आलोचना पर दमनात्मक रवैया लोकतंत्र के लिए खतरा

The Sabarmati Report
ANI

केंद्र सरकार और भाजपा जहां गोधराकांड पर बनी फिल्म को सच सामने लाने वाला बताते हुए तारीफ कर रही हैं, वहीं वर्ष 2023 में गुजरात दंगों पर बीबीसी के बनाए वृत्त चित्र को न सिर्फ प्रतिबंधित कर दिया गया था, बल्कि आयकर विभाग ने बीबीसी के परिसरों में छापे की कार्रवाई की थी।

सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों के नेताओं को आलोचना जरा भी बर्दाश्त नहीं है। मीडिया और सोशल मीडिया पर यदि सत्तारुढ़ दलों के नेताओं के खिलाफ कुछ लिखा या बोला जाता है तो उन पर सरकारें दमनात्मक कार्रवाई करने पर उतारू हो जाती हैं। राजनीतिक दल चाहे राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, किसी को आलोचना बर्दाश्त नहीं है। उनका निशाना विपक्ष और मीडिया रहता है। सत्तारुढ़ दलों को आलोचना तभी तक सुहाती है जब वह विपक्षी दलों की हो। ऐसे में सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए राजनीतिक दलों के नेता सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने में कसर बाकी नहीं रखते।   

एक फिल्म साबरमती रिपोर्ट को लेकर भाजपा और केंद्र सरकार के मंत्री गदगद नजर आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बीबीसी ने जब गोधराकांड के बाद गुजरात में हुए दंगों को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई तो न सिर्फ उस प्रतिबंध कर दिया गया, बल्कि आयकर विभाग ने बीबीसी पर छापे की कार्रवाई की। विक्रांत मैसी की द साबरमती रिपोर्ट को हरियाणा, छत्तीसगढ़ के साथ ही अब मध्य प्रदेश में भी टैक्स फ्री कर दिया गया है। इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तारीफ के बाद राजनीतिक महकमों में भी इसकी चर्चा बढ़ गई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा फिल्म को देखने के बाद इसकी सराहना की गई। विक्रांत मैसी की फिल्म द साबरमती रिपोर्ट की केंद्रीय भूमिका वाली यह फिल्म 27 फरवरी, 2002 के गोधरा ट्रेन अग्निकांड पर आधारित है। गोधरा स्टेशन के पास खड़ी साबरमती एक्सप्रेस की बोगी नंबर एस6 में आग लगा दी गई थी। अयोध्या से लौट रहे 59 हिंदू कारसेवक जिंदा जल गए थे। मरने वालों में 27 महिलाएं और 10 बच्चे भी शामिल थे। उसके बाद पूरे गुजरात में जो दंगा भड़का, वह आजाद भारत के सबसे भयावह दंगों में से एक था। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अब द साबरमती रिपोर्ट के जरिए बड़े पर्दे पर गोधरा कांड का खौफनाक मंजर दिखा है। पीएम मोदी के अलावा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत तमाम मंत्रियों और बीजेपी नेताओं ने द साबरमती रिपोर्ट की प्रशंसा की है। गोधरा में ट्रेन जलाए जाने की भयानक घटना का परिणाम पूरे राज्य में हिंसक दंगों की शक्ल में सामने आया। पूरा गुजरात जल उठा था। केंद्र सरकार ने 2005 में राज्यसभा को बताया था कि दंगों में 254 हिंदुओं और 790 मुसलमानों की जान गई थी। कुल 223 लोग लापता बताए गए थे। हजारों लोग बेघर भी हो गए थे। तत्कालीन मोदी सरकार ने एक जांच आयोग का गठन किया था। उस आयोग में जस्टिस जी टी नानावटी और जस्टिस के जी शाह शामिल थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मारे गए 59 लोगों में से अधिकतर कारसेवक थे। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जस्टिस यूसी बनर्जी की अध्यक्षता में एक अलग जांच आयोग का गठन किया। इस आयोग ने मार्च 2006 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में इस घटना को एक दुर्घटना बताया। सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट को असंवैधानिक और अमान्य करार देते हुए खारिज कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष जांच दल का गठन किया।

