न्यूरोप्लास्टिटी यानी पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम के मकड़जाल में है आज की पीढ़ी

popcorn brain syndrome
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दरअसल पॉपकॉर्न ब्रेन शब्द का उपयोग 2011 में वांशिगटन विश्वविद्यालय में उस समय शोध कर रहे डेविड लेवी ने उपयोग किया था। यह एक तरह से इस तरह की मानसिकता को दर्शाते हुए किया गया था कि मन का स्थिर नहीं रहना।

आज की पीढ़ी तेजी से न्यूरोप्लास्टिसिटी यानी कि पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम के मकड़ जाल में उलझती जा रही है। मजे की बात यह है कि इसमें हम केवल और केवल बच्चों या युवाओं को ही दोष नहीं दे सकते बल्कि देखा जाए तो इंटरनेट और सोशियल मीडिया के अत्यधिक उपयोग के प्रभाव से ग्रसित लोग इन हालातों से दो चार होते जा रहे हैं। चिंतनीय यह है कि फोकस नाम की चीज खोती जा रही है और उसके स्थान पर मानसिक भटकाव लेता जा रहा है। होता यह है कि एक काम करने की सोचते हैं उतनी देर में दूसरे काम पर ध्यान चला जाता है तो कुछ ही देर में तीसरे काम को पहले करने की सोचने लगते हैं। इस सबका बड़ा कारण खासतौर से इलेक्ट्रोनिक गजेट्स और लेपटॉप के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया को अत्यधिक समय देने का यह साइड इफेक्ट होने लगा है। टीवी पर बार बार चैनल बदलना, एक गाने को पूरा होने से पहले ही दूसरे गाने को लगा देना, मस्तिष्क में एक ही समय कई चीजों का चलना आदि पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम की निशानी है। चिकित्सकीय भाषा में कहा जाए तो यह एडीएचडी यानी कि अटेंशन डेफिसिट हाईपरएक्टिविटी डिस आर्डर की स्थिति होती है। बिना सोचे समझे रिएक्शन, तनाव, काम में फोकस नहीं कर पाना, डिप्रेशन में रहना आदि का कारण मोटे रुप से पॉपकॉर्न ब्रेन के रुप में देखा जा सकता है।

दरअसल पॉपकॉर्न ब्रेन शब्द का उपयोग 2011 में वांशिगटन विश्वविद्यालय में उस समय शोध कर रहे डेविड लेवी ने उपयोग किया था। यह एक तरह से इस तरह की मानसिकता को दर्शाते हुए किया गया था कि मन का स्थिर नहीं रहना। एक तरह से भ्रमित मानसिकता भी इसे कहा जा सकता है। मजे की बात यह है कि जिस तरह से पॉपकॉर्न ब्रेन का विस्तार होता जा रहा है यानी कि जिस तरह से अधिक से अधिक लोग इसके मकड़जाल में उलझते जा रहे हैं वह अपने आप में गंभीर होने के साथ ही अत्यधिक चिंतनीय भी है। एक दो नहीं इन हालातों का पूरे समाज पर असर पड़ रहा है। आज दूध पीते बच्चे को भी मोबाईल थमाकर शांत रखने की प्रवृति आम होती जा रही है उसके दुष्परिणाम सामने आने में देर नहीं लगेगी। बच्चें हाईपर होते जा रहे हैं। जब बच्चों में ही यह होने लगा है तो रातदिन जिस तरह से सोशियल मीडिया के प्लेटफार्म में लगे रहते हैं उनकी क्या मनोदशा हो जाएगी यह किसी से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए। मनोविश्लेषकों के अनुसार यह एक तरह की न्यूरोप्लास्टिसिटी है।

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देखा जाए तो एक दूसरे से तत्काल संवाद कायम करने का माध्यम स्मार्टफोन, सोशियल मीडिया और इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सीधे हमारी मनोदशा को प्रभावित कर रहा है। तकनीक का इस तरह का दुष्प्रभाव संभवतः इतिहास में भी पहले कभी नहीं रहा है। आज हम हर समस्या का समाधान स्मार्टफोन और इंटरनेट को मानने लगे हैं। बच्चा रो रहा है या किसी बात के लिए जिद कर रहा है या चिड़चिड़ा हो रहा है तो माताएं या परिवार के कोई भी सदस्य बच्चें को चुप कराने या मनबहलाव और खास यह कि बच्चे को व्यस्त रखने के लिए मोबाइल संभला देते हैं। जबकि मोबाइल के दुष्प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं। अमेरिका में पिछले दिनों हुए एक सर्वे में सामने आया कि मोबाइल फोन, टेबलेट, वीडियो गेम या अन्य इस तरह के साधन के उपयोग से गुस्सेल होते जा रहे हैं। मारधाड़, हमेशा गुस्से में रहने, तनाव में रहने और जिद्दी होना आज आम होता जा रहा है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हुए एक अध्ययन में भी साफ हो गया है कि आज गेमिंग, सोशियल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के आदी होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। हमेशा तनाव, डिप्रेशन, आक्रामकता, गुस्सेल, बदले की भावना आदि आम है। ऐसे में मनोविज्ञानियों के सामने नई चुनौती आ जाती है। यह असर कमोबेस समान रुप से देखा जा रहा है। यह कोई हमारे देश की समस्या हो, ऐसा भी नहीं हैं अपितु दुनिया के लगभग सभी देषों में यही हो रहा है। अमेरिका में किये गये एक अध्ययन में भी यही उभर कर आया है।

कोई दो राय नहीं कि विकास समाज की आवश्यकता है। स्मार्टफोन व इंटरनेट की दुनिया का अपना महत्व है। पर इनके सामने आ रहे दुष्प्रभावों को समझना होगा। पॉपकॉर्न ब्रेन को लेकर मनोविज्ञानी और चिकित्सक दोनों ही समान रुप से चिंतित है। सुझाया जा रहा है कि दिन चर्या को नियमित करके समय प्रबंधन को बेहतर बनाकर कुछ हद तक इस समस्या को कम किा जा सकता है। इसके साथ ही सोशियल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक गजेट्स पर आवश्यकता से अधिक समय नहीं दिया जाना जरुरी हो जाता है। जितना कम तकनीक का उपयोग होगा और अनावश्यक रुप से इन पर समय नहीं दिया जाएगा तो एक तरह से ब्रेन डिसआर्डर की इस समस्या से या यों कहे कि पॉपकॉर्न ब्रेन की समस्या से छुटकारा मिल सकेगा। उलझनों के भ्रम जाल से बचा जा सकेगा। योग प्रक्रियाएं और नियमित दिनचर्या भी इस समस्या को एक हद तक दूर कर सकती है। इसलिए पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोंम की गंभीरता और उसके दुष्परिणामों को समय रहते समाधान करना होगा।  

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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