भाजपा को कश्मीर से ज्यादा राज्य की सत्ता से प्यार हो गया था
कश्मीर के हालात जिस तेजी से बेकाबू होते जा रहे थे, उससे पीडीपी की तो कुछ नहीं पर भाजपा की देश भर में किरकिरी जरूर हो रही थी। देशभक्ति और राष्ट्रवाद के जुमलों पर तंज कसा जाने लगा। भाजपा अपने ही बनाए हुए जाल में उलझने लगी।
भाजपा की सत्ता की भूख जम्मू−कश्मीर मामले में जीभ जलाने वाली साबित हुई। महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी से गठबंधन ही बेमेल था। धुर दक्षिण पंथी सोच वाले राजनीतिक दल का पीडीपी जैसी इस्लामिक सोच रखने वाली पार्टी से सत्ता के लिए तालमेल दोनों की मूल विचाराधारा से भटकाने वाला था। भाजपा ने राष्ट्रवाद का नारा देकर जम्मू की बहुसंख्यक आबादी पर डोरे डालते हुए सत्ता में भागीदारी हासिल की थी। भाजपा विपक्ष में रहते हुए जम्मू−कश्मीर के आतंकवाद को देश की एकता और अखण्डता के लिए खतरा बताते हुए कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को कोसती रही। इसी के फलस्वरूप सत्ता हासिल हो सकी।
विपक्ष में रहते हुए आलोचना करना और सत्ता में आने पर उन्हीं मुद्दों का समाधान तलाशने में जमीन−आसमान का अंतर होता है। भाजपा को अब यह अच्छी तरह समझ में आ गया होगा। जब पाक समर्थित आतंकवाद को जड़मूल से उखाड़ने की बारी आई तो भाजपा बगले झांकने लगी। राष्ट्रीय−अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भाजपा ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान को दोषी ठहराते हुए कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। विश्व समुदाय ने इसे भारत का राजनीतिक आंतरिक मामला मानते हुए ज्यादा ध्यान नहीं दिया। केंद्र सरकार के सीमा पार आतंकियों के कैम्पों पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक की कार्रवाई के बाद पार्टी को लगा अब पाकिस्तान को सबक मिल जाएगा। कश्मीर में आतंकवाद को समर्थन पर लगाम लग जाएगी। राष्ट्रवाद के चश्मे से इसे उपलब्धि बताते हुए भाजपा ने प्रचार−प्रसार करने में कसर बाकी नहीं रखी। भाजपा का यह प्रयास हवाई किला ही साबित हुआ।
राज्यों के विधान सभा चुनावों में भाजपा ने इसे भुनाने में भी पूरा जोर लगाया। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी पाक की नापाक हरकतों में कोई कमी नहीं आई। इसके बाद पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने यह जताने के लिए हमले ओर तेज कर दिए कि इससे उनके मंसूबों में कोई कमी नहीं आई है। सेना के कैम्पों पर हमले किए गए। आंतकियों की खेप बढ़ा दी गई। आतंकियों के विरूद्ध कार्रवाईयों में सुरक्षा बलों को पत्थरबाजों की भीड़ का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान ने भी सर्जिकल स्ट्राइक से चिढ़ कर सीमा पर गोलाबारी तेज कर दी। यह दिखाने के लिए वह भारत से डरता नहीं, बेशक उसके घरेलू राजनीतिक हालात कितने ही अस्थिर क्यों न हों। हालांकि भारत की ओर से इसका मुंहतोड़ जवाब देने में कसर बाकी नहीं रही, किन्तु कश्मीर की समस्या सुलझने के बजाए और उलझ गई।
पीडीपी क्षेत्रीय दल होने के कारण भाजपा के सैन्य ऑपरेशन्स का उस तरह साथ और समर्थन नहीं कर सकी जितना कि भाजपा पैरवी करती रही। दोनों के वोट बैंक में अंतर है। पीडीपी का वोट बैंक कश्मीर तक ही सीमित है और भाजपा का जम्मू तक। भाजपा ने हमले बढ़ाकर और पीडीपी ने लगभग बचाव की मुद्रा में आकर वोट बैंक मजबूत करने का काम किया। पीडीपी ने जीना यहां, मरना यहां की तर्ज पर आतंकियों के अलावा उन्हें संरक्षण देने वालों पत्थरबाजों से भी नरमी बरती। इससे भी हालात में सुधार नहीं हुआ।
स्थानीय संरक्षण से आतंकियों के हमले बढ़ते गए। हालांकि स्थिति को काबू में पाने का दावा करने के लिए भाजपा और केंद्र सरकार मारे गए आतंकियों की संख्या गिनाती रही। कश्मीर में विफलता पर पर्दा डालने के लिए यह आंकड़ा पेश किया जाता रहा कि पिछली सरकारों की तुलना में ज्यादा आतंकवादी मारे गए हैं। इसके बावजूद स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती गई। सैन्य सख्ती से स्थिति नियंत्रण में नहीं आने पर भाजपा ने थक−हार कर दूसरा दांव खेला। रमजान के अवसर पर सैन्य कार्रवाई पर एकतरफा विराम लगा दिया। चूंकि आतंकियों की डोर पाकिस्तान से बंधी है और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठनों के नेता पाक की कठपुतली के अलावा कुछ नहीं हैं, अतः सैन्य कार्रवाई स्थगित करने का दांव भी खाली चला गया।
आतंकवादियों के पाक स्थित आकाओं ने कार्रवाई पर विराम को खारिज कर दिया। पाकिस्तान किसी भी सूरत में कश्मीर में शांति कायम किए जाने के खिलाफ है। इससे पाकिस्तान की सत्ता कमजोर पड़ जाती है। यही वजह रही कि रमजान के दौरान भी आतंकियों ने सुरक्षा बलों और मुखबरी करने वालों पर हमले जारी रखे। ईद के दिन तक हमले होते रहे। पानी सिर से गुजरने की नौबत आने पर रमजान के पूरा होते ही भाजपा वापस सैन्य कार्रवाई करने पर विवश हो गई।
कश्मीर के हालात जिस तेजी से बेकाबू होते जा रहे थे, उससे पीडीपी की तो कुछ नहीं पर भाजपा की देश भर में किरकिरी जरूर हो रही थी। देशभक्ति और राष्ट्रवाद के जुमलों पर तंज कसा जाने लगा। भाजपा अपने ही बनाए हुए जाल में उलझने लगी। इस फजीहत से बचने के लिए अंततः भाजपा के पास पीडीपी से समर्थन वापस लेकर राज्यपाल शासन लागू करने के अलावा कोई दूसरा चारा शेष नहीं रह गया था।
सवाल यह भी है कि आखिरकार भाजपा के रणनीतिकार इसका अंदाजा लगाने में विफल कैसे हो गए कि कश्मीर और शेष देश में राजनीति के पैमाने अलग−अलग हैं। बहुमत नहीं होने पर भी राज्यों में जोड़तोड़ बिठा कर सत्ता हासिल करने का दांव कश्मीर में काम नहीं करेगा। अब पार्टी पीडीपी से अलग होकर बेशक इसका प्रायश्चित करे किन्तु आगामी लोकसभा और विधान सभा चुनावों में मतदाताओं को इसका जवाब देना आसान नहीं होगा कि जोर−शोर से कश्मीर का मुद्दा उठाने वाली भाजपा सत्ता मिलने पर इसका कोई समाधान तलाशने की बजाए बैकफुट पर कैसे आ गई।
-योगेन्द्र योगी
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