घुटती सांसों से कम होती औसत आयु की चिन्ता
राजधानी समेत कई अन्य राज्यों में मेट्रो ट्रेन शुरू होने के बाद प्रदूषण में काफी कमी आई है। इस दिशा में हमें दीर्घकालीन नीतियों के बारे में सोचना होगा। हमारी कोशिश हो कि घनी आबादी के बीच चलायी जा रही औद्योगिक इकाइयों को शहरों से दूर स्थापित किया जाए।
वायु प्रदूषण का संकट भारत की राष्ट्रव्यापी समस्या है। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की हाल ही में जारी रिपोर्ट इस चिन्ता को बढ़ाती है जिसमें कहा गया कि वायु प्रदूषण के चलते भारत में जीवन प्रत्याशा में गिरावट आ रही है। जिसमें फेफड़ों को नुकसान पहुंचाने वाले पी.एम. 2.5 कण की बड़ी भूमिका है। रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक मानकों से कहीं अधिक प्रदूषण भारत में लोगों की औसत आयु तीन से पांच वर्ष एवं दिल्ली में दस से बाहर वर्ष कम कर रहा है। बहरहाल प्रदूषण के खिलाफ योजनाबद्ध ढंग से मुहिम छेड़ने की जरूरत है। अध्ययन कहता है कि देश की एक अरब से अधिक आबादी ऐसी जगहों पर रहती है जहां प्रदूषण डब्ल्यूएचओ के मानकों से कहीं अधिक है। दरअसल, देश के बड़े शहर आबादी के बोझ से त्रस्त हैं। बढ़ती आबादी के लिये रोजगार बढ़ाने व अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए जो औद्योगिक इकाइयां लगायी गई, उनकी भी प्रदूषण बढ़ाने में भूमिका रही है। डीजल-पेट्रोल के निजी वाहनों को बढ़ता काफिला, निर्माण कार्यों में लापरवाही, कचरे का निस्तारण न होना और जीवाश्म ईंधन ने प्रदूषण बढ़ाया है। यह बढता वायु प्रदूषण हमारी जीवन शैली से उपजे प्रदूषण की देन भी है।
यह निराशाजनक खबरों के बीच उत्साहवर्धक खबर यह भी है कि भारत में सूक्ष्म कणों से पैदा होने वाले जानलेवा प्रदूषण में गिरावट आई है। लेकिन अभी जीवन प्रत्याशा घटाने वाले प्रदूषण को लेकर जारी लड़ाई खत्म नहीं हुई है। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ‘वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक-2024’ बताती है कि भारत में साल 2021 की तुलना में 2022 के वायु प्रदूषण में 19.3 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, यह उपलब्धि मौजूदा हालात में बहुत बड़ी तो नहीं कही जा सकती है, लेकिन यह बात उत्साहवर्धक है कि प्रत्येक भारतीय की जीवन प्रत्याशा में इक्यावन दिन की वृद्धि हुई है। हालांकि, हम अभी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं, लेकिन एक विश्वास जगा है कि युद्ध स्तर पर प्रयासों से भयावह प्रदूषण के खिलाफ किसी हद तक जंग जीती भी जा सकती है। लेकिन इसके साथ ही सूचकांक-2024 में यह चेताया भी है कि यदि भारत में डब्ल्यूएचओ के वार्षिक पीएम 2.5 के सांद्रता मानक के लक्ष्य पूरे नहीं होते तो भारतीयों की जीवन प्रत्याशा में करीब साढ़े तीन साल की कमी आने की आशंका पैदा हो सकती है। पीएम 2.5 श्वसन प्रणाली में गहराई तक प्रवेश कर सकता है और सांस संबंधी समस्याओं को जन्म देता है। यह स्वास्थ्य को एक बड़ा खतरा है और वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारक है।
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हालांकि, राजधानी समेत कई अन्य राज्यों में मेट्रो ट्रेन शुरू होने के बाद प्रदूषण में काफी कमी आई है। इस दिशा में हमें दीर्घकालीन नीतियों के बारे में सोचना होगा। हमारी कोशिश हो कि घनी आबादी के बीच चलायी जा रही औद्योगिक इकाइयों को शहरों से दूर स्थापित किया जाए। हमारे उद्यमियों को भी जिम्मेदार नागरिक के रूप में प्रदूषण नियंत्रण में योगदान देना चाहिए। नीति-नियंताओं को सोचना चाहिए कि प्रदूषण में अप्रत्याशित वृद्धि के बाद दिल्ली आदि महानगरों में चलाये जाने वाले ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान यानी ग्रेप जैसी व्यवस्था को नियमित रूप से लागू क्यों नहीं किया जा सकता? ताजा कुछ अध्ययनों में बताया गया है कि बढ़ता प्रदूषण नवजात शिशुओं तथा बच्चों की जीवन प्रत्याशा पर बुरा प्रभाव डाल रहा है। ऐसे में हमें पराली के निस्तारण, औद्योगिक कचरे के नियमन तथा कार्बन उत्सर्जन करने वाले ईंधन पर रोक लगाने जैसे फौरी उपाय तुरंत करने चाहिए। ऐसे तमाम प्रदूषण स्रोतों को नियंत्रित करने की जरूरत है जो हमारे जीवन पर संकट पैदा कर रहे हैं।
