरू कर लिया जाए, तो बंदा राजनीति में सफल होने का ख़्वाब देख सकता है। ऐसे प्रभावशाली वस्त्र पहनने वाले को अविलम्ब संस्कारी मान लेना चाहिए क्यूंकि वो संस्कारी हो सकता है। अलबत्ता यह ज़रूरी नहीं कि सस्ते, फटे, बिना प्रेस किए कपड़े पहनने वाला संस्कारी भी हो।

इसे भी पढ़ें: नीली चिड़िया का टिटिम्मा... (व्यंग्य)

सवाल यह है कि क्या संस्कार सीमित प्रकार व रंग रूप के होते हैं। अपने कर्तव्य का कर्मठता से पालन करने वालों द्वारा, दुर्भावना का प्रचार करने मात्र से, संस्कारों का कार्यान्वन बदल दिया जाता है। फटे, कटे, घिसे कपडे तो पारम्परिक मजबूरियों का फैशनेबल पुनर्जन्म है। नए दृष्टिकोण से सोचें तो इसे पुराने फटे हुए संस्कारों को नया कलेवर देना भी तो माना जा सकता है। गर्व महसूस करने के लिए ज़रूरी तो नहीं कि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक या आर्थिक उपलब्धि हासिल की जाए। सार्वजनिक स्तर पर शारीरिक व मानसिक रूप से नंगे होते हुए, लेकिन महंगे, डिज़ाइनर, खुशबूदार कपडे और जूते पहनकर सब से यह कहलवाने की रिवायत जारी है कि वाह! क्या अंदाज़ है। आज जो संस्कार ज़िंदगी के बाज़ार में उपलब्ध हैं वे फटी हुई जीन्स से बेहतर नहीं दिखते, उनमें से जिस्म ही नहीं आदमीयत भी नंगी होती नज़र आती है। 

सबके सामने कपड़ों समेत नंगे होकर, बात मनवाने के ज़माने में यह भी कहते रहना ज़रूरी हो गया है कि गौर से देखिए, मैंने खुद को कितने अच्छे से कवर कर रखा है। हमारे यहां तो फटे हुए बयान भी अनेक संस्कारों के मुंह सिलने का ज़िम्मेदारी भरा काम करते हैं।

- संतोष उत्सुक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़