विदेशी छात्रों को आकर्षित करने से पहले भारतीय छात्रों की समस्याओं का हल निकालें
आइआइटी, एनआइटी और आइआइएसईआर, आइआइएम, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों में भले ही फीस कुछ कम है, लेकिन यहां तक पहुंचने की प्रक्रिया बहुत जटिल एवं प्रतिस्पर्धापूर्ण है।
आजकल की शासन व्यवस्थाएं लोक कल्याणकारी एवं संवेदनशील न होकर आर्थिक एवं राजनीतिक प्रेरित होती जा रही हैं। शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी मूलभूल जरूरतों के लिये भी सरकारों का नजरिया अर्थ-प्रदान होता रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विडम्बना देखिये कि देश के बच्चों को समुचित शिक्षा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं और विदेशी बच्चों को उन्नत शिक्षा देने के लिये व्यापक प्रयत्न किये जा रहे हैं। विदेशी छात्रों के लिए सरकार ने एक नए पोर्टल ‘स्टडी इन इंडिया’ को लॉन्च किया है। इसके जरिए अंतरराष्ट्रीय छात्र-छात्राओं को देश के शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस पोर्टल की शुरुआत करते हुए इसे देश को शिक्षा के क्षेत्र में ब्रांड इंडिया की एक मजबूत अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति स्थापित करने का माध्यम बताया है। निश्चित ही यह भारत की समृद्धि एवं विश्व प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक अनूठा उपक्रम हो सकता है, लेकिन प्रश्न भारतीय छात्रों का है, उनकी शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का है। महंगी होती शिक्षा आम जनजीवन से दूर होती जा रही है, ऐसे में भारतीय छात्रों की सुध कौन लेगा?
‘स्टडी इन इंडिया’ राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 द्वारा निर्देशित है। यह भारत को पसंदीदा शिक्षा गंतव्य बनाने के साथ-साथ समृद्ध भविष्य को आकार देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। लेकिन उच्च शिक्षा के वंचित भारतीय छात्रों के लिये यह किस तरह हितकारी एवं उपयोगी है? ‘स्टडी इन इंडिया’ वेबसाइट पर ग्रेजुएशन (यूजी), पोस्टग्रेजुएशन (पीजी), डॉक्टरेट लेवल के कार्यक्रमों के साथ-साथ योग, आयुर्वेद, शास्त्रीय कला सहित अन्य शैक्षणिक कार्यक्रमों की जानकारी देगा। इसमें शैक्षणिक सुविधाओं, रिसर्च हेल्प से संबंधित जानकारी के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराई जाएगी। लेकिन यह सब विदेशी छात्रों के लिये होगा। देश में शिक्षा के स्तर के सुधार की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के बीच इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि दुनिया के शीर्ष सौ उच्च शिक्षण संस्थानों में भारत से एक भी नाम नहीं है। आज भी सक्षम परिवारों की उच्च शिक्षा के लिए पहली पसंद विदेश के शिक्षण संस्थान बने हुए हैं। फिर किस तरह हम विदेशी छात्रों को आकर्षित करेंगे, अगर आकर्षित कर भी लिया तो क्या वह भारतीय छात्रों के साथ नाइंसाफी नहीं होगा? संसाधनों की कमी और बेहतर शिक्षकों के अभाव से जूझ रही भारत की उच्च शिक्षा ‘स्टडी इन इंडिया’ से क्या हासिल कर लेगी, एक बड़ा सवाल है।
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शिक्षा और चिकित्सा को व्यवसाय बना देने एवं निजी हाथों में सौंप देने से ही दोनों महंगी हुई है, आम आदमी तक उसकी पहुंच जटिल होती गयी है। इस बात पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने चिन्ता जताते हुए कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही हर व्यक्ति की मूलभूत जरूरत है पर दोनों ही महंगी और दुर्लभ हो रही हैं। इसकी वजह जनसंख्या के मुताबिक उपलब्धता की कमी और व्यावसायिकता है।’ जब हम देश के लोगों को ही समुचित शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं तो विदेशों के लिये दरवाजें खोलना एवं उन पर सरकार की बड़ी शक्ति का खर्च होना कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है? एक ऐसे देश में जहां वंचित समूह पहले से ही अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित बनाने के लिए कठिन परीक्षाओं के दौर से गुजर रहा हो, निजी स्कूलों व अस्पतालों की संवेदनहीनता एवं अर्थ लोलुपता से सामाजिक असंतोष एवं विद्रोह के स्वर उभरते रहे हैं। ऐसे हालातों में विदेशी छात्रों को उन्नत शिक्षा देने के अभियान में जुटना सरकार की मंशा पर एक सवालिया निशान है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। 