मानवता के कल्याण के लिए समर्पित था महावीर स्वामी का विचार

Mahavir Swami
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ऋचा सिंह । Apr 21 2024 10:55AM

जैन ग्रंथों के अनुसार समय-समय पर जैन धर्म के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है। जो सभी जीवो को वास्तविक आत्मिक सुख व शांति प्राप्ती का उपाय बताते हैं। तीर्थंकरों की संख्या 24 ही कही गई है जिसमे महावीर वर्तमान पीढ़ी के 24 वें और अंतिम तीर्थंकर थे।

हमारे देश में अनेक ऐसे संत ज्ञानी महापुरुष हुए हैं जिन्होंने न केवल भारत वरन पूरे विश्व में अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया है महावीर स्वामी उनमें से एक थे। जैन अनुश्रुतियों और परंपराओं के अनुसार जैन धर्म की उत्पत्ति और विकास में 24 तीर्थंकर सम्मिलित हैं इनमें से 22 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता स्पष्ट और प्रमाण रहित है। अंतिम दो तीर्थंकर पार्श्वनाथ (23वें) एवं महावीर स्वामी (24 वें) एवं अन्तिम तीर्थकर  की ऐतिहासिकता को जैन धर्म के ग्रंथों में प्रमाणित  किया गया है।

महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें और अन्तिम तीर्थंकर थे। जैन धर्म की स्थापना का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है क्योंकि इस धर्म के सुधार तथा व्यापक प्रचार प्रसार इनके समय में ही हुआ था। महावीर स्वामी का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले ईशा से 540 वर्ष पूर्व वैशाली गणराज्य के कुंड ग्राम में ज्ञागृत वंशी क्षत्रिय परिवार में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ कुंड ग्राम की क्षत्रिय कुल के प्रधान तथा माता त्रिशला लक्ष्मी नरेश चेटक की बहन थी। इनका जन्म तीसरी संतान एवं वर्द्धमान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ। वर्द्धमान को वीर, अतिवीर और समंती भी कहा जाता था। वर्द्धमान को लोग श्रेयांश और यशस्वी भी कहते थे। इनके बड़े भाई का नाम नंदीवर्धन एवं बहन का नाम सुदर्शना था। वर्द्धमान का बचपन राजमहल में राजसी सुखसुविधा में बीता वो बड़े निर्भीक और साहसी थे। जब यह आठ वर्ष के हुए तो उन्हे पढ़ने, शिक्षा लेने, शस्त्र शिक्षा लेने के लिए शिल्प शाला में भेजा गया। वर्द्धमान का विवाह यशोदा नामक राजकान्या से हुआ इनकी अंवद्धा नाम की बेटी भी थी, कालांतर में जिसका विवाह जमालि से हुआ जो इनके शिष्य भी थे। 30 वर्ष की आयु में वर्द्धमान ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्म ज्ञान और कल्याण के पथ पर निकल गए। वर्षों की कठिन तपस्या के बाद उन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ इसी कारण इन्हें केवलिन भी कहा जाता है। जिसके पश्चात उन्होंने संवत शरण में ज्ञान प्रसारित किया। अपनी सभी इंद्रियों पर विजय पाने के कारण वे "जिन" अर्थात विजेता कहलाए और इसी कारण उनके अनुयाई जैन कहलाते हैं। अपनी साधना में अडिग रहने तथा पराक्रम दिखाने के कारण इन्हें महावीर नाम से संबोधित कर महावीर स्वामी बना दिया गया। 72 वर्ष की आयु में इन्हें पावापुरी में मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयाई बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिंबिसार कुदिक और चेतन भी शामिल थे।

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जैन धर्म को मानने वाले प्रमुख राजा थे उदायिन, चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंग का शासक खारवेल, राष्ट्रकूट शासक अमोघ वर्ष, चंदेल शासक इत्यादि। महावीर स्वामी के उपदेशों उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों, विधानों का जनमानस पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा उनके समय में उत्तरी भारत में तो इस धर्म के प्रचार प्रसार हेतु कई केदो की भी स्थापना की गई सामान्य जनों के अतिरिक्त बिंबिसार तथा उनके पुत्र अजातशत्रु जैसे राजा भी महावीर स्वामी के उपदेशों से प्रभावित हुए। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है।

