देख तेरे अमेरिका की हालत क्या हो गयी राष्ट्रपति डोनाल्ड
दुनिया के देशों में दादा की भूमिका निभाने वाला अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से अपने आप को बाहर कर सीरिया और निकारागुआ की कतार में खड़ा हो गया है। यानी कि केवल 3 देश इस समझौते कि विरोध में रह गए हैं।
आज जहां सारी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग व नेनो−अलनेनो के प्रभाव से दो चार हो रही है वहीं बड़े फैसलों में छोटी सोच के बाधक बनने का इससे बड़ा उदाहरण दूसरा क्या होगा कि अमेरिकी राष्ट्र्पति डोनाल्ड ट्रंप ने एक झटके में पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया। इसका कारण भी भारत को जलवायु समझौते के तहत मोटी वित्तीय सहायता मिलना, अमेरिका में छोटे उद्योगों का प्रभावित होना, रोजगार के अवसर कम होना और आने वाले वर्षों में अमेरिका में प्रतिव्यक्ति आय प्रभावित होना बताया जा रहा है। ट्रंप का मानना है कि इस समझौते से भारत−चीन को अधिक लाभ मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के इस फैसले से पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयासरत सारी दुनिया को बड़ा झटका लगा है। अमेरिका ही नहीं सारी दुनिया के देशों ने ट्रंप के इस निर्णय को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है वहीं योरोपीय देशों ने तो अमेरिका को कड़े प्रतिबंधों के लिए तैयार रहने के संकेत दे दिए हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति भवन व्हाइट हाउस के बाहर अमेरिकीयों ने ट्रंप के इस निर्णय के खिलाफ बड़ा प्रदर्शन किया है वहीं दुनिया के प्रमुख देशों के राजनेताओं ने अमेरिका के इस निर्णय का कड़ा विरोध जताया है। फ्रांस के राष्ट्रपति मेक्रोन ने जहां इसे अमेरिका की एतिहासिक भूल बताया है वहीं जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने अमेरिका को कड़े प्रतिबंधों के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और विवाद का लगता है चोली−दामन का रिश्ता है। विवादास्पद बयानों और निर्णयों के लिए कुख्यात ट्रंप के निर्णयों का दुनिया के दूसरे देशों में ही नहीं अमेरिका में भी शुरू से ही कड़ा विरोध रहा है। अभी राष्ट्रपति बने छह माह भी नहीं हुए हैं कि डोनाल्ड ट्रंप की अब तक के अमेरिकी राष्ट्रपतियों में लोकप्रियता में सबसे अधिक गिरावट देखने को मिली है। ट्रंप के जल्दबाजी में लिए जा रहे फैसलों पर अमेरिका के न्यायालयों द्वारा ही रोक लगाई जाती रही है। देखा जाए तो ट्रंप अभी तक अपने किसी भी फैसले से दुनिया के देशों को प्रभावित नहीं कर पाए हैं बल्कि सही कहा जाए तो अमेरिका और अमेरिका के बाहर अपने विरोधी ही अधिक बनाते जा रहे हैं। अमेरिका के लोग ही सोचने लगे हैं कि ट्रंप को राष्ट्रपति चुनना कहीं ना कहीं उनकी बड़ी भूल है। यही कारण है कि आज भी अमेरिका के लोग ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं और उनके विरोध में लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।
