सरकारी दफ्तर की घड़ी (व्यंग्य)

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दरअसल, इस घड़ी के नीचे एक फाइलों का ढेर था। एक बुजुर्ग किसान रामलाल के सामने बैठा अपनी फरियाद लिए आया था। उसके खेत की जमीन किसी बाबू की कलम से ‘नदी’ घोषित हो चुकी थी, जबकि पानी की एक बूँद भी वहाँ दशकों से नहीं गिरी थी।

सरकारी दफ्तर की दीवार पर टंगी घड़ी आज फिर नाराज थी। उसे शिकायत थी कि वो समय दिखाती है, पर यहाँ किसी को परवाह ही नहीं। जब भी कोई बाबू उसकी ओर देखता, तो सिर्फ यह तय करने के लिए कि चाय का समय हुआ या नहीं। सरकारी घड़ियाँ भी कर्मचारियों की तरह होती हैं—बाजार से नई आती हैं, कुछ साल तक चलती हैं, फिर किसी कोने में उपेक्षित हो जाती हैं। इस घड़ी की उम्र हो चली थी, पर लाचारी देखिए कि वह अभी भी ईमानदारी से समय दिखाने की मूर्खता कर रही थी।

"समय के साथ चलो," बाबू रामलाल ने घड़ी को देखते हुए अपने कनिष्ठ को ज्ञान दिया।

"पर घड़ी खुद तो अटकी पड़ी है!" कनिष्ठ ने व्यंग्य फेंका।

"अरे, यह सरकारी दफ्तर है! यहाँ घड़ियाँ नहीं, लोग अटकते हैं!" रामलाल हँस पड़ा।

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दरअसल, इस घड़ी के नीचे एक फाइलों का ढेर था। एक बुजुर्ग किसान रामलाल के सामने बैठा अपनी फरियाद लिए आया था। उसके खेत की जमीन किसी बाबू की कलम से ‘नदी’ घोषित हो चुकी थी, जबकि पानी की एक बूँद भी वहाँ दशकों से नहीं गिरी थी। उसने काँपते हाथों से अर्ज़ी बढ़ाई, पर बाबू रामलाल ने उसे एक और फार्म भरने को कहा। "ये लो, इसे भरकर लाओ, फिर देखेंगे।" किसान ने पूछा, "ये फार्म मिलेगा कहाँ?" रामलाल ने गंभीरता से जवाब दिया, "जहाँ घड़ी सही समय बताए!"

दफ्तर में सभी को आदत थी कि अगर कोई काम टालना हो, तो या तो "फाइल साहब" के हवाले कर दो या फिर "कागज़ी प्रक्रिया" का हवाला दो। सरकारी तंत्र में ‘कल’ नाम की एक नदी बहती थी, जिसमें जनता की सारी अर्ज़ियाँ बहा दी जाती थीं। "आज नहीं, कल आना।" "साहब दौरे पर हैं, कल मिलना।" "अभी स्टाफ मीटिंग में व्यस्त हैं, कल देखेंगे।" कल के भरोसे जनता का वर्तमान मरता रहा।

अचानक घड़ी ने ठक-ठक की आवाज़ के साथ साँस छोड़ दी। सारा दफ्तर चौंक गया। बाबू रामलाल ने चश्मा ठीक करते हुए कहा, "लो भई, घड़ी भी सरकारी सिस्टम से हार गई!" नीचे बैठे किसान ने ठंडी साँस ली, "अगर घड़ी भी यहाँ टिक नहीं पाई, तो हमारी क्या बिसात!"

चपरासी ने साहब को घड़ी बंद होने की सूचना दी। साहब ने गंभीरता से आदेश दिया, "नई घड़ी लाओ।" बाबू ने उत्साह में प्रस्ताव दिया, "क्यों न डिजिटल घड़ी लगवा दें?" साहब मुस्कुराए, "सरकारी दफ्तर में डिजिटल घड़ी? फिर तो लोग सच में समय देखने लगेंगे!"

नई घड़ी आई। पूरे सम्मान के साथ दीवार पर टांगी गई। लेकिन बाबू लोगों की कार्यशैली वही रही। किसान फिर आया, लेकिन अब घड़ी बदल चुकी थी। घड़ी बदली, पर सरकारी ‘समय’ वही रहा—अटका, सुस्त, बेपरवाह।

किसान ने घड़ी को देखा और निराशा से हँसा, "घड़ी बदल गई, पर वक्त नहीं बदला!"

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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