किसानों के शांतिपूर्ण विद्रोह का प्रतीक बना हुआ है चंपारण सत्याग्रह
चंपारण में पहुंचते ही गांधीजी का जातिवाद से उनका सामना हुआ। गांधीजी ने उस दौरान गांवों की निरक्षरता, अज्ञान, अस्वच्छता, गरीबी दूर करने के लिए अपने सहकारियों को लेकर भितहरवा, बड़हरवा और मधुबन इन तीन गांवों में आश्रम की स्थापना की जहाँ पाठशाला भी थी।
इस अप्रैल में चंपारण के किसान आंदोलन को 105 वर्ष पूर्ण हुए। खेती के कोर्पोरेटाइजेशन या कंपनीकरण और शोषण की संगठित लूट के खिलाफ चले आंदोलन की कई मांगों की जड़ें चंपारण तक पहुंची मिलेंगी। इसके पहले विद्रोह हुए थे परंतु इस तरह का संगठित नियोजनपूर्ण प्रयास नहीं हुआ था। ये एक सदी पहले किसानों का पहला संगठित शांतिपूर्ण अहिंसात्मक आंदोलन था। गांधीजी 175 दिन बिहार के चंपारण में रुक कर आंदोलन चलाते रहे। बदले में चंपारण ने इसे गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने वाला पहला आंदोलन बना दिया।
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चम्पारण जिले में बड़े बड़े जमींदार हुआ करते थे। तीन चौथाई से अधिक जमीन केवल तीन बड़े मालिकों और जागीरदारों की थी। चंपारण मे इन जागीरदारों के नाम थे बेतिया जागीर (राज), रामनगर जागीर (राज) और मधुबन जागीर (राज)। पहले रास्ता आदि नहीं था इसलिए अच्छी व्यवस्था बनाने के लिए ठेकेदारों को गाँव दिए गए। जिनका मूल काम मालगुजारी वसूल करके जागीरदारों को देना था। १७९३ के पहले कुछ ठेकेदार देसी हुआ करते थे, बाद में अंग्रेज भी इसमें आ गए। जिनका सम्बन्ध गन्ना और नील के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से था। उन्होंने बेतिया राज की तरफ से ठेका लेना शुरू कर दिया। समय के साथ देशी ठेकेदारों की जगह ब्रिटिश ठेकदारों ने ले ली। उनका प्रभाव बढ़ता चला गया। १८७५ के बाद कुछ अंग्रेज जिल्ह्याच्या उत्तर पश्चिमी भाग में जाकर बस गए और इस तरह सम्पूर्ण चम्पारण में अंग्रेजों की कोठियां स्थापित हो गईं। गांधीजी जब चंपारण गए तब अंग्रेजों की 70 कोठियाँ स्थापित हो चुकी थीं।
तीनकठिया खेती अंग्रेज मालिकों द्वारा बिहार के चंपारण जिले के रैयतों (किसानों) पर नील की खेती के लिए जबरन लागू तीन तरीकों मे एक था। खेती का अन्य दो तरीका 'कुरतौली' और 'कुश्की' कहलाता था। तीनकठिया खेती में प्रति बीघा (20 कट्ठा) तीन कट्ठा जोत पर मतलब 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था। 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए 5 कट्ठा खेत तय किया गया था जो 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया। इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे। 1867 से चंपारण मे तीनकठिया तरीके से जमीन पर नील लगाने की जबर्दस्ती की प्रथा प्रचलित थी। नील लगाने का क़रारनामा बनता जिसे सट्टा कहा जाता। इस करार के अनुसार किसानों को उनकी जमीन के निश्चित हिस्से में नील लगाना पड़ता था। वह जमीन कौन-सी होगी ये नीलवाले जिन्हें कोठीवाले भी कहा जाता था वो तय करते थे। किसानों को न चाहते हुए भी अच्छी उपजाऊ जमीन नील के लिए देनी पड़ती। बीज कोठीवाले देते और बुआई-जुताई किसानों को करनी पड़ती। फसल को कारखाने तक लाने तक का बैलगाड़ी का खर्च कोठीवाले करते थे, जो करारनामे में तय पैसे में काट