पहले ही कई प्रकार के रावण थे, इस साल कोरोना रूपी रावण भी आ गया
विजयादशमी देश की सांस्कृतिक एकता और अखण्डता को जोड़ने का पर्व भी है। देश के अलग-अलग भागों में वहां की संस्कृति के अनुरूप यह पर्व मनाया जाता है, इस पर्व के माध्यम से सभी का स्वर एवं उद्देश्य यही होता है कि बुराई का नाश किया जाये।
दशहरा बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक पर्व है, कोरोना महामारी से पैदा हुए संकट से संघर्ष एवं उस पर विजय पाने का भी यह अवसर है। आज कोरोना जैसे अंधेरों से संघर्ष करने के लिये इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है। प्रश्न है कौन इस संस्कृति को सुरक्षा दे ? कौन आदर्शों के अभ्युदय की अगवानी करे ? कौन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना में अपना पहला नाम लिखवाये ? बहुत कठिन है यह बुराइयों से संघर्ष करने का सफर। बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना। आखिर कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से, जब घर आंगन में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हों, चाहे पर्यावरण को विध्वंस करने वाले रावण हों या आम इंसान को जीवन को संकटग्रस्त करने वाले कोरोनारूपी रावण हो, चाहे भ्रष्टाचार के रूप में हो, चाहे राजनीतिक अपराधीकरण के रूप में, चाहे साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वालों के रूप में हो, चाहे चीन-पाकिस्तान जैसे पड़ोसी राष्ट्रों के द्वारा लगातार सीमाओें पर युद्ध जैसी स्थितियां पैदा करने वाले रावण हो, चाहे शिक्षा, चिकित्सा एवं न्याय को व्यापार बनाने वालों के रूप में ? हमें जीने के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार कोरोना जैसी विकट स्थिति रूपी जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। इन तरह-तरह के रावणों को पराजित करने, उनका जलाना जरूरी हो गया है, तभी जीवन में संतुलन एवं शांति स्थापित हो सकेगी।
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विजयादशमी-दशहरा आश्विन शुक्ल दशमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। लंका के असुर राजा रावण पर भगवान राम की जीत को दर्शाता है दशहरा। भगवान राम सच्चाई के प्रतीक हैं और रावण बुराई की शक्ति का। इसलिए दशहरा बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य और अंधकार पर प्रकाश का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पर्व है। इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले खुली जगह में जलाए जाते हैं। दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। यह देश की सांस्कृतिक एकता और अखण्डता को जोड़ने का पर्व भी है। देश के अलग-अलग भागों में वहां की संस्कृति के अनुरूप यह पर्व मनाया जाता है, इस पर्व के माध्यम से सभी का स्वर एवं उद्देश्य यही होता है कि बुराई का नाश किया जाये और अच्छाई को प्रोत्साहन दिया जाये। नवरात्रि के बाद दशहरा का अंतिम यानी दसवां दिन है विजयादशमी, जिसका मतलब है कि आपने तमस, रजस या सत्व तीनों ही गुणों को जीत लिया है, उन पर विजय पा ली है। आप इन तीनों गुणों से होकर गुजरे, तीनों को देखा, तीनों में भागीदारी की, लेकिन आप इन तीनों में से किसी से भी, किसी भी तरह जुड़े या बंधे नहीं, आपने इन पर विजय पा ली। यही विजयादशमी है, आपकी विजय का दिन और इस वर्ष यह पर्व कोरोना जैसी महामारी पर विजय का भी पर्व बनकर प्रस्तुत होगी और इस दिन जलने वाले रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के साथ ही कोरोना के प्रकोप एवं संकट का भी दहन हो जायेगा।
दशहरा शक्ति की साधना, कर्म एवं पूजा का भी पर्व होता है, इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। आज दशहरा का पर्व मनाते हुए सबसे बड़ी जरूरत भीतर के रावण को जलाने की है। क्योंकि ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे बढ़े आगे जब शुरूआत में ही लगने लगे कि जो काम मैं अब तक नहीं कर सका, भला दूसरों को भी हम कैसे करने दें? कितना बौना चिन्तन है आदमी के मन का कि मैं तो बुरा हूं ही पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने। इस बौने चिन्तन के रावण को जलाना जरूरी है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे। आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भयावह रूप ले रही है, कोरोना महामारी कहर बनकर बरपी है।
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दशहरे पर स्वयं के पापों को धोने के साथ-साथ जरूरत जन-जन के मनों को भी मांजने की है। जरूरत उन अंधेरी गलियों को बुहारने की है ताकि बाद में आने वाली पीढ़ी कभी अपने लक्ष्य से न भटक जाये। जरूरत है सत्य की तलाश शुरू करने की जहां न तर्क हो, न सन्देह हो, न जल्दबाजी हो, न ऊहापोह हो, न स्वार्थों का सौदा हो और न दिमागी बैशाखियों का सहारा हो। वहां हम स्वयं सत्य खोजें। मनुष्य मनुष्य को जोड़े। दशहरा एक चुनौती बनना चाहिए उन लोगों के लिये जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, हताश, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं पर अपनी दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवनशैली की शुरूआत का संकल्प नहीं स्वीकारते। दशहरा का पर्व जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण एवं उत्सवप्रियता का पर्व है। जीवन के हर पहलू के प्रति एक उत्सव और उमंग का नजरिया रखना और उसे उत्सव की तरह मनाना सबसे महत्वपूर्ण है। जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाए, लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाए- बिल्कुल एक खेल की तरह। अज्ञान मिटे, इस बात का प्रयत्न बहुत जरूरी है। आदमी बुराई को बुराई समझते हुए भी करता है, बार-बार करता है। यह एक समस्या है। छोटी-मोटी बुराई तो अनजाने में हो जाती है, किन्तु बड़ी बुराई कभी अनजाने में नहीं होती। बड़ी बुराई आदमी जानबूझ कर करता है। इस दुनिया में हर बड़ा पाप जानबूझ कर किया जा रहा है। कोरोना जैसा महापाप भी जानबूझ किया गया है। आप रास्ते पर चल रहे हैं। पैरों के नीचे दबकर चींटी मर जाए तो यह अनजाने में हुआ पाप है। किन्तु किसी का गला तो अनजाने में नहीं काटा जा सकता, समूची दुनिया का जीवन तो अनजाने में संकट में नहीं डाला सकता। उसे तो बहुत सोच-समझकर योजनाबद्ध ढंग से किया गया है। हम जानते हुए भी बुराई क्यों कर रहे हैं- इस बात का उत्तर खोजा जाना चाहिए और शायद इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए ही दशहरा जैसे पर्व मनाये जाते हैं।
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)
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