नार्को टेस्ट क्या है? इसकी वैधानिकता कितनी है? जानिये विस्तार से
नार्को परीक्षण करने के लिए सोडियम पेंटोथॉल, सोडियम एमेटल, इथेनॉल, बार्बिचेरेट्स, स्कोपोल-अमाइन, टेपाज़ेमैन आदि को आसुत जल में मिलाया जाता है। परीक्षण के दौरान व्यक्ति को सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन लगाया जाता है।
भारत देश में संविधान के तहत विभिन्न प्रकार के अधिकार आम आदमी को दिए गए हैं, जिसका सदुपयोग वह अपने बचाव में करता आया है। यहां तक कि यदि कोई व्यक्ति किसी केस का आरोपी भी है तो भी उसकी सुरक्षा के लिए भी नाना प्रकार के प्रावधान किए गए हैं। हमें यह मालूम होना चाहिए कि अदालत सबूतों और गवाहों पर ही विश्वास करती है। इसलिए किसी भी अपराधी को सजा दिलाने के लिए पुलिस या देश की विभिन्न जांच एजेंसियां हर संभव कोशिश करती हैं सम्बन्धित मामलों से जुड़े तथ्यों की तह तक पहुंचने की, जिसके लिए सक्षम अधिकारी कई तरीके भी अपनाते हैं। उन्हीं तरीकों में से एक है नार्को टेस्ट की प्रक्रिया, जो अक्सर चर्चा में होती है।
मसलन, किसी भी आपराधिक केस में नार्को टेस्ट का प्रयोग आरोपी व्यक्ति से जानकारी प्राप्त करने/सही बात उगलवाने के लिए किया जाता है। हालांकि, इसका इस्तेमाल तब ही किया जाता है जबकि आरोपी जानकारी को देने में असमर्थ हो या फिर वह जानकारी देना ही नहीं चाहता हो। अमूमन ज्यादातर आपराधिक मामलों में नार्को टेस्ट का इस्तेमाल कर सच को बाहर लाने की कोशिश की जाती है और इसलिए यह पूरी प्रक्रिया चर्चा का विषय बनी रहती है।
# जानिए क्या है ट्रुथ सीरम इंजेक्शन और किसको लगाया जाता है?
प्रायः नार्को टेस्ट में व्यक्ति को ट्रुथ सीरम इंजेक्शन दिया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति को खुद पर काबू नहीं रहता और वह बोलने लगता है। दरअसल, नार्को टेस्ट एक फोरेंसिक परीक्षण होता है और जब यह परीक्षण किया जाता है तो उस वक्त वहां जांच अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सक, फोरेंसिक विशेषज्ञ, ऑडियो-वीडियोग्राफी की टीम और अन्य सहायक नर्सिंग स्टाफ भी मौजूद होते हैं। ये सभी मिलकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करते हैं जिसे अदालत में पेश किया जाता है।
# आखिर नार्को परीक्षण के पीछे निहित विज्ञान को ऐसे समझिए
नार्को परीक्षण करने के लिए सोडियम पेंटोथॉल, सोडियम एमेटल, इथेनॉल, बार्बिचेरेट्स, स्कोपोल-अमाइन, टेपाज़ेमैन आदि को आसुत जल में मिलाया जाता है। परीक्षण के दौरान व्यक्ति को सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन लगाया जाता है। चिकित्सक बताते हैं कि किसी भी व्यक्ति को इस दवा की मात्रा उसकी आयु, लिंग, स्वास्थ्य और शारीरिक परिस्थिति के आधार पर दी जाती है। क्योंकि यदि परीक्षण के दौरान ही इसकी अधिक मात्रा दे दी जाये तो वह कोमा में भी जा सकता है या फिर उसकी मृत्यु भी हो सकती है। दरअसल, नार्को परीक्षण में प्रश्नों के उत्तर देते हुए व्यक्ति पूरी तरह से होश में नहीं होता है, शायद इसी कारण से वह प्रश्नों के सही उत्तर देता है, क्योंकि वह उत्तरों को घुमा-फिरा पाने की स्थिति में नहीं होता है।
इस ड्रग के प्रभाव में न केवल वह अर्ध बेहोशी की हालत में चला जाता है, बल्कि उसकी तार्किक बुद्धि भी कार्यशील नहीं रहती है। एक तरीके से यह व्यक्ति को सम्मोहन की अवस्था में डाल देता है, जिससे वह अपनी तरफ़ से अधिक कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होता, बल्कि पूछे गए सवालों के बारे में ही कुछ बता सकता है। इसलिए विशेषज्ञों का भी मानना है कि नार्को टेस्ट में व्यक्ति हमेशा सच ही कहे, इसकी कोई गारंटी नहीं होती है। अमूमन सच की मात्रा कम भी हो सकती है।
