चुनाव के बाद केंद्र में कैसी सरकार बनेगी ?
ऐसी स्थिति में हम अगले पांच साल की भारतीय राजनीति को किस दिशा में बढ़ते हुए देख रहे हैं ? जाहिर है कि उक्त पांचों विकल्प हमें निश्चिंतता प्रदान नहीं कर रहे हैं। अगले पांच साल भारतीय लोकतंत्र के लिए अपूर्व लाभकारी भी हो सकते हैं और आपात्काल की तरह या उससे भी ज्यादा खतरनाक भी सिद्ध हो सकते हैं।
इस 17 वें आम चुनाव के बाद किसकी सरकार बनेगी, उसका स्वरुप क्या होगा और देश की राजनीति की दिशा क्या होगी, ये सवाल लोगों के दिमाग में अभी से उठने लगे हैं। मतदान का सातवां दौर 19 मई को खत्म होगा लेकिन विभिन्न पार्टियों के नेताओं ने जोड़-तोड़ की राजनीति अभी से शुरु कर दी है। यह तो सभी को पता है कि 2019 का वक्त 2014 की तरह नहीं है। इस बार न तो कोई लहर है, न कोई नारा है। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए नेता लोग अपनी पार्टी या गठबंधन के बहुमत का दावा जरुर कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता है कि अबकी बार ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।
मुझे कम से कम पांच प्रकार की संभावनाएं दिखाई पड़ रही हैं। पहली संभावना यदि हम यही मानकर चलें कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह का दावा सही निकलेगा याने भाजपा को कम से कम 300 सीटें मिलेंगी तो भी इस नई सरकार के साथ देश की कई छोटी-मोटी पार्टियां गठबंधन करना चाहेंगी। जाहिर है कि स्पष्ट बहुमत और गठबंधन की यह सरकार काफी मजबूत और स्थायी होगी। उसका नेतृत्व भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही करेंगे। इस नई सरकार के नेता तो पुराने ही होंगे लेकिन उनकी नीतियां नई होंगी। इस बार नोटबंदी-जैसे तुगलकी काम नहीं होंगे। विदेश नीति में हर कदम फूंक-फूंककर रखा जाएगा। नेतृत्व अपनी सर्वज्ञता के भुलावे से बचेगा और विशेषज्ञों की राय लेकर नई लकीरें खींचेगा। देश की अर्थनीति, शिक्षा नीति, और स्वास्थ्य नीति में देश के नेता की भूमिका प्रचार मंत्री की नहीं, प्रधानमंत्री की होगी। याने कुछ ठोस काम किए जाएंगे।
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इससे उल्टा भी हो सकता है। प्रचंड बहुमत की सरकार नेताओं के दिमाग को फुला सकती है, जैसा कि 1971 में इंदिराजी की जबर्दस्त विजय के बाद हुआ था। इंदिरा ही इंडिया है, यह नारा चल पड़ा था। ऐसी स्थिति में देश में कोहराम मचे बिना नहीं रहेगा। भारत में अराजकता और हिंसा का एक नया दौर शुरु हो सकता है।
दूसरी संभावना यह है कि भाजपा को 200 से कम सीटें मिलें। ऐसी स्थिति में गठबंधन सरकार खड़ी करने में भाजपा को ज्यादा मुश्किल नहीं होगी, क्योंकि वह तब भी सबसे बड़ी पार्टी होगी। राष्ट्रपति सबसे पहले उसे ही सरकार बनाने का मौका देंगे। वह सबसे अधिक साधन सम्पन्न पार्टी है। सांसदों को अपनी तरफ मिलाने के लिए उसके पास सत्ता और पत्ता, दोनों ही है। हां, भाजपा को विचार करना पड़ सकता है कि उसका नया नेता कौन हो। गठबंधन में आनेवाली पार्टियां और भाजपा के वरिष्ठ नेता भी चाहेंगे कि उनका नया नेता थोड़ा विनम्र हो, विचारशील हो और दूरंदेश हो। भाजपा में ऐसे कई नेता हैं, जिन्हें संघ और भाजपा के अलावा विरोधी दलों में भी पसंद किया जाता है।