14 अगस्त 2004 को भारत की आजादी के 57वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने भाषण में शिक्षा पर जोर देते हुए कहा था कि ‘भारत अगले 16 वर्षों में विकसित राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है और शिक्षा के बिना यह संभव नहीं है। समृद्धि और विकास के लिए शिक्षा सबसे जरूरी तत्व है। शैक्षिक सुविधाओं तक हर व्यक्ति की पहुंच अत्यंत आवश्यक है। गांवों और गरीब परिवार के लिए शिक्षा आसानी से उपलब्ध नहीं है। भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का छह-सात प्रतिशत तक शिक्षा पर खर्च करना चाहिए।’ सरकारें शिक्षा पर खर्च तो कर रही है, लेकिन उसका लाभ गरीब एवं वंचित वर्ग के लोगों को कितना मिलता है, यह मंथन का विषय है।
शिक्षा पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले राजनेता, शिक्षाविद, अधिकारी और मंत्री भी देश की इन स्थितियों से परिचित हैं। बसों में मूंगफली बेचते हुए, स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, चौराहों पर भुट्टा भूजते हुए, फैक्ट्रियों में बिसलरी की बोतलों में पानी भरते हुए, सड़क के किनारे टाट पर सब्जी बेचते या चाट का ढेला लगाते हुए इन बच्चों को कौन नहीं देखता है। ऐसा इन्हें क्यों करना पड़ता है? यह जानने की कोशिश कितने लोग करते हैं? रिक्शा, ऑटोरिक्शा, बस चलाने वाले ड्राइवरों के पीछे की भी कहानी ऐसी ही होती है। नीति-नियंता लोग अपने निजी ड्राइवर, नौकर या कामवाली बाई की पारिवारिक स्थिति के बारे भी विचार कर लेते तो भी इस तरह की स्थितियों के बारे में बहुत कुछ आसानी से समझ लेते। कहीं-कहीं ये भी देखने को मिलता है कि जिन बच्चों की खिलौनों से खेलने की उम्र होती है वही बच्चे मेला, हाट-बाजार में खिलौना बेचते हुए मिलते हैं। किताबों से तो उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। फिर विकास के सुनहरे सपने उन्हें कैसे दिखाई दे सकता है? इन स्थितियों में कैसे नया भारत-सशक्त भारत आकार ले सकेगा? क्या ‘स्टडी इन इंडिया’ जैसी दूरगामी योजनाएं इन बच्चों के मुंह पर यह करारा तमाचा नहीं है?
आइआइटी, एनआइटी और आइआइएसईआर, आइआइएम, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों में भले ही फीस कुछ कम है, लेकिन यहां तक पहुंचने की प्रक्रिया बहुत जटिल एवं प्रतिस्पर्धापूर्ण है। बच्चे संघर्ष करके वहाँ तक पहुँच जाते हैं और पढ़ाई आसानी से कर लेते हैं। किंतु अब वहां की भी फीस बढ़ाने की कवायद तेजी से होने लगी है। तमाम सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं के शिक्षा महंगी होती जा रही है, तो देश का निम्न एवं मजदूर वर्ग यह सोचने को मजबूर है कि वह अपने बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था कैसे करे। निजी कॉलेजों में तो इतना अधिक पैसा लगता है कि मध्य वर्ग के भी कान खड़े हो जाते हैं, तो फिर निम्न वर्ग की बात ही क्या?
सरकार का असली मकसद तो उच्च शिक्षा को कार्पोरेट घरानों को सौंपना है, विदेशी विश्वविद्यालयों-कॉलेजों को भारत में स्थापित करना है, जिससे उच्च शिक्षा भी सरकार के लिये खर्च करने की बजाय मुनाफा बनाने वाली इंडस्ट्री बन सके। दो सौ साल की गुलामी के बाद जब देश आजाद हुआ तो हमारे सामने कई चुनौतियां और सपने थे। उन चुनौतियों और सपनों को पूरा करने के लिये संविधान को मुख्य आधार बनाया गया। जनता के मुख्य अधिकार शिक्षा पर विशेष बल देने पर जोर दिया गया और माना गया कि जब तक शिक्षा देश के जन जन तक नहीं पहुंचेगी तब तक देश के सर्वांगीण विकास की परिकल्पना असम्भव है। लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश में लगातार कमी आयी है। वैसे कहा जाता है कि निजीकरण की प्रक्रिया से प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ावा मिलता है और विकास के लिये यह बहुत जरूरी है। यह मिथ्या प्रचार ही लगता है क्योंकि अगर भारत की बात करें तो निजीकरण की प्रक्रिया से एकाधिकार, उपेक्षा, शोषण और महंगाई को बढ़ावा ही मिला है। देश के वंचितों को इस निजीकरण की प्रक्रिया से फायदे की जगह भारी नुकसान हो रहा है चाहे वह कृषि का क्षेत्र हो, स्वास्थ्य का क्षेत्र हो या शिक्षा का क्षेत्र हो। अब ‘स्टडी इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों से शिक्षा के अधिक विसंगतिपूर्ण एवं असंतुलित होने की ही संभावना है।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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