विपक्ष पर दबाव का अरविंद केजरीवाल का आतिशी दांव
अरविंद केजरीवाल साहस के कदम एवं चतुराई की आंख लेकर परम्परागत राजनीति की जंजीरों को तोड़कर आगे निकलते रहे हैं। संभावनाएं की जा रही थी कि केजरीवाल आम आदमी पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता को मुख्यमंत्री बना सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्होंने राजनीति में कुछ मौलिक प्रतिस्थापनाएं की है, बने-बनाये रास्तों पर न चलकर नये रास्ते इजाद किये हैं। वे संकटों को अवसर में बदलने वाले करिश्माई व्यक्तित्व भी हैं। उनकी राजनीति अनेक विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरी रही है, उनके व्यवहार एवं वचनों में विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित होते रहे हैं, लेकिन ये ही विरोधाभास उनकी राजनीतिक चमक का कारण भी बने हैं। क्योंकि राजनीति में सब जायज माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय से सशर्त जमानत मिलने से खुद को बंधा महसूस करते हुए उन्होंने इस्तीफे का धारदार दांव चलाकर राजनीतिक जगत में एक हलचल पैदा कर दी। वहीं पार्टी में संभावनाओं भरे अनेक चेहरों के होने के बावजूद उन्होंने आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, जबकि वह वरिष्ठता क्रम में निचले पायदान पर खड़ी थी, लेकिन केजरीवाल ऐसे चौंकाने वाले फैसले पहले भी लेते रहे हैं। लेकिन इस तरह वे जनादेश का मज़ाक भी बनाते रहे हैं तो संवैधानिक स्थितियों की धता भी करते रहे हैं।
अरविंद केजरीवाल साहस के कदम एवं चतुराई की आंख लेकर परम्परागत राजनीति की जंजीरों को तोड़कर आगे निकलते रहे हैं। संभावनाएं की जा रही थी कि केजरीवाल आम आदमी पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता को मुख्यमंत्री बना सकते हैं। अधिक संभावनाएं उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाये जाने की थी। क्योंकि क्षेत्रीय दलों में किसी राजनीतिक या कानूनी संकट के चलते परिवार के ही किसी सदस्य को सत्ता की बागडोर सौंप देने परंपरा रही है। ताकि स्थितियां सामान्य होने पर फिर मुख्यमंत्री की गद्दी आसानी से वापस ली जा सके। इसके अनेक उदाहरण है, जिनमें बिहार में चारा घोटाले में घिरने के बाद लालू यादव ने पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता की बागडोर सौंपी थी। बहरहाल, केजरीवाल ने जेल से बाहर आते ही अपने तरकश से जो तीर चले हैं, उनकी धार एवं तीक्ष्णता को महसूस किया जा सकता है। इन तीरों से हरियाणा व जम्मू कश्मीर चुनाव समेत अन्य राष्ट्रीय मुद्दों में उलझी भाजपा व कांग्रेस पर केजरीवाल ने मनोवैज्ञानिक राजनीतिक दबाव तो बना ही दिया है। हरियाणा में स्वतंत्र चुनाव लड़ने का निर्णय लेकर उन्होंने सत्ता के गठन में स्वयं को एक ताकतवर मोहरे के रूप में प्रस्तुत करने का चतुराई भरा खेल भी खेला है। दिल्ली में भी उन्होंने अपनी निस्तेज होती स्थितियों को मजबूती दी है।
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दरअसल, केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन के योद्धा के रूप में वर्ष 2014 के इस्तीफे के दांव की तरह 2015 में आम आदमी पार्टी को मिली भारी जीत का अध्याय दोहरा देना चाहते हैं। लेकिन इस बार की स्थितियां खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होने से खासी चुनौतीपूर्ण व जोखिमभरी हैं। निस्संदेह, यह दांव मुश्किल भी पैदा कर सकता है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। भले ही केजरीवाल अपने को, समय को पहचानने वाला साबित कर रहे हो, लेकिन वे अपने देश को, अपने पैरों की जमीन को एवं राजनीतिक मूल्यों को नहीं पहचान रहे हैं। ‘आप’ की राजनीति नियति भी विसंगति का खेल खेलती रहती है। पहले जेल जाने वालों को कुर्सी मिलती थी, अब कुर्सी वाले वाले जेल जा रहे हैं। यह नियति का व्यंग्य है या सबक? आप के शीर्ष नेताओं के लिये पहले श्रद्धा से सिर झुकता था अब शर्म से सिर झुकता है। कैसे आप की राजनीति इस शर्म के साथ जनता से मुखातिब होगी और जनता क्या जबाव देगी, यह भविष्य के गर्भ में है।