जैन ग्रंथों के अनुसार समय-समय पर जैन धर्म के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है। जो सभी जीवो को वास्तविक आत्मिक सुख व शांति प्राप्ती का उपाय बताते हैं। तीर्थंकरों की संख्या 24 ही कही गई है जिसमे महावीर वर्तमान पीढ़ी के 24 वें और अंतिम तीर्थंकर थे। हिंसा, पशु ,बलि जात-पात का भेदभाव जिस युग में बढ़ गया उसी युग में महावीर स्वामी का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताएं जो अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, असतेय और ब्रह्मचर्य हैं। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। महावीर के सर्वोदय तीर्थ में जाति की सीमाएं नहीं थी। महावीर स्वामी का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक सी है इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो यही महावीर स्वामी का जियो और जीने दो का सिद्धांत था।

जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रतिमान, प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्हें एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं था। उन्हें हिंसा ,पशु बलि, जाती, पद के भेदभाव से घृणा थी। महावीर स्वामी के माता-पिता जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जो महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुए थे उनके अनुयाई थे। महावीर स्वामी ने चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य जोड़कर पांच महाव्रत रूपी धर्म चलाया। यह सबसे प्रेम का व्यवहार करते थे उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि इंद्रियों का सुख विषय वासनाओं का सुख दूसरों को दुख पहुंचा करके ही पाया जा सकता है इसलिए वह इंद्रिय सुख को महत्व नहीं देते थे। महावीर जी की 28 वर्ष की उम्र में उनके माता-पिता का देहांत हो गया जेष्ठ बंधु नंदीवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे बाद में 30 वर्ष की उम्र में वर्धमान ने श्रावणी दीक्षा लेकर वह श्रवण बन गए उनके शरीर पर परिग्रह के नाम पर एक लंगोटी भी नहीं रही अधिकांश समय वे ध्यान में ही मगन रहते, हाथ में ही भोजन कर लेते, गृहस्तों से कोई चीज नहीं मांगते थे। धीरे-धीरे उन्होंने पूर्ण आत्म साधना प्राप्त कर ली।

महावीर स्वामी ने 12 वर्ष तक मौन साधना, तपस्या की और तरह-तरह की कष्ट झेले अंत में उन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद महावीर ने जन कल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। वह अर्धमगधी भाषा में भी उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भली-भांति समझ सके। महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, असते, ब्रह्मचर्य और परिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम प्रेम और करुणा सील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। महावीर स्वामी ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका सबको लेकर चतुर्विद् संघ की स्थापना की उन्होंने कहा जो जिस अधिकार का हो वह उसी वर्ग में आकर सम्यकतत्त्व पाने के  लिए आगे बढ़े। जीवन का लक्ष्य शांति पाना है। धीरे-धीरे देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूम कर महावीर स्वामी ने अपना पवित्र संदेश फैलाया, महावीर स्वामी ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसा पूर्व 527 में पावापुरी( बिहार) में कार्तिक (अश्वनी) कृष्ण अमावस्या  को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निवार्ण दिवस पर जैन धर्म के अनुयाई घर-घर दीपक जला कर दीपावली मनाते है।

जैन धर्म का कोई संस्थापक नहीं है बल्कि जैन धर्म 24 तीर्थंकरों के जीवन और शिक्षा पर आधारित धर्म है। तीर्थंकर यानी वह आत्माएं जो मानवीय पीड़ा और हिंसा से परे इस सांसारिक जीवन को पार कर आध्यात्मिक मुक्ति के क्षेत्र में पहुंच गई हैं। सभी जैनियों के लिए 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी जैन धर्म में खास महत्व रखते हैं। महावीर इन आध्यात्मिक तपस्वियों में से अंतिम तीर्थंकर थे लेकिन जहां औरों की ऐतिहासिकता अनिश्चित है वही महावीर के बारे में पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि उन्होंने इस धरती पर जन्म लिया। अहिंसा के इस उपदेश का जन्म क्षत्रिय जाति में हुआ वह गौतम बुद्ध के समकालीन थे। महावीर के अनुयायियों के लिए मुक्ति का मार्ग त्याग और बलिदान ही है लेकिन इसमें जीवात्माओं की बली शामिल नहीं है।

कुछ बौद्ध ग्रंथों में महावीर का उल्लेख है लेकिन आज हम इसके बारे में जो कुछ भी जानते हैं उसका आधार जैन ग्रंथ है। प्रचारआत्मक कल्पसूत्र यह ग्रंथ महावीर के सदियों बाद लिखा गया है। इससे पहले लिखे गए आचरंगसूत्र हैं इस ग्रंथ में महावीर को भ्रमण करने वाले एकांकी साधु के रूप में दिखाया गया है। कहा जाता है कि महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में भ्रमण करना शुरू किया और वह 42 साल की उम्र तक भ्रमण करते रहे। 

