क्या लोकसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन भाजपा के लिये चुनौती बन पायेगा?

India Alliance
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ललित गर्ग । Feb 27 2024 11:45AM

सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन हो रहे हैं इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। प्रजातंत्र में टकराव होता है।

अंधेरों एवं निराशा के गर्त में जा चुके एवं लगभग बिखर चुके इंडिया गठबंधन के लिए कुछ अच्छी खबरों ने जहां उसमें नये उत्साह का संचार किया है वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिये चिन्ता के कारण उत्पन्न किये हैं। पहले उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी से सीट बंटवारे पर बनी सहमति ने टूट की कगार पर पहुंचे इंडिया गठबंधन में वर्ष 2024 के आम चुनावों को लेकर संभावनाभरी तस्वीर को प्रस्तुत किया है। अब ये चुनाव दिलचस्प होने के साथ कुछ सीटों पर कांटे की टक्कर वाले होंगे। इन नये बन रहे चुनावी समीकरणों के बावजूद भाजपा के लिये अभी कोई बड़ा संकट नहीं दिख रहा है। भले ही इंडिया गठबंधन डींगे हांके कि वह भाजपा एवं उसके गठबंधन के लिए कड़ी चुनौती पेश करने की स्थिति आ गयी है। भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों का जब गठबंधन बना तभी यह आशंका की गयी कि यह कितनी दूर चल पायेगा, टिक पायेगा भी या नहीं? कुछ हालात तो ऐसे भी बने कि इसके तार-तार होने की संभावनाएं बलवती हुईं। भले ही अब कुछ सीटों पर दलों के बीच सहमति बनी हो लेकिन अभी कई महीने निकल जाने के बाद भी विधिवत रूप से इंडिया गठबंधन के संयोजक का नाम घोषित नहीं हो पाना अनेक सन्देहों एवं अटकलों का कारण बना हुआ है।

सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन हो रहे हैं इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। प्रजातंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। लेकिन अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बड़े रूप में देखने को मिल रहा है। राजनीति नफा-नुकसान का खेल बन रहा है, मूल्य बिखर रहे हैं। चारों ओर सत्ता की भूख बिखरी है। पिछले कुछ समय से इंडिया गठबंधन को एक के बाद एक कई झटके लगे। पहले तो कांग्रेस ने ही पिछले साल दिसंबर के विधानसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद में गठबंधन से जुड़ी बातचीत को ठंडे बस्ते में डाले रखा। बातचीत शुरू भी हुई तो नेताओं में न तो पहले जैसा जोश दिखा और न वैसी राजनीतिक जिजीविषा महसूस हुई। फिर गठबंधन के प्रस्ताव पर सबसे बढ़-चढ़कर काम करने वाले नीतीश कुमार ही उसे छोड़ गए। यूपी में रालोद के जयंत चौधरी भी इंडिया गठबंधन का हाथ थामते-थामते एनडीए में शामिल हो गए।

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इंडिया गठबंधन एवं कांग्रेस ने अनेक झटके झेले। छोटे-बड़े नेताओं के कांग्रेस छोड़ने का सिलसिला भी तेज हुआ। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का नाम खास तौर पर चर्चित रहा। इसे चाहे इन नेताओं का व्यक्तिगत अवसरवाद कहें या भाजपा और एनडीए नेतृत्व की सक्रियता एवं राजनीतिक कौशल इतना तय है कि इन नेताओं को कांग्रेस का भविष्य खास अच्छा नहीं दिख रहा। आम आदमी पार्टी एवं समाजवादी पार्टी जैसे दल अपनी साख बचाने एवं सत्ता के करीब बने रहने के लिये सीटों के बंटवारे पर सहमत हुए हैं, उसमें कांग्रेस का घुटने टेकना भी उसकी टूटती सांसों को बचाने की जद्दोजहद ही कहीं जायेगी। कांग्रेस एवं अन्य दलों के बीच सहमति के स्वर उभरने से आगामी लोकसभा चुनाव में अच्छा मुकाबला दिख सकता है। लेकिन अहम सवाल तो यही है कि क्या गठबंधन की गाड़ी आगे और हिचकोले नहीं खाएगी? क्या यह दावा पूरी दृढ़ता से किया जा सकता है?

