संसद में छोड़े गये ‘पीले रंग’ में छिपे ‘काले उद्देश्य’ का पता लगाना बेहद जरूरी है
आरोपियों का हमले की बरसी के दिन ‘संसद अटैक-2’ का संदेश देना निश्चित रूप से बेचैन करता है। पीले रंग में छिपे काले संदेश को समझा होगा। दुश्मन अंदरूनी है या बाहरी? उन्हें खींचकर बाहर निकालना होगा। प्रतीत ऐसा होता है कि आरोपी सिर्फ मोहरा मात्र हैं।
शीतकालीन सत्र के 10वें दिन भारतीय संसद के अंदर शायद कुछ बहुत बड़ा होना मुकर्रर था क्योंकि 22 बरस पहले आतंकवादियों द्वारा दिया एक नासूर जख्म जो प्रत्येक 13 दिसबंर की तारीख के दिन याद करके हरा हो जाता है। खैर, गनीमत ये समझें कि संभावित घटना ‘पीले रंग’ तक ही सीमित रही, वरना कुछ ‘काला’ भी हो सकता था। 13 तारीख वैसे भी संसदीय परंपरा के लिए ‘काली तारीख’ ही है। केंद्र सरकार इस अधूरी घटना को हल्के में कतई न ले। नहीं, तो पीले रंग में छिपी ये संदेशवाहक घटना कभी भी पूर्ण घटना में तब्दील हो सकती है। इतना सतर्क हो जाना चाहिए कि दुश्मन घात लगाए बैठा है इसलिए अभी से इस तस्वीर को गंभीरता से लेने की आवश्कता है। आरोपियों की बुनी साजिश की जड़ तक घुसना होगा? उनका मकसद दहशत फैलाना मात्र था या कुछ और? फिलहाल ऐसे तमाम सवाल खड़े हो चुके हैं। पर, अव्वल तो इस घटना को घोर लापरवाही और सुरक्षातंत्र की नाकामी ही कहेंगे। चाकचौबंद सुरक्षा-व्यवस्था से कहां चूक हुई, इसकी भी समीक्षा किए जाने की जरूरत है।
बहरहाल, संसद तो नई-नवेली है, जिसे अत्याधुनिक सुरक्षा तकनीकों से लैस बताया जाता है। लेकिन घटना जिस अंदाज में घटी उससे साफ पता चलता है कि साजिश की तासीर कुछ और थी। आरोपी सामान्य हैं या असामान्य प्रवृत्ति के, ये तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा। पर, लोग अंदेशा ऐसा भी लगा रहे हैं कि कहीं 22 साल पहले 13 दिसंबर को जो घटना संसद में घटी थी ये उसकी पुनरावृत्ति तो नहीं? या फिर उसका पार्ट-2 की चेतावनी है। इस लापरवाही की जवाबदेही किसकी हो, ये बिना देर किए सुनिश्चित हो। एक थ्योरी ये समझ में नहीं आती कि आखिर शीतकालीन सत्र को चले कई दिन हो चुके हैं। पर, हरकत संसद हमले की बरसी के दिन ही क्यों होती है? अचंभित कर देने वाली बात एक ये भी है कि आरोपियों ने भगत सिंह के स्टाइल को क्यों कॉपी किया? पीला धुंआ फैलाकर, नारे लगाना, तानाशाही से मुक्ति मिले? आखिर ये सब किस ओर इशारा करता है। कौन है घटना के पीछे, उसे सामने लाना ही होगा और आरोपी ने जो तानाशाही से आजादी के नारे लगाए हैं उसके निहितार्थ भी सार्वजनिक होने चाहिए।
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आरोपियों का हमले की बरसी के दिन ‘संसद अटैक-2’ का संदेश देना निश्चित रूप से बेचैन करता है। पीले रंग में छिपे काले संदेश को समझा होगा। दुश्मन अंदरूनी है या बाहरी? उन्हें खींचकर बाहर निकालना होगा। प्रतीत ऐसा होता है कि आरोपी सिर्फ मोहरा मात्र हैं। मास्टर माइंड कोई और ही है? जब से नई संसद में सत्र और संसदीय कार्य शुरू हुए हैं। संसद सदस्य अपनी सुरक्षा के प्रति निश्चित और बेखबर हैं। क्योंकि संसद की सुरक्षा सेफ्टी मानकों के लिहाज से अत्याधुनिक बताई जाती है। संसद की एक-एक ईंट और चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा पहरा बिछा हुआ है। खुदा न खास्ता इंसानी सुरक्षा तंत्र से अगर कोई चूक भी हो जाए, तो पूरी बिल्डिंग तीसरी आंख यानी सीसीटीवी कैमरों से लैस है। कोई संदिग्ध क्या, परिंदा भी पर नहीं मार सकता। पर, अब इन मौखिक और कागजी सुरक्षा व्यवस्था पर संसद सदस्यों को एतबार नहीं रहा। क्योंकि उन सभी को धता बताते हुए आरोपी विजिटर बनकर आसानी से भीतर घुस गए और अपने मंसूबों को अंजाम दे दिया।
