बहुजन समाज पार्टी के इस हश्र का कारण मायावती ही हैं
बीएसपी का मिले करीब 22.2 फीसदी का वोट प्रतिशत बताता है कि मायावती का कोर वोट बैंक अब भी उनसे छिटका नहीं है। लेकिन उनके सोशल इंजीनियरिंग के आजमाए हुए फॉर्मूले में दूसरी पार्टियों की सेंध लग चुकी है।
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो व उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी बहन मायावती इन दिनो परेशान नजर आ रही हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव व फिर 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में करारी हार ने मायावती को अन्दर तक हिला कर रख दिया है। उन्हें वर्षों से बनाया अपना राजनीतिक जनाधार खिसकता नजर आने लगा है। 2012 से लगातार सत्ता से बाहर रहने के कारण उनके समर्थक भी उन्हें एक-एक कर छोड़ कर जाने लगे हैं। उनकी पार्टी की लगातार हो रही हार से उनके समर्थकों को लगने लगा है कि अब उनकी लोकप्रियता घटने लगी है।
गौतम बुद्ध के धर्मोपदेशों से बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय से बहुजन शब्द लेकर कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को बाबा साहब अम्बेडकर के जन्मदिन के अवसर पर देश में एक नए राजनैतिक दल बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था। बहुजन शब्द तथागत बुद्ध के धर्मोपदेशों से लिया गया है। तथागत बुद्ध ने कहा था बहुजन हिताय बहुजन सुखाय अर्थात उनका धर्म बहुत बड़े जन-समुदाय के हित और सुख के लिए है। बहुजन समाज पार्टी की सभी नीतियां भी बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के सिधान्त पर आधारित रहीं हैं। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम ने अपनी मेहनत व ईमानदारी के बल पर इस नयी पार्टी को स्थापना के मात्र पांच वर्षों में ही संसद में पहुंचा दिया था।
1989 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने देश भर में 245 प्रत्याशी मैदान में उतारे जिनमें से उत्तर प्रदेश से तीन व पंजाब से कुल चार प्रत्याशी जीतने में सफल हो गये। इस चुनाव के बाद बसपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1991 के लोकसभा चुनाव में तीन, 1996 में 11 लोकसभा सीटें, 1998 में 5 सीटें, 1999 में 14 सीटें, 2002 में 19 सीटें व 2009 के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 21 सीटों पर बसपा विजयी हुयी थी। 21 लोकसभा सीटें जीतने पर लगने लगा था कि आने वाले समय में मायावती कांशीराम का दिल्ली पर बसपा के राज करने का सपना साकार करेंगी क्योंकि इससे पहले 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती के नेतृत्व में बसपा ने पहली बार 206 सीटें जीत कर अपने बूते सरकार बनायी थी। उससे पूर्व बसपा 2002 में 98 सीटें ही जीती थी।
बसपा की लगातार जीत के सिलसिले को 2012 के विधानसभा चुनाव में ब्रेक लग गया व प्रदेश में सत्तारूढ़ बसपा राज्य में मात्र 80 सीटों पर सिमट कर रह गयी। 2012 की हार से मायावती ने कोई सबक नहीं लिया व केन्द्र व राज्यों में कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखा फलस्वरूप 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी। रही सही कसर 2017 के विधानसभा चुनाव में पूरी हो गयी।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम कई मायने में चौंकाने वाले रहे हैं। परिणामों में जहां भाजपा को भारी बहुमत मिला है वहीं बहुजन समाज पार्टी जो कि राज्य में एक बेहद अहम ताकत मानी जाती है, मानो खत्म-सी हो गई है। 2007 में 206 सीटें और 2012 के विधानसभा चुनाव में 80 सीटें पाने वाली बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में मात्र 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा है। जबकि वोट शेयर में बसपा को सपा पर बढ़त मिली है। विधानसभा में इतनी कम संख्या के साथ तो मायावती के लिए 2018 के राज्यसभा चुनाव में अपनी सीट बचाये रखना मुश्किल होगा।
चुनाव के परिणामों के बाद बसपा के सामने अब अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो गया है। यह साफ है कि बसपा का कोर वोट माना जाना वाला दलित अगले चुनाव में पूरी तरह से भाजपा की ओर रुख कर सकता है। विधानसभा चुनाव की हार से राष्ट्रीय पटल पर भी मायावती का कद घटा है। नई विधानसभा में उनकी पार्टी को राज्यसभा व विधान परिषद में एक भी सीट मिलने की उम्मीद नहीं है। लोकसभा में पहले ही बसपा की कोई नुमाइंदगी नहीं है। ऐसे में केन्द्र की सियासत में मायावती के लिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना बेहद मुश्किल हो जायेगा। अब ये साफ है कि 2014 के आम चुनाव में प्रदेश से साफ होने के बाद भी मायावती अपनी पार्टी के सियासी नसीब को बदल नहीं पाईं। ऐसे में पार्टी के भीतर एकछत्र नेता के तौर पर उनकी विश्वसनीयता को चोट पहुंचना लाजिमी है।