यही वजह है कि नार्को परीक्षण के अलावा सच उगलवाने के लिए पॉलीग्राफ, लाईडिटेक्टर टेस्ट और ब्रेन मैपिंग टेस्ट आदि भी किया जाता है। पॉलीग्राफ टेस्ट शारीरिक जांच का दूसरा रूप है, लेकिन इस टेस्ट में व्यक्ति के शरीर में कोई पदार्थ इंजेक्ट नहीं किया जाता है। इसके बजाय, रक्तचाप, नाड़ी की दर, श्वास, पसीने की ग्रंथियों और रक्त प्रवाह को मापने के उपकरण व्यक्ति से जुड़े होते हैं। इसके बाद उन्हें कुछ सवालों के जवाब देने होते हैं। इस क्रम में व्यक्ति झूठ बोल रहा है या सच कह रहा है, इसकी गणना करने के लिए प्रत्येक प्रतिक्रिया को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है।
इसे भी पढ़ें: यदि कोई किसी लड़की का पीछा करे तो जानिए कहां और कैसे करें शिकायत और किस तरह से पाएं इस अप्रत्याशित स्थिति से छुटकारा
प्रायः देखा गया है कि नार्को टेस्ट के परिणामस्वरूप व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्षमता पर तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव भी पड़ते हैं। इस टेस्ट के बाद व्यक्ति विशेष को चिंता, स्ट्रेस और चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं। कुछ मामलों में नार्को टेस्ट के बाद लंबे समय तक एंग्जायटी और कमजोर याददाश्त की भी रिपोर्ट हुई हैं, हालांकि इसका कोई चिकित्सीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसलिए इस टेस्ट को करने से पहले कोर्ट और सम्बंधित एजेंसी से पूर्व आज्ञा लेना अतिआवश्यक हो जाता है। यह एक स्थापित परम्परा भी बन चुकी है।
# समझिये कि आखिर क्या है नार्को टेस्ट की वैधानिकता और उपयोगिता
वैसे कई बार आपने फिल्मों में देखा होगा कि पुलिस किसी शातिर अपराधी से सच उगलवाने के लिए उसके साथ मार पीट तक करती है, लेकिन हकीकत तक नहीं पहुंच पाती, क्योंकि वह इससे परे हैं। हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुसार, किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने ही खिलाफ गवाह बनने के लिए या अपने ही खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यदि आप भारतीय कानून पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि सबूतों और गवाहों से संबंधित भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 में भी ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है जो नार्को टेस्ट के बारे में बताता हो। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता स्वयंसिद्ध है और अदालत की मंजूरी पर यदि आरोपी व्यक्ति खुद ही इस टेस्ट के लिए राजी हो जाये तो उसके हामी भरते ही यह टेस्ट लिया जा सकता है।
अब इसे विस्तार से समझाते हैं। भारतीय संविधान में व्यक्तियों को कुछ मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं जो व्यक्ति के जीवन जीने हेतु आवश्यक समझे जाते हैं। जिसमें अनुछेद 20(3) के अंतर्गत आत्म–दोषारोपण से अभियुक्त व्यक्ति को संरक्षण प्रदान किया गया है। वहीं अनुच्छेद 21 में व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को प्राथमिकता दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत ''किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।'' अर्थात्, इसका संरक्षण उसी व्यक्ति को मिल सकता है, जो किसी अपराध का अभियुक्त हो, ऐसे अभियुक्त पर स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने को बाध्य किया गया हो और अंतिम साक्ष्य उसी अपराध के संबंध में मांगा गया हो जिसका उस पर आरोप हो।