अरविन्द ने कांग्रेस से सीटों पर सहमति बनाकर पलटूराम ही बने हैं। जी-भरकर एक-दूसरे को कोसने वाले जब हाथ मिलाएं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। देखा जाये तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच चुनावी गठबंधन होना मूल्यहीनता एवं सिद्धान्तहीनता की चरम पराकाष्ठा है क्योंकि कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ लड़ कर और आंदोलन खड़ा करके ही आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब की सत्ता से कांग्रेस को बाहर किया और अपनी स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई। आम आदमी पार्टी के चमत्कारिक प्रदर्शन के चलते ही गुजरात में कांग्रेस ने अब तक का सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया। आम आदमी पार्टी ने गोवा में भी कांग्रेस को काफी नुकसान पहुँचाया और हरियाणा में भी अपने संगठन का आधार बढ़ाया। ताजा कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी की सहमति से कांग्रेस को ही नुकसान होना है। केजरीवाल की बजाय ममता बनर्जी ने अलग छाप छोड़ी है। उसने बंगाल में कांग्रेस के लिए उनकी मौजूदा दो लोकसभा सीटों को ही छोड़ने की बात कह कर कांग्रेस के अधिक सीटों पर दावा करने के कारण स्वतंत्र चुनाव लड़ने की घोषणा कर गठबंधन को धराशायी किया। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल ही नहीं, बल्कि त्रिपुरा, असम और गोवा में भी स्वतंत्र चुनाव लड़ने की बात कह रही हैं, जिससे कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में निराशा ही हाथ लगेगी।

इंडिया गठबंधन के नये बन रहे सकारात्मक परिदृश्यों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सेहत पर कोई असर न झलकना उनकी राजनीतिक परिपक्वता की परिचायक है। 2024 के चुनावों में भाजपा के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 सीटों का लक्ष्य तय करने के मोदी के लक्ष्य के सामने अभी भी कोई बड़ी चुनौती दिख नहीं रही है। इन बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भाजपा एवं मोदी अपनी सीटें कहां से बढ़ा सकेंगे, इसके लिये भाजपा दोतरफा रणनीति पर काम कर रही है। पहली है, दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाना। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा पहले ही उत्तर-पश्चिम के कई राज्यों में चरम पर पहुंच चुकी है। दूसरी रणनीति है पुराने सहयोगियों को एनडीए में वापस लाने और नए सहयोगियों को जोड़ने की, जिसमें वह अब तक काफी हद तक सफल भी रही है। जदयू एनडीए के साथ फिर से आ गई है, रालोद भी एनडीए में लौट आई है, पंजाब में अकाली दल को वापस लाने के प्रयास जारी हैं और तेदेपा के साथ बातचीत अंतिम चरण में है। कुछ और पार्टियां एनडीए में शामिल हो सकती हैं। लेकिन एनडीए के विस्तार भर से भाजपा को 2024 में 370 सीटें नहीं मिलने वालीं। अभी उसे काफी जोड़-तोड़ करने होंगे।

गौरतलब है कि अमित शाह ने तमिलनाडु की कमान संभाल ली है और पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख के. अन्नामलै को काम करने की खुली छूट दे दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी तमिलनाडु का दौरा किया है, जिसे दक्षिण में भाजपा के चुनावी अभियान की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। केन्द्रीय मंत्रियों को बड़ी जिम्मेदारी के साथ सक्रिय किया गया है। भाजपा दक्षिण के राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है। राम मंदिर का उत्साह निश्चित रूप से उत्तर भारतीय हिंदी पट्टी के राज्यों में अधिक है, लेकिन दक्षिण भी भाजपा को कुछ चुनावी लाभ दे सकता है। याद रहे कि भाजपा ने पहले ही दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए मतदाता-पहुंच कार्यक्रम शुरू कर दिया है। तेलंगाना और केरल आदि दक्षिण के राज्यों पर भाजपा विशेष बल दे रहा है, वहां भी इस बार अच्छा प्रदर्शन होने की संभावना है। भाजपा के राजनीतिक समीकरणों एवं रणनीतियों के चलते स्वतंत्र भारत का सबसे दिलचस्प चुनाव में अपने तय लक्ष्यों के अनुरूप ऐतिहासिक जीत को हासिल कर लें तो कोई आश्चर्य नहीं है। 

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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