बीएसपी का मिले करीब 22.2 फीसदी का वोट प्रतिशत बताता है कि मायावती का कोर वोट बैंक अब भी उनसे छिटका नहीं है। लेकिन उनके सोशल इंजीनियरिंग के आजमाए हुए फॉर्मूले में दूसरी पार्टियों की सेंध लग चुकी है। इस पर रही-सही कसर चुनावों से ऐन पहले स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक जैसे नेताओं ने पार्टी छोड़ कर पूरी कर दी। जहां मौर्य के पार्टी छोड़ने से ओबीसी तबके के बीच गलत संदेश गया, वहीं ब्रजेश पाठक के जाने से बीएसपी ने बड़ा ब्राह्मण चेहरा गंवाया।
ये तो साफ है कि अब हाथी महज दलितों के सहारे साइकिल और कमल के फूल का मुकाबला नहीं कर सकता। लिहाजा उन्हें जाति के अलावा आर्थिक आधार पर भी अलग-अलग वर्गों के लिए एजेंडा सामने रखना होगा। 61 साल की उम्र में वक्त ज्यादा देर तक मायावती के साथ नहीं रहेगा। खासकर ऐसे वक्त में जब भाजपा के पास योगी आदित्यनाथ व समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश यादव जैसे 45 साल के युवा नेता हैं। हाल ही में मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर जता दिया कि उन्हें भी परिवारवाद से कोई गुरेज नहीं है। इसी के साथ यह अटकल भी खत्म हो गई कि मायावती का सियासी उत्तराधिकारी तथा पार्टी में दूसरे स्थान पर कौन है क्योंकि बसपा में अध्यक्ष के बाद राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद ही सबसे अहम होता है।
महज 19 सीटों पर जीत से सवाल उठने लगा है कि क्या मायावती के सियासी सफर के अंत की शुरुआत हो चुकी है? क्या यूपी की जनता ने बहुजन समाज पार्टी को नकार दिया है। ऐसे में सत्ता से लंबे वक्त तक दूरी किसी भी सियासी पार्टी के लिए घातक साबित होती है। ऐसी स्थिति में पार्टी कार्यकर्ताओं का जोश ठंडा पड़ने लगता है और नेता छिटकने लगते हैं। लखनऊ की सत्ता से पांच साल से दूर मायावती को अब 5 साल तक और इंतजार करना होगा। कभी विधानसभा में बसपा की तूती बोलती थी लेकिन इस बार विपक्ष का नेता भी पार्टी को नसीब नहीं होगा।
मायावती की हार का सबसे बड़ा कारण उनकी नकारात्मक राजनीती रही। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से मायावती ने लगातार केन्द्र सरकार व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बुराई का कोई मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने कई बार राज्यसभा में सरकार के खिलाफ बेवजह बवाल कर संसद ठप्प करने का प्रयास किया इससे आम जनता में उनकी नकारात्मक छवि बनती गयी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गयी नोटबन्दी का भी सबसे ज्यादा मुखर विरोध मायावती ने किया। नोटबन्दी प्रकरण में तो बहनजी ने अपने धुर विरोधी सपा व कांग्रेस के सुर में सुर मिला लिया जिसका जनता में उनके प्रति गलत संदेश गया जो उनकी हार का एक बड़ा कारण बना। उन्होंने चुनावी हार का कारण उनकी पार्टी से मतदाताओं की नाराजगी को न मान कर हार का ठीकरा ईवीएम के सर फोड़ दिया। उन्होंने अपनी हार का कारण वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ करने को बता कर अपनी हार के कारणों को छुपाने का असफल प्रयास किया जो मतदाताओं के गले नहीं उतर रहा है।
मायावती सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुकाबला करती हैं। मोदी देश की जनता में लोकप्रिय, ईमानदार व लुभाने वाले व्यक्तित्व वाली छवि वाले एक ऐसा नेता है जिनके भाषण पर हर कोई ताली बजाये बिना नहीं रह सकता है। मोदी अपनी जनसभाओं में बिना किसी पूर्व तैयारी के जनता को प्रभावित करने वाला धाराप्रवाह भाषण देते हैं। मायावती भाषण कला में मोदी के सामने कहीं नहीं ठहरती हैं, क्योंकि बहनजी सिर्फ लिखा हुआ भाषण ही पढ़ सकती हैं। हाल ही में मायावती की पार्टी को छोड़ कर गये कांशीराम के जमाने के नेता नसीमुद्दीन सिद्दिकी ने मायावती पर पैसे लेकर टिकट बेचने का आरोप लगाया है। इससे पूर्व भी मायावती पर ऐसे आरोप कई बार लगते रहते हैं। इससे मायावती की छवि जनता के बीच एक बदनाम नेता की बन गयी जो उनकी पार्टी की हार का एक बड़ा कारण है।
मायावती के सामने मौजूदा हालात में पार्टी को एकजुट बनाए रखने की चुनौती होगी। यह देखना होगा कि वो अपने समर्थकों का हौसला बनाए रखने के लिए क्या करती हैं। लगातार पार्टी छोड़कर जा रहे पुराने नेताओं को वह कैसे रोक पायेंगी। अब कहा जा रहा है कि पार्टी में वर्षों से काम कर रहे जमीनी कार्यकर्ताओं को संगठन में आगे लाया जायेगा। आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या मायावती सत्ता और राजनीति के दांवपेंचों से ऊपर उठकर इस बात को समझेंगी? केन्द्र व राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का मुकाबला एक कैडर आधारित पार्टी ही कर सकती है लिहाजा मायावती को चाहिए कि वो दिल्ली की सुख सुविधा को छोडक़र उत्तर प्रदेश में गांव-गांव घूमकर समाज के गरीबों, पीड़ितों व उपेक्षित वर्ग की सुध लें। चाटुकार व मौका परस्त किस्म के भ्रष्ट छवि वाले लोगों को संगठन से दूर रखें तभी बसपा अपना खोया जनाधार पुन: हासिल कर पायेगी।
- रमेश सर्राफ धमोरा
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