इससे यह स्पष्ट होता है कि, किसी भी अभियुक्त को अपने ही विरुद्ध पुलिस और न्यायालय के समक्ष साक्षी/साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यह हर व्यक्ति या अपराधी को मिलने वाला एक मूल अधिकार है, जिसका राज्य या अन्य प्रशासनिक तंत्र के द्वारा उलंघन किया जाना स्वीकार्य नहीं है। यदि हम नार्को परीक्षण की मूल अंतर्वस्तु को समझें तो यह प्रतीत होता है कि इस व्यक्ति को इंजेक्ट करके उससे स्वयं अपराध के संबंध में सब कुछ उगलवाया जाता है। साथ ही, यह व्यक्ति के निजी ज्ञान को उजागर करने के लिए बाध्य करता है, इसलिए यह उसकी निजता का भी उलंघन करता है।
इसलिए इसकी वास्तविकता और वैधानिकता सदैव एक प्रश्नगत्त विषय बनी रही है। इसके उपरांत भी भारत में प्रतिबंधित नहीं होने के कारण इसका प्रयोग एक अभ्यास के तौर पर किया जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप कुछ निर्णयों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टेस्ट के पक्ष में मत दिया है, क्योंकि न्यायालय का मानना है कि यदि नवीनतम तकनीक से किसी अपराध के संबंध में कोई तथ्य की सूचना मिलती है तो उसे नकारना उचित नहीं होगा। हालांकि, भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है जो कि नार्को टेस्ट के विषय में चर्चा करता हो। बावजूद इसके ऐसे तकनीकी परीक्षणों को विधिक प्रावधानों से दूर रखना उचित नहीं।
आइये कुछ उदाहरणों के सहारे इसे समझने की कोशिश करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ विशेष मामलों में नार्को टेस्ट की आज्ञा दी थी, जैसे- वर्ष 2002 के गोधरा काण्ड में, 2003 के अब्दुल करीम तेलगी पेपर स्कैम में, और हैदराबाद तीन टावर बॉम्ब ब्लास्ट के मामले में नार्को टेस्ट की आज्ञा दी गई थी। वहीं, रोजो जॉर्ज बनाम पुलिस अधीक्षक के मामले में नार्को एनालिसिस टेस्ट की अनुमति देते हुए कोर्ट ने कहा है कि ''वर्तमान समय में अपराधी अपराध करने के लिए बहुत परिष्कृत और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इसलिए अपराधियों से पूछताछ और जांच का पारंपरिक तरीका समाधान के लिए सफल नहीं होगा और इसके लिए पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग और नार्को एनालिसिस जैसी कुछ नई तकनीकों का इस्तेमाल करने की जरूरत है।''
वहीं, सेल्वी मुरुगेशान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला से आप सुपरिचित ही होंगे। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक सिद्धांत निर्धारित किया कि आरोपी व्यक्ति की सहमति के बिना आरोपी व्यक्ति पर नार्को-एनालिसिस टेस्ट नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इस मामले में सुनवाई के दौरान यह सवाल किया गया था कि क्या आरोपी व्यक्ति का नार्को-एनालिसिस टेस्ट कराना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन होगा? जिसके जवाब में विद्वान कोर्ट ने दो टूक कहा कि यह उस प्रश्न की प्रकृति पर निर्भर करेगा जो आरोपी से पूछा जाना है। क्या आरोपी द्वारा दी गई कोई भी जानकारी उसे अपराध में फंसाने की प्रवृत्ति रखती है या फिर निर्दोष साबित करने की। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि जैसे दंड विधि के तहत किसी पुलिस अधिकारी के पास साक्ष्य जुटाने की शक्ति रहती है, इसी प्रकार किसी मामले के आरोपी का नार्को एनालिसिस टेस्ट कराना भी सबूत इकट्ठा करने का हिस्सा है। जिसे रोका नहीं जा सकता है, बशर्ते कि आरोपी खुद भी इसके लिए सहमत हो। वहीं, श्रद्धा मर्डर केस से आप सुपरिचित ही होंगे। पिछले साल हुए श्रद्धा मर्डर केस का आरोपी आफताब अमीन पूनावाला का नार्को टेस्ट किया गया। इस टेस्ट में तकरीबन 2 घंटे लगे। इस केस में भी अदालत और आरोपित की मंजूरी के बाद ही