तीसरी संभावना यह है कि कांग्रेस पार्टी को 100 के आस-पास या कुछ ज्यादा सीटें मिल जाएं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस सरकार बनाने का दावा पेश करेगी और राष्ट्रपति से कहेगी कि भाजपा से कम सीटें उसे जरुर मिली हैं लेकिन क्योंकि भाजपा को जनता ने नकार दिया है, इसलिए उस बासी कढ़ी को फिर चूल्हे पर चढ़ाने की बजाय कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया जाए। यह राष्ट्रपति के स्वविवेक पर निर्भर होगा कि कांग्रेस को मौका दिया जाए या नहीं। यदि कांग्रेस को मौका मिलता है तो जाहिर है कि उसके पास इस समय प्रधानमंत्री का कोई योग्य उम्मीदवार नहीं है। यदि वह राहुल गांधी को आगे बढ़ाएगी तो प्रांतीय पार्टियों के उम्रदराज नेताओं को यह प्रस्ताव पचेगा नहीं। वैसे कांग्रेस में प्रधानमंत्री के लायक कई नेता हैं। यदि कांग्रेस के समर्थन से कोई अन्य पार्टी के नेता ने सरकार बना ली तो उसकी दशा चौधरी चरणसिंह और एचडी देवगौड़ा की सरकारों की तरह काफी नाजुक बनी रहेगी। विपक्ष की यह सरकार चाहे कांग्रेस के नेतृत्व में बने या किसी अन्य पार्टी के नेतृत्व में, उसमें जबर्दस्त खींचतान चलती रहेगी और वह अल्पजीवी ही होगी।
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चौथी संभावना वह है, जिस पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव काम कर रहे हैं याने नई सरकार ऐसी बने, जो भाजपा और कांग्रेस से मुक्त हो। याने जैसे देवेगौड़ा और गुजराल की अल्पजीवी सरकारें थीं। ऐसी सरकारें आप जोड़-तोड़कर खड़ी तों कर सकते हैं। लेकिन आज वैसी संभावना बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ती। यह तभी संभव है जबकि भाजपा और कांग्रेस, इन दोनों पार्टियों को कुल मिलाकर दो-ढाई सौ सीटें मिलें। गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी दलों को जब तक 300 या उससे ज्यादा सीटें नहीं मिलें, वे सरकार कैसे बना पाएंगे ? उन सभी प्रांतीय दलों के नेताओं के अहंकार को संतुष्ट करना आसान नहीं है और वे अनेक वैचारिक, जातीय और व्यक्तिगत अन्तर्विरोधों से ग्रस्त रहते हैं।
पांचवीं संभावना एक सपने की तरह है। वह यह कि जब किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिले और जनाभिमत टुकड़े-टुकड़े होकर कई पार्टियों में बंट जाए तो सभी पार्टियां मिलकर एक राष्ट्रीय सरकार क्यों नहीं बना लें ? परस्पर विरोधी पार्टियों ने मिलकर यूरोप और भारत के कई प्रांतों में भी ऐसी सरकारें बनाई हैं या नहीं ? वैसी ही सरकार केंद्र में भी क्यों नहीं बनाई जा सकती ? ऐसी सरकार के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा नेताओं का व्यक्तिगत अहंकार तो है ही, उससे भी ज्यादा वर्तमान लोकसभा-चुनाव में उनके बीच चला अशिष्ट और अश्लील वाग्युद्ध है। अब किस मुंह से वे एक ही जाजम पर बैठ सकते हैं ? यह ठीक है कि अब सिद्धांत और विचारधारा का युग बीत चुका है। अब सत्ता ही ब्रह्म है, बाकी सब माया है। इस सत्य के बावजूद सर्वदलीय सरकार बनना असंभव-सा ही है।
यह संभावना मेरे नक्शे में तो है ही नहीं कि 23 मई के बाद भारत में कोई सरकार बन ही नहीं पाएगी और राष्ट्रपति को फिर नए चुनाव का आदेश जारी करना पड़ेगा।
ऐसी स्थिति में हम अगले पांच साल की भारतीय राजनीति को किस दिशा में बढ़ते हुए देख रहे हैं ? जाहिर है कि उक्त पांचों विकल्प हमें निश्चिंतता प्रदान नहीं कर रहे हैं। अगले पांच साल भारतीय लोकतंत्र के लिए अपूर्व लाभकारी भी हो सकते हैं और आपात्काल की तरह या उससे भी ज्यादा खतरनाक भी सिद्ध हो सकते हैं। जो भी हो, इस नाजुक वक्त में जो बात सबसे ज्यादा दिलासा दिलाती है, वह है, जनता की जागरुकता। भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि सरकारों की अस्थिरता और नेताओं के दिग्भ्रम के बावजूद वे हरी ही रहेंगी।
- डॉ वेद प्रताप वैदिक
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