लिया जाता। फसल अच्छी हुई तो दर्ज की गई रकम दी जाती थी और नहीं हुई तो उसका कारण जो भी हो उसकी कीमत ठीक नहीं मिलती थी। अगर किसानों ने करार को तोड़कर नील लगाया तो उनसे एक बड़ी रकम भरपाई के रूप में वसूल की जाती। किसानों को दूसरे फायदेमंद खेती के बजाए नील की खेती ही करनी पड़ती थी और उसके लिए अपनी सबसे उपजाऊ जमीन देनी पड़ती थी। खेती अगर घाटे में गई तो कोठीवालों की अग्रिम राशि वापस कर पाना किसानों के लिए कठिन हो जाता था। उनके ऊपर कर्ज का पहाड़ बढ़ जाता। उन्हें मारपीट और अत्याचार किए जाते। नील के अधीन क्षेत्र का विस्तार बढ़ता गया। क्षेत्रफल पर आधारित कीमत का बाजार के उतार-चढ़ाव और वजन से कोई लेना देना नहीं था। ऐसे मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत थी लेकिन इसमें ज्यादातर फैसला रैयतों के विरुद्ध हुआ करता था।
1912 के आसपास जर्मनी का कृत्रिम रंग नील बाजार में आने के कारण नील का भाव एकदम गिर गया और जबर्दस्त घाटा होने लगा। नील से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए शरहबेशी, हरजा, हुंडा, तावान आदि नामों से नियम बना कर आदि अलग अलग नामों से जबर्दस्ती कर वसूली शुरू कर दी। 30,710 अनपढ़ निर्धन किसानों के करारनामों का पंजीकरण करके उन पर तब लागू 12.5 प्रतिशत की जगह 60 प्रतिशत कर वसूला जाने लगा इसे शरहबेशी कहा जाता था। किसानों को नील लगाने के बंधन से छुटकारा देने पर जो भारी भरकम कर वसूला जाता उसे हरजा कहा जाता। नील की जगह दूसरी धान या अन्य फसल लेने पर वो नाममात्र कीमत पर कोठीवालों को ही अनिवार्य तौर पर बेचनी पड़ती। इसे हुंडा कहा जाता। रैयतों को खेती में काम करने पर मजदूरी जहां अन्य जगह 4-5 आना मिलती वहीं कोठियों की खेती पर 2-3 पैसा ही मिलती। नील बोने से मुक्ति के लिए नुकसान भरपाई के रूप में 'तावान' नाम से पैसे वसूलने का नियम बना। उस जमाने में मोतीहारी कोठी ने 3,20,00, जल्हा कोठी ने 26,000, भेलवा कोठी ने 1,20,000 रुपये किसानों से वसूले। जो नहीं दे सके उनकी जमीने और घर जब्त कर लिए गए। कइयों को गाँव छोडकर भागना पड़ता। बहिष्कृत कर दिया जाता। कहीं कहीं किसानों को नंगा कर उन पर कीचड़ फेंका जाता, उन्हें सूर्य की तरफ देखते रहने की सजा दी जाती। महिलाओं को नंगा करके पेड़ से बांध दिया जाता था। कोठीवाले खुद को कलेक्टर से भी बड़ा समझते। गाँव के मृत जानवरों की खाल, खेतों के पेड़, सब पर कोठीवाले हक जमाकर कब्जे में कर लेते। कोठीवालों के चमड़े का ठेका लेने के कारण चर्मकार भी बेकार हो गए और किसान चर्मकार संबंध खत्म हो गए। घर में दीवार बनाने, बकरी खरीदने, पशु बिक्री करने, पर्व त्यौहारों, सब में कोठी तक हिस्सा पहुंचाना पड़ता।
1857 के बंगाल प्रांत में सरकार ने नीलवालों को सहायक दंडाधिकारी बना दिया गया। इससे किसानों में असंतोष और शोषण और बढ़ गया। लोग मीलों नील की खेती छोड़ने के आवेदन लेकर खड़े रहते। कई जगह किसानों के साथ हिंसा हुई। इस विद्रोह के नेता हरिश्चंद्र मुखर्जी थे जिनके लगातार आंदोलनों से बंगाल में इस पर रोक लग गई। लेकिन बिहार में ये रोक लागू नहीं हुई। वहाँ धीरे-धीरे असंतोष ने विद्रोह का रूप धर लिया। 1908 में शेख गुलाम और उनके सहयोगी शीतल राय ने बेतिया की यात्राओं में सरकार के खिलाफ जोरदार प्रचार शुरू कर दिया और मलहिया, परसा, बैरिया और कुडिया जैसे इलाकों में विद्रोह फैल गया। कई विद्रोही किसानों को जेल और दूसरी तरह की सजाएँ और जुर्माने हुए।