देखा जाए तो कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका दुनिया के देशों में आगे है। करीब 15 फीसदी कार्बन उत्सर्जन अमेरिका द्वारा किया जा रहा है जिससे वातावरण प्रभावित हो रहा है। दुनिया के देश ग्लोबल वार्मिंग से चिंतित है। सूखा, आए दिन तूफान, अतिवृष्टि, पीने के पानी की समस्या, ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना, वायु प्रदुषण से सांस लेने में भी दिक्कत होना, श्वास और दूसरी बीमारियों का बढ़ना आदि ने सारी दुनिया को चिंता में डाल रखा है। हालांकि कार्बन उत्सर्जन में चीन 2007 से अमेरिका को भी पीछे छोड़ गया है। पर अमेरिका के जलवायु समझौते से अलग होने का मतलब चीन को नेतृत्व प्रदान करना भी होगा जिसके लिए चीन लगातार प्रयास कर रहा है। चीन दुनिया के देशों में अपने वर्चस्व को बनाने के लिए प्रयास कर रहा है। भारत और चीन में जहां प्रतिस्पर्धा है वहीं स्वाभाविक विरोध भी है। चीन भारत के लिए पाकिस्तान का साथ देकर दोतरफा चुनौती बनता जा रहा है वहीं चीन योरोपीय देशों के लिए भी कोरिडोर बनाने के प्रयास में जुटा है। जहां तक पेरिस समझौते का प्रश्न है 2015 में दुनिया के 195 देश इस पर हस्ताक्षर कर चुके हैं वहीं 148 देश इस समझौते की पुष्टि कर चुके हैं। हालांकि समझौते के तहत अमीर देश 100 अरब डॉलर की मदद देंगे।
दुनिया के देशों में दादा की भूमिका निभाने वाला अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से अपने आप को बाहर कर सीरिया और निकारागुआ की कतार में खड़ा हो गया है। यानी कि केवल 3 देश इस समझौते कि विरोध में रह गए हैं। पता नहीं ट्रंप के सलाहकार विश्लेषक इस बात को क्यों नहीं देख पा रहे कि इस तरह के निर्णयों से अमेरिका को ही सबसे अधिक नुकसान होने जा रहा है। जहां एक और अमेरिकी वर्चस्व खतरे में पड़ता जा रहा है, दुनिया के देशों में अकेला पड़ता जा रहा हैं वहीं आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर इस तरह के निर्णयों से अमेरिका को ही अधिक घाटा उठाना पड़ेगा। इसे नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के निर्यात पर इसका सीधा असर पड़ सकता है। दुनिया के देश अमेरिकी उत्पादों पर कार्बन टैरिफ के नाम पर कर लगाएंगे और इससे अमेरिकी उत्पाद महंगे होंगे और उत्पादक कंपनियों के कारोबार और लाभदायकता प्रभावित होगी। यही कारण है कि एपल, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, इंटेल, एचपी, मार्गन स्टेन ले, एडोबी आदि ने खुला विरोध करते हुए पत्र लिखकर इस निर्णय पर पुनर्विचार को कहा है।
अमेरिका के इस निर्णय से भारत अमेरिकी संबंधों पर भी निश्चित रूप से प्रभाव पड़ेगा। पिछले वर्षों में अमेरिका से भारतीय संबंधों में तेजी से सुधार हुआ है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भारतीयों का योगदान भी महत्वपूर्ण है। खासतौर से आईटी सेक्टर में भारतीयों की दमदार उपस्थिति है। अमेरिका से भारत सैन्य उपकरणों की खरीद कर रहा है वहीं कैलिफोर्निया से अच्छी खासी मात्रा में बादाम का आयात कर रहा है। यह भी साफ है कि पेरिस समझौते से अलग होने की घोषणा करते हुए ट्रंप ने भारत के खिलाफ ही आवाज उठाई है। इसी माह हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संभावित अमेरिकी यात्रा इस निर्णय से प्रभावित होगी। कारण भी साफ है पहले ट्रंप ने वीजा नियमों में बदलाव कर भारतीय विशेषज्ञों के अमेरिका जाने पर कड़े अवरोधक खड़े किए हैं वहीं अब पेरिस समझौते के बहाने सीधे सीधे भारत पर निशाना साधा है। हालांकि देर सबेर इसका नुकसान अमेरिका को ही होना है। अमेरिका अपना वैश्विक लीडरशीप का स्थान खोता जा रहा है। इस तरह के निर्णयों से आने वाले समय में अमेरिका दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही स्तर पर अपनी वैश्विक पहचान को बनाए रखने में विफल रहेगा।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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