गनीमत ये समझें कि घटना के दौरान आरोपियों के हाथ में सिर्फ ‘स्मोक बम’ ही थे, अगर असलहा-वगैरह होता तो वो इस्तेमाल भी कर सकते थे। क्योंकि जब वो सुरक्षा तंत्र की आंखों में धूल झोंककर आपत्तिजनक वस्तुएं अंदर ले जा सकते हैं तो बंदूक-बारूद क्यों नहीं? इसलिए घटना को सबसे पहले सुरक्षा चूक ही कहेंगे। जबरदस्त सुरक्षा पहरे को बेवकूफ बनाकर ‘स्मोक बम’ फेंककर संसद के भीतर आरोपी अफरा-तरफी मचा देते हैं। बकायदा विजिटर बनकर संसद की कार्यवाही देखने पहुंचते हैं। दर्शक दीर्घा में करीब चार-पांच घंटे बिताते हैं और लंच से पहले अचानक छलांग लगाकर सांसदों की कुसिर्यों तक जाते हैं। पीले रंग का ‘स्मोक बम’ फोड़ देते हैं। ‘तानाशाही से आजादी’ जैसे नारे लगाते हैं। ये पूरा वाकया तकरीबन चालीस से पैंतालीस मिनट तला। सुरक्षाकर्मियों के पहुंचने से पहले दो सांसद हनुमान बेनीवाल और मलूक नागर हिम्मत दिखाकर उन्हें दबोचते हैं और उन्हें सुरक्षा कर्मियों के हवाले करते हैं।
आरोपी मैसूर से भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा की सिफारिश पर कार्यवाही देखने पहुंचे। वो झूठ बोल रहा है या सच? ये जानने के लिए उसका नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट जरूर करवाना चाहिए। अगर कोई गहरी साजिश है भी, जैसा कि कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी दावा कर रहे हैं, तो उसे पता लगाने की दरकार है। संसद में सुबह तक सब कुछ नॉर्मल था। 22 वर्ष पूर्व हुए हमले की बरसी थी जिस पर सभी सांसदों ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी और उसके बाद रोजाना की भांति सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने जाते हैं। किसी को थोड़ा-सा भी अंदेशा नहीं था कि नई संसद में भी कोई ऐसी भी हरकत कर सकता है। संसद सदस्य आश्वस्त थे कि नई संसद सुरक्षा मानकों के चलते अभेद्य है। बावजूद आरोपी चार नंबर गेट से विजिटर बनकर प्रवेश कर जाता है। क्या आरोपी ‘स्मोक बम’ के जरिए कोई संदेश फैलाना चाहता था, ये फिर उसे मात्र पब्लिसिटी चाहिए थी। हालांकि ऐसे सभी सवालों की लंबी लिस्ट बनाकर स्थानीय पुलिस और अन्य जांच एजेंसियां पूछताछ में लगी हैं। लेकिन विपक्षी दल किसी बड़ी घटना होने की आशंका जता रहे हैं। उनकी आशंकाओं को ध्यान में रखकर भी जांच करनी चाहिए, इसके अलावा उसी वक्त बाहर भी एक युवती-युवक तानाशाही से आजादी के नारे लगा थे, उनसे भी कड़ाई से पूछताछ होनी चाहिए। देशवासियों में ये संदेश बिल्कुल भी नहीं जाना चाहिए कि जब संसद ही सुरखित नहीं तो वो भला कैसे सुरक्षित होंगे,
-डॉ. रमेश ठाकुर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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