पश्चिम चंपारण के सतवरिया निवासी पंडित राजकुमार शुक्ल अपनी जेब से पैसा खर्च कर थाना और कोर्ट में रैयतों की मदद किया करते थे। मोतिहारी के वकील गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, कचहरी का कातिब पीर मोहम्मद मुनिस, संत राउत, शीतल राय और शेख गुलाब जैसे लोग हमदर्द बन गए। वह कानपुर गए और ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी को किसानों का दुखड़ा सुनाया। विद्यार्थीजी ने 4 जनवरी 1915 को प्रताप में ‘चंपारण में अंधेरा’ नाम से एक लेख प्रकाशित किया। विद्यार्थीजी ने शुक्लजी को गांधीजी से मिलने की सलाह दी। तब शुक्लजी साबरमती आश्रम गए लेकिन गांधीजी पुणे गए हुए थे। इसलिए उन दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई। लखनऊ में 26 से 30 दिसंबर 1916 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 31वां वार्षिक अधिवेशन था। बिहार से बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे। उसमें भाग लेने के लिए चंपारण से ब्रजकिशोर, रामदयाल साह, गोरख बाबू, हरिवंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनीश, संत रावत और राजकुमार शुक्ल भी गए। उनका मकसद चंपारण के किसानों पर होने वाले अत्याचारों की जानकारी काँग्रेस के नेताओं तक पहुंचाना था। वहां पहुंचते ही लोकमान्य तिलक से इस विषय पर बात की, लेकिन लोकमान्य तिलक ने काँग्रेस का मुख्य उद्देश्य स्वराज होने के कारण इस पर ध्यान देनें में असमर्थता व्यक्त की। मदन मोहन मालवीय जी से मिलने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय के काम में व्यस्त होने के चलते गांधीजी के पास उन्हें भेज दिया। गांधीजी ने बड़े गौर से उनकी बातें सुनीं और आने का आश्वासन दिया। चम्पारण के किसानों के शोषण पर सम्मेलन में प्रस्ताव रखा गया जिसे पहली बार कांग्रेस में जमा अभिजन मध्यमवर्गीय, उच्च शिक्षित लोग सुन रहे थे।
कुछ दिनों बाद वे चंपारण के लिए निकले। लेकिन पटना पहुंचते ही गांधीजी को जिले से बाहर जाने की सरकारी नोटिस थमा दी गयी। महात्मा गांधी ने वापस जाने से इंकार कर दिया तो उन पर सरकारी आदेश की नाफरमानी का मुकदमा चलाया गया। गांधीजी ने गिरफ्तार होने की सम्भवना देखते हुए अपने कई सहकारियों को आंदोलन जारी रखने के लिए बुला लिया था। उनको गिरफ्तार कर लिया गया। 18 अप्रैल 1917 की सुबह गांधीजी कोर्ट में दाखिल हुए। वहाँ उन्होंने उनके लिखित बयान में कहा कि उनका उद्देश्य इस मामले में सभी पक्षों से जानकारी लेना है और इससे कानून व्यवस्था के बिगड़ने का कोई सवाल नहीं उठता। उन्होंने खुद को कानून का पालन करने वाला बताया लेकिन किसानों के प्रश्नों पर काम करना कर्तव्य बताते हुए उन्होंने कानून की बजाए कर्तव्य पालन करने की बात की। अपराध मान्य करते हुए उन्होंने जमानत देने से मना कर दिया। 18 अप्रैल को मोतिहारी जिला अदालत में मजिस्ट्रेट जॉर्ज चंदर ने गांधीजी को 100 रुपये की सुरक्षा राशि का भुगतान करने का आदेश दिया जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जज और कोर्ट में उपस्थित लोग स्तब्ध थे और सजा का ऐलान कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया। उनकी रिहाई की मांग को लेकर हजारों लोगों ने विरोध किया और अदालत के बाहर रैलियाँ निकलीं। बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस मामले को वापस ले लिया। तीसरे दिन सरकार से सूचना मिली कि गांधीजी पर से धारा 144 हटा ली गई है। उच्चाधिकारियों को आदेश मिला कि वे उनकी पूरी सहायता करें।
