मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या जमीयत...दोनों हमेशा एक जैसा राग क्यों अलापते हैं?
एक तरफ जमीयत के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी यह स्वीकार कर रहे हैं कि पूरी दुनिया में हिंदुस्तान मुस्लिमों के लिए सबसे सुरक्षित देश है तो दूसरी ओर वह मांग कर रहे हैं कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा भड़काने वालों को विशेष रूप से दंडित करने के लिए एक अलग कानून बनाया जाए।
आजकल धर्म पर शिक्षा देने और हमारा धर्म तुम्हारे धर्म से ज्यादा महान है या हमारा धर्म दुनिया में सबसे पुराना है, जैसे दावे करने का रिवाज-सा चल पड़ा है। पिछले सप्ताह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक हुई और इस सप्ताह जमीयत उलेमा-ए-हिंद की बैठक हुई। इन दोनों ही बैठकों में जो प्रस्ताव पास किये गये या सरकार से जो मांगें की गयीं वह लगभग समान हैं। ऐसा लगता है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए मुस्लिम संगठनों ने तय कर लिया है कि इससे पहले कि सरकार संशोधित नागरिकता कानून के नियम बनाये उससे पहले ही इस कानून का विरोध तेज कर दो, ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को इस बात का आभास हो गया है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता ला सकती है इसलिए इसका विरोध भी तेज किया जा रहा है, एक पक्ष की ओर से सनातन धर्म को ही राष्ट्रीय धर्म बताया गया तो इसका अर्थ धार्मिक कोण से निकालते हुए दूसरा पक्ष दावा कर रहा है कि इस्लाम धर्म सभी धर्मों में सबसे पुराना है।
हैरत इस बात की है कि एक तरफ जमीयत के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी यह स्वीकार कर रहे हैं कि पूरी दुनिया में हिंदुस्तान मुस्लिमों के लिए सबसे सुरक्षित देश है तो दूसरी ओर वह मांग कर रहे हैं कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा भड़काने वालों को विशेष रूप से दंडित करने के लिए एक अलग कानून बनाया जाए। ऐसी मांगें करने से पहले ध्यान रखना चाहिए कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यदि भारत में कानून किसी खास धर्म को संरक्षण देने के लिए बनने लगे तो अराजकता की स्थिति हो जायेगी। वैसे भी हिंसा भड़काने वाले लोगों से निबटने और उन्हें न्याय के कठघरे तक लाने के लिए बहुत-से कानून हैं इसीलिए इस प्रकार की माँग का कोई औचित्य नहीं है, साथ ही इस तरह की माँगें दर्शाती हैं कि देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति को कमतर दिखाने के प्रयास हो रहे हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या जमीयत उलेमा-ए-हिंद...यह लोग मजहब के नाम पर बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन आम गरीब मुस्लिमों के हितों के लिए इन्होंने आज तक कुछ नहीं किया। इन संगठनों से जुड़े नेताओं ने हमेशा अपना सियासी कद बढ़ाकर राजनीतिक रुतबा हासिल किया और आम मुसलमान को राजनीतिक पार्टियों के वोट बैंक के रूप में बदल दिया। आम मुसलमान को ना पढ़ने-लिखने दिया ना ही आगे बढ़ने दिया। अधिकतर मुस्लिम नेताओं के बच्चे तो विदेशों में तालीम हासिल करते हैं लेकिन आम मुस्लिमों को यह मदरसों में अपने बच्चे पढ़ाने के लिए कहते हैं ताकि जो नई युवा पीढ़ी आये वह भी इन नेताओं की बातों को ही सच मानकर बहक जाये। आज देश में गिने-चुने मुस्लिम नेता हैं तो यह सिर्फ इसलिए है कि अधिकतर मुस्लिम नेताओं ने अपने समाज से नेतृत्व को उभरने ही नहीं दिया, जिसके हाथ में सत्ता आई उसने इसे अपने परिवार तक ही सीमित रखा।
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आज जब पूरी दुनिया इतनी आगे बढ़ रही है ऐसे में इन नेताओं से सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्यों यह लोग असम में बच्चियों से विवाह के खिलाफ चल रहे अभियान का विरोध कर रहे हैं? संविधान जब सबको बराबरी का अधिकार देता है तो क्यों यह लोग समान नागरिक संहिता के जरिये बराबरी की जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं हैं? आज के विज्ञान के युग में क्यों स्कूलों में हिजाब पहन कर जाने की ही जिद की जाती है? आज जब देश के बेटे-बेटियां कंधे से कंधा मिलाकर आगे चल रहे हैं तब क्यों लड़कों और लड़कियों के लिए अलग स्कूलों की मांग की जाती है?
बहरहाल, समय आ गया है कि हमें यह फैसला करना होगा कि हमें आगे जाना या पीछे। यदि कोई अपने समाज को पीछे ले जाना चाहता है तो उस समाज के लोगों की जिम्मेदारी है कि अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए वह ऐसे नेताओं का बहिष्कार करे। यदि हम सिर्फ धार्मिक मुद्दों में ही उलझे रहे और रूढ़िवाद में पड़े रहे तो दूसरे आगे निकल जायेंगे और हम देखते रह जाएंगे। यहां सवाल यह भी उठता है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या जमीयत उलेमा-ए-हिंद या इनके जैसे ही अन्य संगठन...यह सभी हर अवसर पर लगभग एक समान राग क्यों अलापते हैं?
-गौतम मोरारका
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