ज्ञान की खोज में गृह त्याग कर महावीर ने अपनी यात्रा की शुरुआत  एक भयानक पीड़ा दायक संकल्प से की थी। कल्पसूत्र में अशोक वृक्ष के नीचे घटित उस क्षण का वर्णन है। वहां उन्होंने अपने अलंकार, मालाएं और सुंदर वस्त्र, वस्तुओं को त्याग दिया। आकाश में चंद्रमा और ग्रह नक्षत्र के शुभ संयोग की बेला में उन्होंने ढाई दिन के निर्जल उपवास के बाद दिव्य वस्त्र धारण कर लिए। वह उस समय बिल्कुल अकेले थे। अपने केस लूंछित कर अर्थात तोड़कर, अपना घर छोड़कर वह सन्यासी हो गए थे। जैन खुद अपनी मुट्ठियों से अपने बाल का लुंचन करते हैं। महावीर और जैन परंपरा की शिक्षाएं 20वीं सदी के भारत में तब राजनीतिक रूप से और भी महत्वपूर्ण हो गई थी जब महात्मा गांधी ने इतिहास के शक्तिशाली ब्रिटिश राज को हटाने के लिए अहिंसा का प्रयोग किया। गांधी जी ने जैन धर्म के सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान की भावना का बेहद आदर करते थे।

महावीर के पवित्र उपदेश संपूर्ण भारत में विशेषकर पश्चिमी भारत के गुजरात ,राजस्थान में और दक्षिण भारत में अधिक संख्या में लोगों ने जैन धर्म अपनाया। कर्नाटक के श्रावण बेलगोला में आपको सबसे प्रसिद्ध जैन तीर्थ मिलेगा एक विशालकाय प्रतिमा जो एक पर्वत की चोटी को काटकर गढी गई है बाहुबली। जैन परंपरा के अनुसार बाहुबली या गोमट पहले तीर्थंकर के पुत्र थे।

17 मीटर ऊंची और 8 मीटर चौड़ी यह प्रतिमा एक चट्टान से बनी है जो विश्व की सबसे विशाल मानव निर्मित प्रतिमा है। जैन प्रतिमाओं में सहज रूप से तप की अंतिम अवस्था को दर्शाता है। कठोर जैन निरामिष भोजन में न केवल मांस और अंडों का सेवन निषेध है बल्कि कंद मूल भी वर्जित है शायद इसीलिए कि उन्हें उखाड़ने से जमीन के अंदर आसपास के पौधों और छोटे जीव जंतुओं को कष्ट पहुंचता है। जैन समुदाय आज अपनी व्यावहारिक कुशलता और व्यावसायिक नैतिकता के लिए जाना जाता है। आज वह देश के सबसे धनी अल्पसंख्यक समुदाय में से एक है।

जैन धर्म द्वारा ही सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था की जटिलता और कर्मकांड की बुराइयों को रोकने के लिए महावीर स्वामी द्वारा सकारात्मक प्रयास किए गए। संस्कृत के स्थान पर आम जन की भाषा प्रकृति में उपदेश दिए जैन धार्मिक ग्रंथ अर्धमगधी भाषा में लिखे गए। जैन धर्म द्वारा प्राकृत भाषा के प्रयोग के कारण इस भाषा का विकास हुआ तथा साहित्य समृद्धि हुआ। जैन परंपरा के अनुसार हर्यक वंशी उदयन जैन धर्म का अनुयाई था। चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म को मानते थे। उन्होने भद्रबाहु के साथ दक्षिण में श्रावण बेलगोला, वर्तमान कर्नाटक में प्रवास किया तथा जैन निर्वाण विधि संलेखना द्वारा प्राण त्याग किया। पहले सादी में उज्जैन और मथुरा जैन धर्म के प्रमुख केंद्र थे।

महावीर स्वामी के अहिंसा पर अत्यधिक बल देने के कारण उनके अनुयाई कृषि तथा युद्ध में संलग्न न होकर व्यापार एवं वाणिज्य को महत्व देते थे। जिससे व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति हुई तथा नगरों की संपन्नता बढी। महावीर स्वामी के सीधे एवं सरल उपदेशों ने सामान्य जन मानस को आकर्षित किया तथा उत्तर वैदिक कालीन कर्मकांडीय जटिल विचारधारा के सम्मुख जैन धर्म के रूप में जीवन यापन का सीधा-साधा मार्ग प्रस्तुत किया।

महावीर स्वामी के उपदेश हमें जीवो पर दया करने की शिक्षा देते हैं उन्होंने मानव समाज को एक ऐसा मार्ग बताया जो सत्य और अहिंसा पर आधारित है और जिस पर चलकर मनुष्य आज भी बिना किसी को कष्ट दिए हुए मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

- ऋचा सिंह

उत्तर प्रदेश- बेसिक शिक्षा परिषद में शिक्षिका है।

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