उसके बाद गांधीजी गाँवों का दौरा करने लगे। लोकरिया, सिंधाछपरा, मुरलीभरवा, बेलवा आदि गांवों में मीलों पैदल चलकर ग्रामीणों की व्यथा सुनी। कोठीवालों द्वारा नष्ट किये गए घरों और खेतों को देखा। गांधीजी को मिलने वाले समर्थन से कोठीवाले घबराने लगे थे। उन्होंने 20 से 25 हजार आवेदन अपने सहकारियों की मदद से दिन-रात लिख कर तैयार किये। इन सहकारियों में डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी थे। गांधीजी की हिंदी अच्छी न होने के कारण सारा कामकाज अंग्रेजी में ही हो रहा था।
चंपारण में पहुंचते ही वहाँ जातिवाद से उनका सामना हुआ। गांधीजी ने उस दौरान गांवों की निरक्षरता, अज्ञान, अस्वच्छता, गरीबी दूर करने के लिए अपने सहकारियों को लेकर भितहरवा, बड़हरवा और मधुबन इन तीन गांवों में आश्रम की स्थापना की जहाँ पाठशाला भी थी। प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम और डॉक्टरों का बंदोबस्त किया। भारत सेवक समाज की तरफ से डॉ. देव 6 महीने चम्पारण रुके। लोग गंदगी हटाने को तैयार नहीं थे तो उन्होंने स्वयंसेवकों के साथ मिलकर गांव के रस्ते साफ किये, घरों से कूड़ा फेंका, कुंएं के आसपास के गड्ढे भरे। पर्दाप्रथा के कारण लड़कियों का स्कूल आना नहीं होता तो उनके लिए अलग स्कूल खोला गया जिसमें 7 से 25 साल की 40 लड़कियां-महिलाएँ पढ़नें आतीं। उन्हें पहली बार इतना स्वातंत्र्य मिला था। महिलाओं को बाल धोने, साफ कपड़े पहनने, घर स्वच्छ रखने की बात समझाई जाती। ये सब आसान नहीं था, उनको मजाक, तिरस्कार, बेपरवाई जैसी कई बातों का सामना करना पड़ा। स्वयंसेवकों ने खुद ही बिहारी भाषा सीखी।
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गांधीजी ने प्रांतीय गवर्नर गेट और बिहार प्रान्त परिषद के सदस्यों से 3 दिनों तक भेंट की और किसानों के असंतोष की गंभीरता से अवगत कराया। गेट ने सरकारी अधिकारियों, कानूनविद, विधान परिषद में बगवालों के प्रतिनिधि, किसानों के प्रतिनिधि और स्वयं गांधीजी को लेकर एक जांच समिति गठित की। उस समय के सरकार समर्थित पायोनियर, स्टेट्समैन, इंग्लिश मैन आदि समाचारपत्रों और यूरोपियन एसोसिएशन ने समिति में गांधीजी के सदस्य होने पर आपत्ति जताई।
समिति का काम बेतिया में शुरू हुआ। बड़े पैमाने पर भीड़ जमना शुरू हो गयी। समिति के पास 20 से 25 साल पहले घटी हुई ज्यादतियों के भी आवेदन आए। समिति ने कोठीवालों का भी आवेदन लिया। तीन-कठिया प्रथा, शरहबेशी और तावान के अन्याय को दूर करना मुख्य विषय थे। शरहबेशी से जुड़े मामलों में अगर मुकदमा करना पड़ता तो 50 हजार मुकदमे दायर करने पड़ते। इनमें अगर कोठीवाले हारते तो उच्च न्यायालय गए बिना नहीं रहते। इसलिए सामंजस्य से इसे सुलझाना जरूरी था। गांधीजी ने 40 प्रतिशत कटौती की मांग रखी और न मानने पर 55 प्रतिशत कटौती की मांग करने की धमकी देकर दबाव बनाया और मोतिहारी और अपने व्यवहार कौशल्य से पिपरा कोठी के शरहबेशी में क्रमानुसार 26 और तुरकौलिया कोठी में 20 प्रतिशत की कटौती पर राजी कर लिया। गांधीजी के सामंजस्यपूर्ण कार्यपद्धति से समिति के अध्यक्ष स्लाइ प्रभावित हुए और उनके प्रशंसक बन गए। 