कांग्रेस मुक्त अभियान उलटा पड़ रहा है, भाजपा ही साफ होती जा रही है

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एक के बाद एक प्रदेशों में लगातार सत्ता गंवाती भारतीय जनता पार्टी को आगे यदि फिर से प्रदेशों में सरकार बनानी है तो उसे अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा। प्रदेशों के नेताओं की मनमानी रोकनी होगी।

झारखंड भी भाजपा के हाथ से निकल चुका है। झारखंड में भाजपा की हार का मुख्य कारण मुख्यमंत्री रघुबर दास को माना गया है। चूंकि झारखंड एक आदिवासी बहुल आबादी वाला प्रदेश है। वहां की जनता किसी आदीवासी समाज के नेता को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देखना चाहती है। भाजपा ने वहां पिछड़े वर्ग के रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाया था। इसलिये आदिवासी मतदाता भाजपा से दूर होते गये। आदिवासी फैक्टर के चलते ही झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासी प्रभाव वाली 28 में से भाजपा को मात्र दो सीटों पर ही जीत मिल पायी है। प्रदेश के आधे जिलों में तो भाजपा का खाता भी नहीं खुल पाया है।

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भाजपा ने झारखंड में आदिवासी वोट बैंक साधने के लिए ऐसे नेताओं को आगे नहीं किया जिनकी आदिवासी वोटों पर अच्छी पकड़ हो। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के भाजपा छोड़ने के बाद अर्जुन मुंडा भाजपा का मुख्य आदिवासी चेहरा रहे हैं। लेकिन अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी आदिवासी वोटों पर अपनी पूरी पकड़ नहीं बना पायी।

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झारखंड में भाजपा की हार का बड़ा कारण मुख्यमंत्री रघुबर दास का अक्खड़ स्वभाव व पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करना भी रहा है। रघुबर दास सरकार में वरिष्ठ मंत्री सरयू राय, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी, सरकारी मुख्य सचेतक राधाकृष्ण किशोर जैसे अन्य कई वरिष्ठ नेताओं के टिकट काटने से भी पार्टी कैडर में गलत संदेश गया। ऊपर से दलबदलुओं को टिकट दिया गया। इसी कारण दो को छोड़ कर भाजपा के सभी दलबदलू नेता चुनाव हार गये। दलबदलुओं को टिकट देने से भाजपा को आंतरिक बगावत का सामना करना पड़ा। भाजपा के पचास से अधिक नेताओं ने पार्टी से बगावत कर चुनाव लड़ा जिससे पार्टी को 18 सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा।

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मुख्यमंत्री रघुबर दास को अपने ही मंत्रीमंडल सहयोगी सरयू राय के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा, विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव को भी हार का सामना करना पड़ा है। इससे झारखंड में भाजपा की स्थिति बहुत शर्मनाक हो गई है। विशेषकर मुख्यमंत्री की हार ने भाजपा को झकझोर कर रख दिया है। ऐन चुनाव से पूर्व आजसू से भी गठबंधन टूटना भाजपा के लिये नुकसान दायक रहा। भाजपा से गठबंधन टूटने से आजसू को भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा व उसके विधायकों की संख्या पांच से घटकर दो ही रह गयी मगर आजसू को मिले वोट प्रतिशत में खासी बढ़ोत्तरी हुयी है। 2014 के विधानसभा चुनाव में आजसू को 3.68 प्रतिशत मत मिले थे वहीं इस बार के चुनाव में बढ़ कर 8.02 प्रतिशत तक पहुंच गये। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि भाजपा का आजसू से पूर्ववत गठबंधन बना रहता तो दोनों ही दलों के विधायकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो सकती थी। मगर मुख्यमंत्री अपने सहयोगी आजसू को भी साधने में असफल रहे।

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वोटों की दृष्टि से देखा जाए तो झारखंड में भाजपा को सबसे अधिक 33.40 प्रतिशत वोट मिले हैं। जबकि कांग्रेस को 13.85 प्रतिशत, झारखंड मुक्ति मोर्चा को 18.80 प्रतिशत, आजसू को 8.02 प्रतिशत, राजद को 2.75 प्रतिशत, झारखंड विकास मोर्चा को 5.45 प्रतिशत, आप को 0.23 प्रतिशत, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को 1.16 प्रतिशत, बीएसपी को 1.53 प्रतिशत, जनता दल यूनाइटेड को 0.73 प्रतिशत, एनसीपी को 0.42 प्रतिशत और लोक जनशक्ति पार्टी को 0.1 प्रतिशत मत मिले। झारखंड में भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ा और उसे 33.40 प्रतिशत मत मिले। वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल ने चुनाव पूर्व गठबंधन कर चुनाव लड़ा और उस गठबंधन को 35.35 प्रतिशत मत मिले। जो भाजपा से 1.98 प्रतिशत ही ज्यादा होते हैं। मात्र दो प्रतिशत वोटों के अंतर से भाजपा गठबंधन से 22 सीटें पीछे रह गयी।

