यूपी चुनाव में दलितों पर है सबकी नजर, क्या मायावती की राजनीतिक जमीन खिसक चुकी है?
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि प्रदेश में भाजपा ज्यों-ज्यों मजबूत हो रही है, बसपा का वोट बैंक उधर खिसकता जा रहा है। गौरतलब है कि बसपा संस्थापक कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया था।
उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की सियासी बिसात पर तमाम नेता और दल अपनी-अपनी जातीय गोटियां बिछाने में लगे हैं। किसी को दलितों की चिंता है तो किसी को पिछड़ों की, कोई ब्राह्मणों के लिए परेशान है तो कोई ठाकुरों को मना रहा है। पश्चिम में जाट अलग ही तान छेड़े हुए हैं। अबकी चुनाव में काफी कुछ नया भी हो रहा है। बसपा ब्राह्मणों तो समाजवादी दलितों पर डोरे डालने में लगी है। मुसलमानों पर समाजवादी पार्टी अपना एकाधिकार समझती है। यह मुसलमान कभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था। ये और बात है कि कई बार मुसलमान मोटर मायावती के साथ भी जा चुके हैं। इसी के चलते 2007 में मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी। सूबे में सत्ता में वापसी के लिए बसपा एक बार फिर से मुसलमानों और ब्राह्मण समुदाय को साधने में जुटी है तो उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी के लिए भाजपा, सपा और कांग्रेस सभी पार्टियां लगी हैं। बहुत से दलों और नेताओं को लग रहा है कि बसपा सुप्रीमो मायावती का अब दलितों के बीच वैसा प्रभाव नहीं रहा जैसा डेढ़ दशक पहले दिखता था। लेकिन सबसे बड़ा फैक्टर दलित वोट बैंक ही है।
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राजनीतिक पंडित कहते हैं कि प्रदेश में भाजपा ज्यों-ज्यों मजबूत हो रही है, बसपा का वोट बैंक उधर खिसकता जा रहा है। गौरतलब है कि बसपा संस्थापक कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया था। उन्होंने दलित राजनीति का ऐसा सियासी प्रयोग किया कि बसपा ने उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ दस्तक दी और मायावती ने एक−दो बार नहीं बल्कि चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। लेकिन 2017 आते-आते दलितों ने 35 वर्षों के बाद बसपा से दूरी बनानी शुरू कर दी। सूबे में दलित वोटों पर कांशीराम के बाद मायावती का लंबे समय तक एकछत्र राज रहा। मायावती की रैलियों में दलितों की जो भीड़ जुटती थी उसकी मिसाल आज तक दी जाती है, लेकिन बाद में मायावती पर दलितों के बीच ही मतभेद पैदा करने का आरोप लगने लगा और यह कहा जाने लगा कि बसपा सुप्रीमो मायावती सिर्फ जाटव दलितों की ही नेता हैं और बाकी दलितों की बसपा में कोई पूछ नहीं है। दलितों के बीच के इस मनमुटाव को भाजपा ने खूब खाद पानी दिया। इसी के चलते दलितों के एक तबके ने बसपा से मुंह मोड़ा तो फिर 10 साल से बसपा को सत्ता नसीब नहीं हुई।
उधर, पश्चिम यूपी में दलित राजनीति का नया चेहरा बनकर उभरे चंद्रशेखर बसपा के विकल्प के तौर पर खुद को पेश कर रहे हैं, यह भी बसपा के लिए चिंता का विषय बना हुआ है, जबकि मायावती 2007 की तरह ही सत्ता में आने के लिए बेताब हैं। वहीं बसपा के दलित वोटरों पर कांग्रेस, सपा और बीजेपी की नजर है। दरअसल, पिछड़ा समुदाय के बाद उत्तर प्रदेश में दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी दलित बिरादरी की है। सूबे में दलित आबादी 22 फीसदी के करीब है। यह दलित वोट बैंक जाटव और गैर-जाटव के बीच बंटा हुआ है। 22 फीसदी कुल दलित समुदाय में सबसे बड़ी संख्या 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैर-जाटव दलित हैं। यूपी में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिनका संख्या बल ज्यादा नहीं है। दलित की कुल आबादी में 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की अन्य जो उपजातियां हैं उनकी संख्या 46 फीसदी के करीब है। पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक करीब 5 फीसदी हैं। बसपा प्रमुख मायावती और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर जाटव समुदाय से आते हैं। यूपी की सियासत में दलित राजनीति की कमान अपवाद को छोड़कर हमेशा से ही जाटव समुदाय के ही इर्द-गिर्द रही है। वहीं, 2012 के चुनाव के बाद से गौर-जाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी सहित तमाम जातियों को विपक्षी राजनीतिक दल अपने-अपने पाले में लामबंद करने में जुटे हैं।