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गोधरा कांड और उसके बाद भड़के दंगों ने भारत की राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया। इस मामले में अदालती कार्रवाई जून 2009 से, घटना के आठ साल बाद शुरू हुई। स्पेशल एसआईटी कोर्ट ने 1 मार्च, 2011 को 31 लोगों को दोषी ठहराया, जिनमें से 11 को मौत की सजा और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अदालत ने इस मामले में 63 लोगों को बरी भी किया। एसआईटी कोर्ट ने उन आरोपों से सहमति जताई कि यह अनियोजित भीड़ द्वारा की गई घटना नहीं थी, बल्कि इसमें साजिश शामिल थी। 31 दोषियों को भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश, हत्या और हत्या के प्रयास से संबंधित धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था। गुजरात सरकार ने बाद में आरोपियों को बरी किए जाने पर सवाल उठाए। जिन्हें दोषी ठहराया गया, उन्होंने भी गुजरात हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने मामले में कुल 31 दोषियों को दोषी ठहराया था और 11 दोषियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है। गुजरात सरकार ने 11 दोषियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने के खिलाफ अपील की है, कई दोषियों ने मामले में उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखने के उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी।   

केंद्र सरकार और भाजपा जहां गोधराकांड पर बनी फिल्म को सच सामने लाने वाला बताते हुए तारीफ कर रही हैं, वहीं वर्ष 2023 में गुजरात दंगों पर बीबीसी के बनाए वृत्त चित्र को न सिर्फ प्रतिबंधित कर दिया गया था, बल्कि आयकर विभाग ने बीबीसी के परिसरों में छापे की कार्रवाई की थी। बीबीसी डॉक्यूमेंट्री इंडिया द मोदी क्वेश्चन दो भागों वाली एक श्रृंखला थी। यह जनवरी में यूके में प्रसारित हुई थी। इसमें बताया गया कि 2014 में मोदी के निर्वाचित होने के बाद से, उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने हिंदू-केंद्रित नीतियों को अपनाया है, जिन पर दक्षिणपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत भारत के 200 मिलियन मुसलमानों को निशाना बनाने और उनके साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया गया है, जो भारत को इसकी धर्मनिरपेक्ष नींव से दूर ले जा रहा है। मोदी सरकार की ओर से इस मामले में त्वरित और स्पष्ट प्रतिक्रिया आई। विदेश मंत्रालय की साप्ताहिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रवक्ता ने कहा कि इस डॉक्यूमेंट्री में पूर्वाग्रह और निष्पक्षता की कमी तथा औपनिवेशिक मानसिकता स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। बीबीसी पर सरकार विरोधी एजेंडा चलाने का आरोप लगाया गया। इसके बाद आयकर विभाग के एक दर्जन से ज़्यादा अधिकारियों ने बीबीसी के मुंबई और नई दिल्ली स्थित दफ़्तरों पर छापा मारा। इसे उन्होंने सर्वेक्षण बताया। कर चोरी की जांच के तहत फ़ोन और लैपटॉप जब्त कर लिए गए और दफ़्तरों को सील कर दिया। इससे जाहिर है कि सत्तारुढ़ दलों को नेताओं को सिर्फ मनमाफिक एजेंडे वाले कार्यक्रम ही सुहाते हैं। इसमें कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं हैं। पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर जब कभी विपक्षी दलों के खिलाफ हिंसा करवाने के आरोप लगे, तब इसे भाजपा और मीडिया की साजिश करार दिया गया। यही हाल दूसरे राज्यों की क्षेत्रीय दलों की सरकारों का है। विपक्ष दल और मीडिया जब कभी सत्तारुढ़ दलों के खिलाफ कोई खुलासा करते हैं, तब उन्होंने प्रताडऩा का सामना करना पड़ता है। इसका प्रमाण यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक कार्टून बनाने पर कार्टूनिस्ट को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।   

तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता ने राज्य विधानसभा से 43 विपक्षी सदस्यों को निष्कासित कर दिया और उन्हें कुछ समय के लिए जेल में डाल दिया। जब अंग्रेजी के एक अखबार ने उनके कार्यों की आलोचना करते हुए दो लेख और एक संपादकीय चलाया, तो जयललिता ने जवाब में समाचार पत्र के खिलाफ 17 अलग-अलग आपराधिक मानहानि के मामले दर्ज कराए। इससे जाहिर है कि राजनीतिक दलों के नेताओं के कारनामें उजागर करने पर कानून की चाबुक चलाने में कोई भी पीछे नहीं है। सच्चाई की तलाश में किए गए ऐसे प्रयासों पर नेताओं की टेडी नजर रहती है। 

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