राजनीति करिये, परंतु असम को दुष्प्रचार की आग में मत झोंकिये
दुष्प्रचार और अफवाहों की भीड़ में सच कैसे कहीं खो जाता है असम इसका जीता जागता उदाहरण है। और जब अपने राजनैतिक स्वार्थों की खातिर भोले भाले छात्रों को आंदोलन की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जाता है तो राजनीति का कुत्सित चेहरा सामने आ जाता है।
राज्यसभा से नागरिकता संशोधन विधेयक पास होने के बाद से ही लगातार असम में इसका विरोध हो रहा है। इस बिल में यह प्रावधान किया गया है कि अब पाकिस्तान बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रहने वाले "अल्पसंख्यक समुदाय" जैसे- हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय अगर भारत में शरण लेते हैं तो उनके लिए भारत की नागरिकता हासिल करना आसान हो गया है। यह विधेयक उन पर लागू होगा जिन्हें इन तीन देशों में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किए जाने के कारण भारत में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन इनर लाइन परमिट वाले राज्य (यानी यहाँ प्रवेश से पहले बाहरी व्यक्तियों को अनुमति हासिल करनी पड़ती है) और छठी अनुसूची के क्षेत्रों को नागरिकता संशोधन कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। इसका मतलब उत्तर पूर्व के अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, त्रिपुरा और आसाम के कुछ इलाकों में यह लागू नहीं होगा। इसलिए देखा जाए तो इस बिल में "विवाद" अथवा "विरोध" जैसा कुछ नहीं था लेकिन फिर भी जिस प्रकार से विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों में सेक्युलरिज्म और संविधान के नाम पर इस बिल का विरोध किया और देश की जनता को भृमित करने की कोशिश की, उनका यह आचरण अपने आप में विपक्ष की भूमिका पर ही कई सवालों को खड़ा कर गया।
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संविधान के नाम पर धार्मिक आधार पर अत्याचार की हद तक प्रताड़ित होकर भारत आने वाले गैर मुस्लिम शरणार्थियों के प्रति विपक्षी दलों की इस संवेदनहीनता ने उनकी स्वार्थ की राजनीति को देश के सामने रख दिया। लेकिन इससे इतर जिन मुद्दों पर विपक्ष ने इस बिल का विरोध किया उससे तर्कों की कमी को लेकर उनकी बेबसी भी सामने आई। विपक्ष को अब यह समझना चाहिए कि उनके द्वारा सरकार पर बार बार "संविधान के साथ खिलवाड़" और "लोकतंत्र की हत्या" जैसे रटे रटाए आरोपों से जनता अब ऊब चुकी है। वो विरोध के लिए कुछ ठोस और न्यायसंगत तर्कों की अपेक्षा करती है। दरअसल आज जब समूचा विपक्ष संविधान का सहारा लेकर इस बिल का विरोध करते हुए धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभाव से पीड़ित इन देशों के अल्पसंख्यकों से अधिक चिंता अपने देश के अल्पसंख्यकों या फिर अपने वोटबैंक की कर रहा था तो ना सिर्फ उनके सेक्युलरिज्म की हकीकत बल्कि उनका दोहरा राजनैतिक चरित्र भी दृष्टिगोचर हुआ।
क्योंकि जब बात तीन ऐसे देशों की हो रही हो जहाँ का राज धर्म ही इस्लाम हो, जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक हों, और जिन देशों में गैर मुस्लिम परिवारों पर होने वाले अत्याचार दुनिया के सामने आ गए हों, जब आंकड़े बताते हों कि इन सालों में पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या 23% से घट कर 1.5%, बांग्लादेश में 20% से घट कर 2% और अफगानिस्तान में 18% से घट कर 1% रह गई हो, तब सेकुलरिज्म के नाम पर विपक्ष का इस बिल के लिए विरोध समझ से परे हो जाता है।
यह वाकई में खेद का विषय है कि अपनी वोटबैंक की राजनीति के आगे विपक्ष को देश के प्रति अपने दायित्वों का भी बोध नहीं रहता। इसे क्या कहा जाए कि जब बिल में पूर्वोत्तर के राज्यों को शामिल नहीं किया गया है फिर भी पूर्वोत्तर के राज्यों में इस विधेयक को लेकर लोग आक्रोशित ही नहीं बल्कि हिंसक होने की हद तक भ्रमित हैं ? दुष्प्रचार और अफवाहों की भीड़ में सच कैसे कहीं खो जाता है असम इसका जीता जागता उदाहरण है। और जब अपने राजनैतिक स्वार्थों की खातिर भोले भाले छात्रों को आंदोलन की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जाता है तो राजनीति का कुत्सित चेहरा सामने आ जाता है।
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दरअसल असम में घुसपैठियों की समस्या बहुत पुरानी है। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने भी घुसपैठ की समस्या खत्म करने के लिए वहाँ के संगठनों से असम समझौता किया था लेकिन समझौते के बावजूद सरकार द्वारा इतने साल इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। मौजूदा सरकार ने अब वहाँ इसी समस्या को खत्म करने के लिए एनआरसी लागू किया गया था ताकि वहाँ के मूलनिवासियों और घुसपैठियों की पहचान की जा सके। एनआरसी के बनते ही असम में लगभग 19 लाख लोगों पर नागरिकता का संकट आ गया। अब असम के लोगों को डर है कि नए नागरिकता संशोधन कानून का सहारा लेकर एनआरसी से बाहर हुए लोग नागरिकता हासिल करने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि एनआरसी से वो घुसपैठियों की पहचान करके उनको बाहर का रास्ता दिखाएगी। सरकार यह भी घोषणा कर चुकी है कि वो असम समझौते की धारा 6 के अनुरूप ही असम के लोगों के संवैधानिक, राजनैतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एनआरसी और सीएबी दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं और इनमें नागरिकता हासिल करने के कानूनी पहलू भी अलग अलग है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि एनआरसी में जो लोग छूट गए हैं उन्होंने आवेदन तो किया होगा लेकिन कागजातों के अभाव में उनका नाम लिस्ट में नहीं आया। इस आवेदन में उन्होंने ये घोषणा की होगी कि वे भारत के ही नागरिक हैं और इसके लिए जरूरी दस्तावेज भी उपलब्ध कराए होंगे जिसके आधार पर वो अपना नाम एनआरसी में जुड़वाना चाहते होंगे। जबकि सीएबी के तहत नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदक को ये कहना होगा कि वो बांग्लादेश, अफगानिस्तान या फिर पाकिस्तान का नागरिक है। इसलिए दोनों मुद्दों को मिलने की कोशिश करना संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। इसके बावजूद असम में इस बिल का हिंसक विरोध निराशजनक है।
-डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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