नार्कों टेस्ट लिया गया था। क्योंकि श्रद्धा मर्डर केस में आफताब पूनावाला के लिए जनता द्वारा ऐसे परीक्षण की मांग की गई थी, जिसे बाद में माननीय दिल्ली हाईकोर्ट ने भी स्वीकार किया था। परिणाम सबके सामने है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समय समय पर अलग अलग मीडिया हाउसेस भी अपनी रिपोर्टिंग के समय और आम जनता भी किसी अपराध के संदिग्ध के पकड़ते ही न्यायालय के समक्ष उसके नार्को परीक्षण की गुहार लगाने लगते हैं। इसके पीछे आम जनता की धारणा यह होती है कि इस परीक्षण के बाद निश्चित ही सच्चाई सामने आ जायेगी, जबकि ऐसा शतप्रतिशत सत्य नहीं है। इस कारण यह हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है कि क्या यह व्यक्ति के मूल अधिकार और मानव अधिकार पर एक अतिक्रमण है या नहीं? सम्भवतया इसलिए भारत में नार्को एनालिसिस रिपोर्ट कोर्ट में प्राथमिक साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
# आइये कुछ उदाहरणों से समझते हैं नार्को टेस्ट के साक्षिक मूल्य को
नार्को टेस्ट को लेकर कई बार इसके साक्ष्य मूल्य के विषय में सवाल उठते रहते हैं। अब तक हुए नार्को टेस्ट के इतिहास को देखें तो यह जरूरी नहीं है कि हर टेस्ट में पुलिस या जांच एजेंसी को सफलता ही मिली हो। जैसे 26/11 मुंबई हमला और स्टांप घोटाले की जांच में नार्को टेस्ट ने सच उजागर करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वहीं आरुषि मर्डर केस में इस परीक्षण से कामयाबी नहीं मिल सकी। क्योंकि इस टेस्ट में व्यक्ति से मिली जानकारी के आधार पर ही पुलिस या एजेंसी इन्वेस्टिगेशन करती है और इसके आधार पर ही सबूतों को जुटाया जाता है। इसलिए इस टेस्ट के सक्सेस रेट को लेकर अक्सर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय होती है।
इसलिए यह कहना उचित होगा कि भारत में नार्को एनालिसिस रिपोर्ट न्यायालय में प्राथमिक साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार धारा 24, 25 और 26 साक्ष्य अधिनियम,1872 के अंतर्गत अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दी संस्वीकृति व विसंगत है उसी प्रकार नार्को टेस्ट का भी कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि ऐसा बयान अभियुक्त द्वारा अर्ध-चेतन अवस्था में दिया जाते हैं और जो कि कोर्ट में स्वीकार्य नहीं है। हालांकि, कोर्ट चाहे तो तथ्यों और परिस्थितियों को मद्देनज़र रखते हुए इसे सीमित स्वीकार्यता प्रदान कर सकता है।
एक और खास बात यह कि भारत के नेशनल इंस्टिटयूट ऑफ मेण्टल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेस के निदेशक के अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञों की एक समिति ने विचार व्यक्त किया है कि ये परीक्षण मानव उत्पीड़न युक्त हैं और उन्हें ऐसे जांच उपकरण के रूप में प्रयोग करने पर रोक भी लगानी चाहिए। हालांकि, हमें यह भी मानना होगा कि कानून एक जीवित प्रक्रिया है, जो समाज, विज्ञान और नैतिकता आदि में परिवर्तन के अनुसार बदलती रहती है। इसलिए कानूनी प्रणाली को भी विज्ञान में होने वाले विकास और प्रगति को तब तक आत्मसात करते रहना चाहिए जब तक कि वे मौलिक कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन न करें और समाज की भलाई के लिए हों। इसलिए केंद्र सरकार को नार्को परीक्षण व इसकी प्रक्रिया गत विश्लेषण पर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एक स्वच्छ आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दांव पर है, जिसे बचाये रखने में ही सबकी भलाई अंतर्निहित है।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
अन्य न्यूज़