भेड़ियों का आतंक (व्यंग्य)

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दरअसल शहर के पास में ही जंगल लगता है, जहाँ से कुछ भेड़िए रोज रात को शहर में घुस आते हैं। ले जाते हैं पांच से सात साल से ऊपर के बच्चों को। कुछ भेड़िए पकड़े भी गए हैं, लेकिन जो मुख्य भेड़िया है, जो आदमखोर हो चुका है, उसका कुछ पता नहीं चल रहा।

शहर का पुलिस थाना, समय दिन का ही कोई.., वैसे भी पुलिस थाने तो 24 घंटे खुले रहते हैं, आखिर अपराध कोई समय देखकर थोड़े ही किए जाते हैं। पहले अपराध रात को होते थे और थाने दिन में खुलते थे, तो बड़ी परेशानी थी। पुलिस वालों को अपनी नींद हराम करनी पड़ती थी। वैसे भी हरामखोरी पुलिस की कार्यप्रणाली में रहे तो ठीक है, अब ये  ये नींद में भी आ गई तो पुलिस वालों ने बगावत कर दी। इसलिए उनकी सुविधा के लिए अपराध दिन में ही होने लगे, पुलिस वालों के ऑफिस टाइम से मैच करते हुए।

तो हाँ, पुलिस थाने का सीन वैसा ही, जैसा देश के हर कोने में किसी भी पुलिस स्टेशन का हो सकता है। ऑफिस के बरामदे में चार पांच कुर्सियाँ डली हुईं, उनके आगे एक कॉमन राउंड टेबल बिछी हुई। कुछ राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का सा सीन है जी..। थाने की साइज़ से चुगली खाते हुए केवल तीन कर्मचारी हैं। एक कद-काठी से पुलिस थाना इंचार्ज लग रहा है। हाथ में अखबार पूरा खोलकर उसमें अपनी मुंडी घुसाए हुए हैं।

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बाकी दो के हाथ में चाय का गिलास, चेहरे पर चुलबुल पांडे जैसी मस्त खिलखिलाहट। थाना इंचार्ज अखबार में अपराध की खबरों के बीच में अपना राशिफल ढूंढ रहा है। अभी मशक्कत चल ही रही है कि एक अर्दली ने चर्चा शुरू कर दी।

"साहब, क्या हुआ भेड़ियों का? कुछ सुराग लगा क्या? चार घटनाएँ हो चुकी हैं।“

दरअसल शहर के पास में ही जंगल लगता है, जहाँ से कुछ भेड़िए रोज रात को शहर में घुस आते हैं। ले जाते हैं पांच से सात साल से ऊपर के बच्चों को। कुछ भेड़िए पकड़े भी गए हैं, लेकिन जो मुख्य भेड़िया है, जो आदमखोर हो चुका है, उसका कुछ पता नहीं चल रहा।

इंचार्ज—"क्या करें? थाने की पूरी टीम वहाँ लगी हुई है। ले-दे के हम तीन बचे हैं यार। ये बाकी के अपराध जो हो रहे हैं, उनको कौन देखेगा? सरकार का ध्यान सिर्फ भेड़ियों पर चला गया है, जैसे शहर में अब कोई अपराध बचा ही नहीं। अब बाकी का  काम कैसे होगा? अभी कोई केस आता होगा, फिर ऍफ़ आई आर दर्ज करो, तफ़तीश करो, लॉकअप में डालो, उगलवाओ, चालान बनाओ, कोर्ट में पेश करो। लफड़े हैं यार। जल्दी से ये भेड़ियों की गुत्थी सुलझे तो कुछ चैन आये।"

इतने में एक दंपत्ति, साथ में एक बच्ची (लगभग चार साल की होगी) और कुछ पड़ोसी टाइप के लोग पीछे-पीछे थाने में आ धमके। इंचार्ज ने गुस्से में अखबार पटका, अभी राशिफल पूरा देखा ही नहीं था शायद  गुस्सा इस बात का था और इन्हें देखकर समझ गया था कि आज का दिन फिर खराब होने वाला है। आ गयी एक नयी मुसीबत ..!

"क्या मामला है? कैसे घुसे चले आए?"

"साहब, रिपोर्ट लिखवानी है।"

"किसकी?"

"साहब, देख रहे हैं, मासूम बच्ची मेरी बेटी। स्कूल से घर वापस आई, कोई इसे बहला-फुसलाकर ले गया सरकार। इसके साथ कुकर्म किया और इसे बीच रास्ते में छोड़ गया। वो तो मेरे एक पड़ोसी की नज़र पड़ी सरकार, वो इसे लेकर आया है।" दंपत्ति दोनों फुट-फुट कर रोने लगे। बच्ची डरी-सहमी सी एक कोने में खड़ी कांप रही थी।

थाना इंचार्ज उनकी रिपोर्ट लिखने में लग गया।

“किसी पर शक ?” 

साहब किस पर शक करूँ, कोई जर, जोरू, जमीन का टंटा नहीं, साहब भेडिया ही होगा कोई !”

इंचार्ज- “अबे, भेडीये कोई कुकर्म नहीं करते, ये तो किसी इंसान की ही करतूत है।”

भीड़ में से एक बोला –“साहब जिसने ये कुकर्म किया, आप उसे इंसान कैसे बोल सकते हैं।”

"देखो, तफ्शीश में समय लगेगा। तुम्हें पता ही है, शहर में भेड़ियों का आतंक। पूरी टीम वहाँ लगी हुई है। सरकार का सख्त दबाव है, हम क्या करें?"

दंपत्ति हाथ जोड़े खड़ा था—"सरकार, कार्यवाही हो तो जाएगी न साहब। हम गरीब आदमी हैं।"

शहर में वाकई भेड़ियों का आतंक बढ़ गया है ।जंगल के भेडिये तो रात में आते हैं ,बच्चो को उठाकर ले जाते हैं ,लेकिन कुछ भेडिये दिन दहाड़े छोटी छोटी बच्चियों के साथ कुकर्म भी करने लगे हैं ।

– डॉ मुकेश असीमित

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