Raksha Bandhan 2023: जानिये रक्षा बंधन पर्व का धार्मिक महत्व तथा पौराणिक और मध्यकालीन इतिहास
रक्षा बंधन पर्व से जुड़ी कुछ पौराणिक कथाएं भी हैं जिनमें एक के अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून गिरने लगा। द्रौपदी ने जब यह देखा तो उन्होंने तुरंत ही धोती का किनारा फाड़कर उनके हाथ में बांध दिया।
रक्षा बंधन का त्योहार सावन की पूर्णिमा को मनाया जाता है जो भाई बहन को स्नेह की डोर में बांधे रखता है। इस दिन बहन भाई के हाथ में रक्षा सूत्र बांधती है तथा मस्तक पर टीका लगाती है। राखी बांधते समय बहन कहती है कि हे भैया, मैं तुम्हारी शरण में हूं। मेरी सब प्रकार से रक्षा करना। राखी कच्चे सूत जैसी सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी महंगी वस्तु तक की हो सकती है।
रक्षा बंधन के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियां और महिलाएं पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी के अलावा चावल, दीपक और मिठाई भी होती है। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिए पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीक करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बांधी जाती है। इसके बाद भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षा बंधन के अनुष्ठान के पूरा होने पर भोजन किया जाता है।
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रक्षा बंधन पर्व से जुड़ी कुछ पौराणिक कथाएं भी हैं जिनमें एक के अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून गिरने लगा। द्रौपदी ने जब यह देखा तो उन्होंने तुरंत ही धोती का किनारा फाड़ कर उनके हाथ में बांध दिया। इसी बंधन के ऋणी श्रीकृष्ण ने दुःशासन द्वारा चीर खींचते समय द्रौपदी की लाज रखी थी।
मध्यकालीन इतिहास में भी एक ऐसी ही घटना मिलती है- चित्तौड़ की हिन्दूरानी कर्मवती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उनके पास राखी भेजी थी। हुमायूं ने कर्मवती की राखी स्वीकार कर ली और उसके सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह से युद्ध किया।
रक्षा बंधन पर्व से जुड़ी कथा
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, ''हे अच्युत! मुझे रक्षाबंधन की वह कथा सुनाइए जिससे मनुष्यों की प्रेत बाधा तथा दुख दूर होता है। इस पर भगवान ने कहा, 'हे पाण्डव श्रेष्ठ! प्राचीन समय में एक बार देवों तथा असुरों में बारह वर्षों तक युद्ध चलता रहा। इस संग्राम में देवराज इंद्र की पराजय हुई। देवता कांति विहीन हो गये। इंद्र विजय की आशा को तिलांजलि देकर देवताओं सहित अमरावती चले गये। विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इंद्रदेव सभा में न आएं तथा देवता एवं मनुष्य यज्ञ कर्म न करें। सब लोग मेरी पूजा करें। जिसको इसमें आपत्ति हो, वह राज्य छोड़कर चला जाए।
दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ वेद, पठन पाठन तथा उत्सव समाप्त हो गये। धर्म के नाश होने से से देवों का बल घटने लगा। इधर इंद्र दानवों से भयभीत हो बृहस्पति को बुलाकर कहने लगे, ''हे गुरु! मैं शत्रुओं से घिरा हुआ प्राणन्त संग्राम करना चाहता हूं। पहले तो बृहस्पति ने समझाया कि कोप करना व्यर्थ है, परंतु इंद्र की हठवादिता तथा उत्साह देखकर रक्षा विधान करने को कहा। सहधर्मिणी इंद्राणि के साथ इंद्र ने बृहस्पति की उस वाणी का अक्षरशः पालन किया। इंद्राणि ने ब्राह्मण पुरोहित द्वारा स्वस्ति वाचन कराकर इंद्र के दाएं हाथ में रक्षा की पोटली बांध दी। इसी के बल पर इंद्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की।
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