अध्ययन कहता है कि भारत के सबसे कम प्रदूषित शहर भी डब्ल्यूएचओ के निर्धारित मानकों से सात गुना अधिक प्रदूषित हैं। हम न भूलें कि देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की गिनती लगातार दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में होती रही है। दीवाली के बाद जब दिल्ली गहरे प्रदूषण के आगोश में होती है तो कोर्ट से लेकर सरकार तक अति सक्रियता दर्शाते हैं। लेकिन थोड़ी स्थिति सामान्य होने पर परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’। कभी पेट्रोल-डीजल के नये मानक तय होते हैं तो कभी जीवाश्म ईंधन पर रोक लगती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 2019 में प्रदूषण कम करने को राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम देश के सौ से अधिक शहरों में शुरू किया था। चार साल बाद पता चला कि किसी भी शहर ने अपने लक्ष्य को पूरा नहीं किया। विकासशील देश पहले ही निर्धारित वायु गुणवत्ता के मानक पूरा नहीं कर पा रहे हैं, वहीं डब्ल्यूएचओ ने मानकों को और कठोर बना दिया है। सभी सरकारों व नागरिकों का दायित्व बनता है कि अपने-अपने स्तर पर प्रदूषण को कम करने वाली जीवन शैली अपनाएं। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पूरी दुनिया में सत्तर लाख मौतें हर साल प्रदूषित वायु के चलते हो रही हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत के राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक के अनुसार हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 के वार्षिक स्तर की सुरक्षित सीमा क्रमशः चालीस माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और साठ माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर होनी चाहिए। हालांकि, ये मानक विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के अनुसार निर्धारित मानकों से कहीं ज्यादा हैं। दरअसल, हमारे नीति-नियंता प्रदूषण कम करने के लिये नागरिकों को जागरूक करने में भी विफल रहे हैं। हमारी सुख-सुविधा की लालसा एवं भौतिकतावादी जीवनशैली की चमक ने भी वायु प्रदूषण बढ़ाया है। अब चाहे गाहे-बगाहे होने वाली आतिशबाजी हो, प्रतिबंध के बावजूद पराली जलाना हो, या फिर सार्वजनिक परिवहन सेवा से परहेज हो, तमाम कारण प्रदूषण बढ़ाने वाले हैं। कल्पना कीजिए बच्चों और दमा, एलर्जी व अन्य सांस के रोगों से जूझने वाले लोगों पर इस प्रदूषण का कितना घातक असर होगा?
रिपोर्ट में उल्लेखित प्रदूषण में आई गिरावट की वजह अनुकूल मौसम संबंधी परिस्थितियां बतायी गई हैं। हालांकि, हकीकत यह भी है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिये चलायी जा रही कई योजनाओं के सकारात्मक परिणामों का भी इसमें योगदान रहा है। खासकर भारत सरकार द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत जिन शहरों को शामिल किया गया था, वहां भी पीएम-2.5 सांद्रता में गिरावट देखी गई है। वहीं स्वच्छ ईंधन कार्यक्रम का सकारात्मक प्रभाव प्रदूषण नियंत्रण पर नजर आया है। इससे भारत के रिहाइशी इलाकों में कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद मिली है। ऐसी योजनाओं को पूरे देश में लागू करने का सुझाव भी दिया गया है। बहरहाल, हमें वर्ष 2022 के उत्साहजनक परिणामों के सामने आने के बाद व्यापक लक्ष्यों के प्रति उदासीन नहीं होना है। यह एक लंबी लड़ाई है और इसमें सरकार व समाज की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि सरकारों के भरोसे ही लगातार गहराते पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण किया जा सकता है।
निश्चित ही वायु प्रदूषण से उत्पन्न दमघोटू माहौल का संकट जीवन का संकट बनता जा रहा हैं। वायु प्रदूषण का ऐसा विकराल जाल है जिसमें मनुष्य सहित सारे जीव-जंतु फंसकर छटपटा रहे हैं, जीवन सांसों पर छाये संकट से जूझ रहे हैं। यह समस्या साल-दर-साल गंभीर होती जा रही है। सरकारें अनेक लुभावने तर्क एवं तथ्य देकर समस्या को कमतर दिखाने की कोशिशें करती है। लेकिन हकीकत यही है कि लोगों का दम घुट रहा है। अगर वे सचमुच इससे पार पाने को लेकर गंभीर हैं, तो वह व्यावहारिक धरातल पर दिखना चाहिए। प्रश्न है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रहे राष्ट्र को कोई समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती? वास्तव में यह विभिन्न राज्य सरकारों का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है, जिसने सबको जहरीले वायुमंडल में रहने को विवश किया है। इस विषम एवं ज्वलंत समस्या से मुक्ति के लिये हर राजनीतिक दल एवं सरकारों को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा। प्रदूषण से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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