सामान और सम्मान के दिन (व्यंग्य)
सम्मान या सामान सब को नहीं दिया जा सकता। कई बार सुपात्र को अनदेखा पड़ता है और आपसी संबंधों की कद्र करने वालों को सम्मान और सामान, समान रूप से देने पड़ते हैं। रिश्तों को सामान समझने वाले सम्मान पाने वालों की होड़ में भी आगे बढ़ते देखे जाते हैं।
साहिर लुधियानवी ने कई दशक पहले समझाया था, ‘आदमी को चाहिए वक़्त से डर कर रहे, कौन जाने किस घडी वक़्त का बदले मिजाज़'। इंसान कभी वक़्त से डर कर नहीं रहा अब कोरोना ने आकर वक़्त का मिजाज़ पलट दिया है। संभवत अब आदमी को समय का मोल पता लग रहा है और उसे मानना पड़ रहा है कि हर इंसान के वक़्त का महत्त्व है। ज़िंदगी में सामान और सामान इकट्ठा करना ही नहीं, इसके अलावा आपसी सहयोग, सदभाव, सम्मान करना ज्यादा ज़रूरी है। वोट का सामान देकर राजनीति का सम्मान करने के अभ्यस्त लोगों को वास्तविक मेहनत, कर्मठता, समर्पण को सम्मान देना सिखा दिया है।
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वास्तव में जब तक स्वार्थ न हो हम किसी को कुछ भी कैसे दे सकते हैं तभी बदले हुए समय में सम्मान का कागज़ पर दर्ज किया जाना भी ज़रूरी हो गया है। अगर हम वांछित को खाने का सामान या नकद नहीं देना चाहते या नहीं दे सकते तो प्रशंसा कागज़ पर लिखकर दे सकते हैं या फिर फूल बरसा सकते हैं। अब यह लेने वाले की मर्ज़ी हो जाती है कि वह सम्मान से सम्बंधित अखबार में छपी फोटो को भी देखता रहे, कभी मनपसंद भूख लगे तो इसे चाट भी लें। भविष्य में विशाल मूर्तियों को ऐसा बनाया जाना चाहिए कि इनके पड़ोस में कुछ घंटे खड़े होकर भजन कीर्तन करने से कई दिन भूख न लगने का प्रावधान हो। ताली बजाना भी सम्मान देने का स्वास्थ्यवर्धक तरीका है, जितनी देर बजाते हैं व्यायाम होता रहता है, सम्मानित हो रहे व्यक्ति के सामने ताली बजा दी जाए तो उसका उत्साह भी बढ़ जाता है। लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि इससे कमबख्त भूख कम नहीं होती।
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सम्मान या सामान सब को नहीं दिया जा सकता। कई बार सुपात्र को अनदेखा पड़ता है और आपसी संबंधों की कद्र करने वालों को सम्मान और सामान, समान रूप से देने पड़ते हैं। रिश्तों को सामान समझने वाले सम्मान पाने वालों की होड़ में भी आगे बढ़ते देखे जाते हैं। आजकल सामान से ज्यादा सम्मान दिया जा रहा है। राष्ट्रीय दुनिया की बात करना तो बड़ी बात होगी आजकल नगर स्तरीय सम्मान भी सामने वाले का वक़्त देखने के बाद दिए जाते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आग्रह कर तालियां बजवानी पड़ती हैं लेकिन आज मेहनत, कर्मठता, समर्पण के नाम पर सड़क पर तालियां बज रही है। जिनके सम्मान में तालियां बजाई जा रही हैं उन्हें अच्छा लग रहा है लेकिन विशवास नहीं आ रहा कि वक़्त निकल जाने के बाद भी कभी सम्मान मिलेगा या वक़्त को बदल दिया जाएगा।
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क्या वक़्त आ गया है, सामान की वास्तविकता में डूबे हुए सब नंगे हैं लेकिन एक दूसरे से कह रहे हैं, देखो, हमने एकता, समानता, सदभाव के कितने रंग बिरंगे स्वच्छ, सुगन्धित वस्त्र पहन रखे हैं। भरोसा, यकीन, विशवास, वायदे, मुस्कुराहटों के सहारे वंचित वर्ग को जिलाए रखना ही उनका सम्मान हो गया है लेकिन साहिर ने कुछ और भी कहा है, ‘वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है कांटों का ताज'। क्या बदलता वक़्त उनके लिए अच्छे दिन लाने वाला है।
- संतोष उत्सुक
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