इस साल भी माफ़ कर दें, पितृ (व्यंग्य)

pitru paksha
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संतोष उत्सुक । Sep 19 2024 3:39PM

बदलते वक़्त के साथ परम्पराओं व नियमों में तेज़ी से बदलाव होता जा रहा है। कितनी ही क्रियाएं ज़िंदगी के व्यस्त रास्तों से हटा दी गई हैं। हम सबने मिलकर ज़माना इतना बदल दिया है कि वापिस लौटना मुश्किल है इसलिए इस बार भी माफ़ कर दें पितृ।

दुनिया की सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली महान किताब में पढने को मिला कि ढाबे, होटल इत्यादि से खरीदी गई पूरी, पूड़े, खीर या दाल सब्जी से श्राद्ध नहीं करना चाहिए। इस भोजन को पितृ कभी स्वीकार नहीं करते। अनेक दम्पत्ति जो नौकरी करते हैं उनमें से तो काफी ऐसा करते हैं। उन्होंने  किसी कर्मकांडी पंडित से पूछकर ऐसा करना शुरू किया होगा, हो सकता है खुद ही शुरू कर लिया हो। यह भी पढ़ा कि अर्धशिक्षित और अधकचरे ज्ञानियों के भ्रमजाल में नहीं फंसना चाहिए जो कहते हैं कि बिहार स्थित गया जाकर, श्राद्ध करने के बाद, वार्षिक श्राद्ध की ज़रूरत नहीं रहती। ऐसा भी असीमित परिवार कर चुके हैं। 

अब कम पड़ते समय में पढ़ाया जा रहा है कि गया जाकर श्राद्ध करने के बाद भी शास्त्र के अनुसार, श्राद्धकर्म अवश्य करते रहना चाहिए। अब तो गाय और कुत्ते का आसानी से मिलना मुश्किल होता जा रहा है। कौओं की तो बात ही न करें। सुना है कुछ क्षेत्रों में कौआ उपलब्ध कराना वार्षिक लघु व्यवसाय बन गया है। कई जगह गाय और कौओं का खाना आवारा कुत्ते खाते देखे गए हैं। 

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आम व्यक्ति जो दिल से अपने पितृ का श्राद्ध किए जा रहा है वह क्या करे। एक महिला ने कहा, जिस राज्य में वह रहती है और वहां पूर्णमासी को श्राद्ध नहीं करते। दूसरी से पूछा तो बोली, कर सकते हैं। इस बार भी पहला श्राद्ध पूर्णमासी को था। पहले मृतक की बरसी की जाती है फिर श्राद्ध होना शुरू होता है। दिलचस्प यह है कि दुनियावी स्वार्थ निबटाने के लिए बरसी भी कई बार तीन चार महीने बाद ही निबटा दी जाती है। एक बरस तो एक बरस बाद ही पूरा होना चाहिए लेकिन ज़रूरी काम तो ज़रूरी होते हैं। जो व्यक्ति कई जगह श्राद्ध का खाना खाने जाते हैं, थोड़ा खाकर बाक़ी ले आते हैं। ज़्यादा खाना इकट्ठा हो जाता होगा तो क्या करते होंगे। कितनी बार ऐसा खाना कचरे के हवाले दिखता है। खाने का सामान यदि बिना पकाए दान कर दिया जाए तो बेहतर उपाय हो सकता है। दिवंगत समझदार आत्माएं भी इससे निश्चित रूप से प्रसन्न होंगी।

हमारे देश की विविध संस्कृति महान है। जहां चाहे, जैसा मन भाए कर लो। पितृ और भगवान तो होते ही इतने अच्छे हैं कि नासमझ, स्वार्थी, अस्त व्यस्त इंसान की हरकतों का बुरा नहीं मानते। खुद को संतुष्ट रखना और दूसरों को अपने तरीके से खुश कर देना हमारी सांस्कृतिक परम्परा है। आत्मा इतनी पवित्र होती है कि वह किसी चीज़ का बुरा नहीं मानती। उसे भी पता है कि दुनिया विकसित होती जा रही है तो कुछ चीज़ों का निकास भी होना है और विनाश भी। दुनिया चलाने के लिए व्यवहारिक परेशानियों से निबटना भी ज़रूरी है जी ।

     

बदलते वक़्त के साथ परम्पराओं व नियमों में तेज़ी से बदलाव होता जा रहा है। कितनी ही क्रियाएं ज़िंदगी के व्यस्त रास्तों से हटा दी गई हैं। हम सबने मिलकर ज़माना इतना बदल दिया है कि वापिस लौटना मुश्किल है इसलिए इस बार भी माफ़ कर दें पितृ।    

- संतोष उत्सुक

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