उत्तर प्रदेश में दलितों में सबसे बड़ी भागीदारी आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, नोएडा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बस्ती, संतकबीरनगर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और सहारनपुर जिलों में है। दलित सियासत में जाटव समुदाय अभी भी बसपा का कोर वोटबैंक माना जाता है। दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर राजधानी लखनऊ के आसपास के जिलों- सीतापुर, रायबरेली, बाराबंकी, अमेठी, कौशांबी, प्रतापगढ़, लखनऊ देहात, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गोंडा जैसे जिले में प्रभावी है। बीजेपी ने पासी समुदाय के तौर पर केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर को आगे बढ़ाया तो सपा ने बसपा छोड़कर आए इंद्रजीत सरोज पर दांव खेला है।
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दलित सियासत में धोबी और वाल्मीकि वोटरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बरेली, शाहजहांपुर, सुल्तानपुर, गाजियाबाद, मेरठ, हाथरस और बागपत में धोबी और वाल्मीकि काफी बड़ी संख्या में रहते हैं। जाटवों का वाल्मीकि समाज के बीच काफी दूरियां देखने को मिलती हैं। पश्चिम यूपी में जाटव केंद्रित राजनीति के चलते वाल्मीकि शुरू से ही बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है और धोबी समुदाय भी 2012 के बाद से बसपा से छिटक गया है।
दलितों में कोरी समुदाय भी काफी अहम है। इनकी संख्या भले ही बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन कानपुर देहात, औरेया, इटावा, जालौन, महोबा, हमीरपुर, झांसी, फर्रुखाबाद, चित्रकूट, फिरोजाबाद, मैनपुरी, कन्नौज जैसे में जिलों में कोरी समुदाय भी बसपा से छिटका है और बीजेपी उसे साधने की तमाम कवायद कर रही है। उत्तर प्रदेश में खटीक वोटरों का अलग अपना दबदबा है। खटीक कौशांबी, कानपुर, इलाहाबाद, अमेठी, जौनपुर, बुलंदशहर, भदोही, वाराणसी, आजमगढ़, सुल्तानपुर में अच्छी खासी संख्या में देखने को मिलते हैं। खटीक समाज बीजेपी का हार्डकोर वोटर माना जाता है।
बात दलितों की कुल आबादी की कि जाए तो उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिलें हैं, जहां दलितों की संख्या 20 फीसदी से अधिक है। सूबे में सबसे ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौर-बाराबंकी में 25-25 फीसदी है। इसके अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित समुदाय निर्णायक भूमिका में है। यूपी में 17 लोकसभा और 85 विधानसभा सीटें दलित समुदाय के लिए रिजर्व हैं।
उत्तर प्रदेश की 403 में से 85 सुरक्षित विधानसभा सीटों पर 2012 के चुनाव में सपा ने 31.5 फीसदी वोट लेकर 58 और बसपा ने 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं। वहीं बीजेपी को 14.4 फीसदी वोटों के साथ महज 3 सीटें मिली थीं। वहीं 2017 में नतीजे बिल्कुल उलट गए और 85 सुरक्षित सीटों पर 2017 के नतीजों में 69 सीटें भाजपा ने जीतीं। भाजपा को 39.8 प्रतिशत वोट मिले। वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीट मिली जबकि बीएसपी सिर्फ 2 सीटें जीत पाई। दलित चिंतक कहते हैं कि दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान के तहत आरएसएस ने उस दलित वोट बैंक पर निशाना साधा जिस पर बीएसपी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था। इसका फायदा बीजेपी को सीधे-सीधे देखने को मिला। गैर-जाटव दलित जातियों को बसपा में न तो नेतृत्व में जगह मिली और न ही सत्ता में जाटव समाज की तरह भागीदारी मिली। ऐसे में गैर-जाटव दलितों का बसपा से मोहभंग हुआ और उसका फायदा बीजेपी और दूसरी अन्य पार्टियों ने उठाया है। अगले साल होने वाले चुनाव में भी ऐसे ही कुछ तस्वीर उभर कर आ रही है। यह और बात है कि बसपा सुप्रीमो मायावती को अब भी यही लगता है कि 2007 फिर से दोहराया जाएगा और बसपा एक बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाएगी।
-अजय कुमार
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