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झारखंड में 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 35.16 प्रतिशत, कांग्रेस को 13.90 प्रतिशत, झारखंड मुक्ति मोर्चा को 20.93 प्रतिशत, आजसू को 3.68 प्रतिशत मत मिले थे। इस तरह देखें तो 2014 की तुलना में 2019 में आजसू को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों के मतों के प्रतिशत में गिरावट आई है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का आजसू के साथ गठबंधन था। तब भारतीय जनता पार्टी को 14 में से 11 सीटों पर व आजसू को एक सीट पर जीत मिली थी।

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2019 के लोकसभा चुनाव में अकेले भाजपा को 50.96 प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेस को 15.63 प्रतिशत, झारखंड मुक्ति मोर्चा को 11.51 प्रतिशत व आजसू को 4.35 प्रतिशत मत मिले थे। झारखंड में भाजपा को पिछले चुनाव में 37 सीटें मिली थीं इस बार उसे 12 सीटों का नुकसान हुआ है। आजसू को 5 सीटें मिली थीं उसे 3 सीटों का नुकसान हुआ है। झारखंड विकास मोर्चा को 5 सीटों का नुकसान हुआ है। वहीं कांग्रेस को 10 व झारखंड मुक्ति मोर्चा को 11 सीटों का लाभ हुआ है।

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झारखंड विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार ने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है। कुछ दिनों पूर्व महाराष्ट्र में भाजपा के हाथ आयी सत्ता महज इसलिये फिसल गई थी कि शिवसेना को देवेन्द्र फड़नवीस का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। भाजपा वहां हर हाल में फड़नवीस को ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी। महाराष्ट्र मराठा प्रभाव वाला राज्य है। भाजपा ने पूरे पांच साल वहां गैर मराठा देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनाये रखा जिसे प्रदेश के मराठा वोटरों ने स्वीकार नहीं किया फलस्वरूप शिवसेना के विश्वासघात से सरकार नहीं बन पायी।

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हरियाणा में तो भाजपा जननायक जनता पार्टी के दुष्यंत चौटाला को मिलाकर सरकार बनाने में जरूर कामयाब रही मगर वहां भी भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले सात सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था। जाटों के प्रभाव वाले हरियाणा में भाजपा ने पंजाबी बिरादरी के मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया तो जाट मतदाता भाजपा से दूर होते गये। हरियाणा में जाटों की नाराजगी के चलते भाजपा के सभी बड़े जाट नेता चुनाव हार गये थे।

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एक के बाद एक प्रदेशों में लगातार सत्ता गंवाती भाजपा को आगे यदि फिर से प्रदेशों में सरकार बनानी है तो उसे अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा। प्रदेशों के नेताओं की मनमानी रोकनी होगी। हाल ही में उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्य पद्धति से से नाराज होकर भाजपा के सौ से अधिक विधायक समाजवादी पार्टी के साथ खड़े नजर आये थे जिससे सरकार की काफी किरकिरी हुयी थी। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को उत्तर प्रदेश के विधायकों की नाराजगी के कारणों को पता लगाकर उसे अविलम्ब दूर करना चाहिये व मुख्यमंत्री को भी ताकीद करना चाहिये कि आगे से पार्टी विधायकों की अनदेखी ना हो व उन्हें उचित सम्मान मिले।

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भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि प्रदेशों में साफ छवि के ऐसे नेताओं को आगे लाना चाहिये जो आमजन से घुल मिलकर काम कर सकें। सभी पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ सकें। भाजपा को बाहर से दल बदल कर आने वाले नेताओं को भी टिकट देने पर रोक लगानी चाहिए। क्योंकि दलबदल कर आने वाले लोगों को टिकट देने से भाजपा के जो मूल कैडर है उनमें असंतोष व्याप्त होता है। कई स्थानों पर भाजपा के पुराने नेता बगावत कर चुनाव लड़ते हैं जिससे पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ता है।

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नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को काम करने की पूरी आजादी दी जिसका फायदा उठाकर वहां के मुख्यमंत्री प्रादेशिक क्षत्रप बन गए और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करने लगे। जिनसे उनकी नहीं बनती उनमें से कईयों की टिकट भी कटवा देते हैं। इस कारण कई प्रदेशों के भाजपा कार्यकर्ताओं में वहां के मुख्यमंत्री के प्रति रोष व्याप्त हुआ जिस कारण से भी भारतीय जनता पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ रहा है।

-रमेश सर्राफ धमोरा

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