जिन अप्रत्याशित हालात में एवं बहुत कम समय के लिये आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया है, वे बेहद चुनौतीपूर्ण हैं। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के कई उदाहरण हाल के वर्षों में दिखे हैं, लेकिन यह मामला उन सबसे अलग है। पिछले करीब दो साल न केवल आम आदमी पार्टी के लिए बल्कि दिल्ली सरकार के लिए भी इस मायने में चुनौतीपूर्ण रहे कि एक-एक कर उसके कई बड़े नेता और मंत्री जेल भेज दिए गए। दिल्ली का विकास मुफ्त की संस्कृति की भेट चढ़कर विकास को अवरुद्ध किये हुए हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल के जेल जाने के बाद संकट और गहराया। इन संकटपूर्ण हालातों में आतिशी ने पार्टी का प्रभावशाली ढंग से बचाव किया। उन्होंने सौरभ भारद्वाज और अन्य साथियों के साथ मिलकर सड़क से लेकर मीडिया तक आम आदमी पार्टी की जंग लड़ी, उससे कार्यकर्ताओं में उनकी एक जुझारू छवि बनी है। ऐसे में, उनसे उम्मीदें भी बढ़ गई हैं। क्या अतिशी अपने राजनीतिक कौशल से यह पद पाया है या वे केजरीवाल की राजनीति का एक मोहरा-भर बनी है? उनके हिस्से में यह पद तब आया जब पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं-अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया-ने कह दिया कि वे नए सिरे से जनादेश हासिल करने के बाद ही पद पर बैठेंगे। अगर पार्टी जनादेश हासिल नहीं कर पाती तब तो उन्हें पद छोड़ना ही पड़ेगा, अगर पार्टी चुनाव जीतती है तब भी मुख्यमंत्री पद से उनका हटना लगभग तय है। इन स्थितियों में कांटों भरा ताज पहनकर उनके कामकाज एवं प्रभावी नेतृत्व का क्या औचित्य है?
अतिशी एक वफादार एवं जिम्मेदार नेता के रूप में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही है। पार्टी के लिये उनके समर्पण एवं अटूट निष्ठा की मुद्रा विधायक दल की नेता चुने जाने के वक्त भी सामने आयी, जब आतिशी ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वह सिर्फ अगले चुनाव तक पदभार संभाल रही हैं, पार्टी के भीतर किसी नए केंद्र की आशंका को तिरोहित करना तो है ही, कहीं न कहीं यह वरिष्ठ नेताओं की आहत महत्वाकांक्षाओं पर मरहम रखना भी है। आतिशी का यह पहला कार्यकाल है, और किसी गैर-राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि की महिला का पांच साल के भीतर यूं मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंचने का यह विरल उदाहरण भी है। अतिशी दिल्ली जैसे सुबे की मुखिया बनी हैं, जिस दिल्ली ने सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित जैसी दिग्गज महिला नेताओं का शासन देखा है। कुल मिलाकर, दिल्ली में शुरू हुए आप के इस नए प्रयोग और उसके नतीजों पर सबकी नजरें होंगी।
अरविंद केजरीवाल ने महाराष्ट्र और झारखंड के साथ ही दिल्ली विधानसभा का भी चुनाव कराने की मांग की है, उनकी यह मांग अस्वीकृत हो गयी है, फिर भी अगले साल फरवरी के पहले पखवाड़े तक दिल्ली में चुनाव कराने होंगे। केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा सोची-समझी रणनीति के तहत ही दिया है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव को अपनी ईमानदारी के जनमत संग्रह के रूप में दर्शा सकें। उनका मकसद भाजपा सरकार द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के आरोपों का मुकाबला करने तथा खुद को राजनीतिक प्रतिशोध के शिकार के रूप में दिखा जनता की सहानुभूति अर्जित करना भी है। लेकिन इस तरह की राजनीतिक चतुराई में अगर कोई आधार नहीं होता, कोई तथ्य नहीं होता, कोई सच्चाई नहीं होती तो दूसरों के लिए खोदे गए खड्डों में स्वयं एक दिन गिर जाने की स्थिति बन जाती है। कुछ लोग इस प्रकार से प्राप्त जीत की खुशी मनाते हैं, कुछ इस प्रकार की हार की खुशी मनाते हैं, जो कभी जीत से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि गलत तरीकों से प्राप्त जीत से सिद्धांतों पर अडिग रहकर हारना सम्मानजनक होता है। निस्संदेह, जनता से ईमानदारी का प्रमाण पत्र हासिल करने की योजना उनकी दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा जान पड़ती है।
केजरीवाल को अतिशी रूपी दांव से ज्यादा लाभ शराब घोटाले में नाम आने व गिरफ्तारी के बाद तुरंत इस्तीफा दे देते तो मिलता। ऐसे में, आतिशी के पास अपनी शासकीय छाप छोड़ने के साथ आप की राजनीतिक विरासत को अक्षुण्ण रखने की बड़ी जिम्मेदारी है। दिल्ली में निश्चित रूप से उसकी लड़ाई भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी अपनी जमीन बचाने की होगी। दिल्ली के नागरिकों की अपेक्षाओ पर खरा उतरने के साथ-साथ पार्टी की चुनावी नैया पार लगाने की चुनौती तो है ही। जाहिर है, आम आदमी पार्टी उनसे यही अपेक्षा करेगी कि आगामी विधानसभा चुनाव में जीत का आलेख लिखे।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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