तालिबान की जीत सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र की भी सबसे बड़ी हार है

Taliban
अशोक मधुप । Aug 13 2021 11:30AM

आज संयुक्त राष्ट्र महासभा एक ऐसा संगठन बनकर रह गया है जो कुछ देश के हाथों की कठपुलती है। न अपनी ताकत का प्रयोग कर सकता है ना अपनी क्षमता का। संयुक्त राष्ट्र महासभा के गठन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य विश्व में शांति कायम करना है।

आज अफगानिस्तान जल रहा है। पूरी तरह बरबाद होने के कगार पर है। तालिबानी मदरसे उड़ा रहे हैं। लड़कियों और औरतों का अपहरण कर उनसे अपने लड़ाकों के निकाह करा रहे हैं। स्कूल तोड़े और जलाए जा रहे हैं। अफगानिस्तान और तालिबान के संघर्ष का परिणाम यह है कि सड़कों पर लाशें बिछी हुईं है। कुत्ते और जानवर उन्हें नोच−नोच कर खा रहे हैं। अमेरिका के मददगार के शक में लोगों का कत्ले−आम जारी है। पूरी दुनिया तमाशा देख रही है। ना दुनिया के लंबरदार कहे जाने वाले कहीं नजर आ रहे हैं और ना संयुक्त राष्ट्र महासभा में वीटो पावर रखने वाले देश नजर आ रहे हैं।

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अफगानिस्तान से दुनिया का सबसे बड़ा लंबरदार अमेरिका भाग रहा है। अमेरिका को भागते देख तालिबन के हौसले बुलंद हैं। अमेरिकी सेना की मौजूदगी के समय बंकरों में छिपे रहने वाले तालिबानी लड़ाकों के हौसले बुलंद हैं। अमेरिका के अफगानिस्तान में रहने के दौरान उसके मददगार अफगानियों को तालिबान चुन−चुन कर कत्ल कर रहा है। पत्रकार, कलाकार और साहित्यकारों की हत्याएं हो रही हैं। जनता जान बचाकर भाग रही है। किसी को कोई चिंता नहीं। इतना सब होने के बाद भी अफगानिस्तान की सीमा के सटे दुनिया के दो बड़े लंबरदार चीन और रूस खामोश हैं। अफगानिस्तान एक जंगलराज में तब्दील होकर रह गया है। पूरी दुनिया अफगानिस्तान की बरबादी का तमाशा देख रही है। हालत इतने खराब हैं कि अफगानिस्तान सरकार समर्पण की हालत में पहुंच गई है। वह तालिबान से सरकार में गठबंधन की पेशकश करने लगी है।

आज संयुक्त राष्ट्र महासभा एक ऐसा संगठन बनकर रह गया है जो कुछ देश के हाथों की कठपुलती है। न अपनी ताकत का प्रयोग कर सकता है ना अपनी क्षमता का। संयुक्त राष्ट्र महासभा के गठन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य विश्व में शांति कायम करना है। आज के हालात को देखते हुए लगता है कि अपने सबसे बड़े कार्य का दायित्व निभाने में वह सक्षम नहीं है। म्यांमार में सेना का जुल्म  कायम है। चीन में उइगर मुसलमानों पर जुल्म जग जाहिर हैं। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। सरेआम आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र इन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहा।

अफगानिस्तान में शांति के लिए कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं। क्यों नहीं संयुक्त राष्ट्र अपने नेतृत्व में शांति स्थापित करने के लिए अफगानिस्तान में सभी देशों की सेना भेजता। संयुक्त राष्ट्र संघ तमाशा देख रहा है। अफगानिस्तान जल रहा है। वह बंशी बजा रहा है। इस पर सोचा जाना चाहिए। विचार किया जाना चाहिए। पूरी दुनिया में शांति स्थापना के लिए बना संयुक्त राष्ट्र संघ अब सफेद दांत का हाथी बन कर रह गया। वह सिर्फ दिखाने मात्र को है। संयुक्त राष्ट्र महासभा के गठन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य विश्व में शांति कायम करना है। आज के हालात को देखते हुए लगता है कि अपने सबसे बड़े कार्य का दायित्व निभाने में वह सक्षम नहीं है। तालिबान की गुंडागर्दी पर वह जुबान खोलने को तैयार नहीं। कोरोना से दुनिया में हुई लाखों मौत के सूत्रधार को वह नहीं खोज पाता। दुनिया में शांति स्थापना और निरपराध का कत्ल रोकने की उसकी क्षमता नहीं, फिर ऐसे संयुक्त राष्ट्र की क्या जरूरत है। हर एक को अपनी डफली अपना राग अलापना है तो क्या फायदा। जब ताकत की ही पूजा होनी है तो इस फालतू के बोझ को क्यों झेला जाएॽ अब समय आ गया है कि एक बार फिर से सोचा जाए किस संयुक्त राष्ट्र संघ क्योंॽ इसका क्या लाभॽ क्यों इसका बोझ पूरी दुनिया ढोएॽ कैसे बर्दाश्त किया जाए इसेॽ क्यों कुछ ही देशों के हाथ में वीटो पावर दे कर के उन्हें दुनिया के सामने नंगा नाच नाचने की अनुमति दी जाए।

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आज जरूरत आ गई है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा की उपयोगिता पर विचार किया जाए। इसे उपयोग उपयोगी बनाने पर कार्य किया जाए। खड़ा किया जाए ऐसा ढांचा कि एक देश दूसरे देश का मददगार बने। मुसीबत में उसके साथ खड़े होकर उसकी रक्षा कर सकें। ऐसा नहीं कि आपदा के समय सिर्फ तमाशा देखें। दुनिया के सभी देश बराबर हैं तो पूरी दुनिया के पांच देशों को ही वीटो पावर का अधिकार क्योंॽ इस पर विचार किए जाने की जरूरत है। यह प्रजातंत्र है। संयुक्त राष्ट्र संघ में डिक्टेटरशिप लागू नहीं है जो किसी का निर्णय फाइनल होगा। आज के हालात में सामूहिकता बढ़ाने, सामूहिक निर्णय पर चलने, सामूहिक विकास पर सोचने की जरूरत है। आज एक ऐसे संगठन की दुनिया को जरूरत है जो निष्पक्ष और तटस्थ होकर के पूरी दुनिया में शांति स्थापना के लिए काम कर सके। ऐसे संगठन की जरूरत नहीं है जिसमें चार या पांच दादाओं का ही निर्णय चले।

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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