3 अक्टूबर 1917 को समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें तीन कठिया पद्धति दोषपूर्ण होने की बात मानते हुए उसे रद्द करने की और उसके लिए कानून बनाने की सिफारिश की गई थी। नील के लिए कौन-सी जमीन देनी हैए तय करने का अधिकार किसान को और नील कीमत क्षेत्रफल के बजाए वजन के आधार पर देने की सिफारिश की गई। करार की अनिश्चित कालावधि को अल्पावधि की सीमा निर्धारित की गई और न्यूनतम कीमत का निर्धारण बागवालों का संघ कमिश्नर की अनुमति और सहमति से निर्धारित करने की बात लिखी गयी। तावान के अंतर्गत वसूल रकम का कुछ हिस्सा किसानों को वापस करने, बढ़ाने पर रोक और ज्यादा वसूली करने पर दंडित करने का प्रावधान बनाया गया। चमड़े की मिल्कियत और उपयोग का निर्णय मृत जानवर के मालिक को देना तय हुआ। न्यूनतम मजदूरी की दर बागवालों का संघ निश्चित करे और वही दर मजदूरों को दी जाए। सरकार का आदेश किसानों को देशी भाषा में देने की भी सिफारिश की गई।
तीन दिनों बाद ही विधानमंडल में इस रिपोर्ट पर चर्चा हुई और इसे सामान्यतः स्वीकार करके तत्काल कानून बनाने का निर्णय लिया गया। गांधीजी के कारण ग्रामीणों में जो निर्भयता आई थी उससे अब वो नीलवालों के विरुद्ध लड़ने को तैयार हो गए थे। चम्पारण खेती बिल प्रस्तुत हुआ और चम्पारण खेती कानून 4 मार्च 1918 को पारित किया गया। 18 कोठियों द्वारा वसूल किये गए तावान का 8,60,301 रुपया किसानों को वापस किया गया। करार की कालावधि अधिकतम 3 वर्ष निर्धारित हुई। कीमत नील के वजन पर निर्धारित की जाने लगी। नया कानून बनने से नीलवालों और कोठियों का रुबाब उतर गया। कई नीलवालों ने पहले महायुद्ध के बाद बढ़ी महंगाई का लाभ उठाते हुए अपनी जमीन, कोठी और माल बेचकर लाभ कमाया और किसानों ने राहत की सांस ली।
तब गांधीजी 48 वर्ष के थे। चंपारण-सत्याग्रह के पहले गांधी दक्षिण अफ्रीका में बीस वर्षों तक वहां की गोरी सरकार की रंगभेद-नीति के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष करके अपने सत्याग्रह-अस्त्र का सफल प्रयोग कर चुके थे। तब तक उनका विश्वास सरकार की न्यायबुद्धि पर था। गांधीजी मध्यमवर्गीय सहकारी ग्रामीण निरक्षर और निम्न जाति के किसानों से जुड़े। यह सत्याग्रह देश के स्वतंत्रता संघर्ष के अहिंसात्मक स्वरूप की शुरुआत थी। यह किसान आंदोलन के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है और कृषि के कंपनीकरण द्वारा किसानों के शोषण के स्वरूप, आंदोलन और आधे साल तक चले आंदोलन द्वारा मांगें मनवाने का प्रेरणा स्तम्भ भी है। केवल आर्थिक मांगों तक यह सीमित नहीं रखा गया। इस दौरान जातिवाद, ग्राम स्वच्छता, स्कूल, प्रौढ़ व स्त्री शिक्षा जैसे कई सामाजिक सुधार प्रयास भी हुए जिनसे लोग आंदोलन से जुड़े। यह आज भी राजनीतिक पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक अभ्यास का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए।
- कल्पना पांडे
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