वैचारिक मतभेद लोकतंत्र का श्रृंगार है, कटुता व बदजुबानी उसके दुश्मन
इस बार लोकसभा में इतनी बेजुबानी हुई कि पूरी चर्चा में जनता के मुद्दे व राजनीतिक दलों के वैचारिक सिद्धांत गौण हो कर रह गए। पहले चुनावों में नेहरु के समाजवाद, वामपंथियों के मार्क्सवाद, भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्मवाद सहित अनेक तरह के सिद्धांतों पर खुल कर बहसें सुनने को मिलती थीं परंतु अब पूरे फसाने में इनका जिक्र तक नहीं था।
17 वीं लोकसभा के लिए चुनावी शोर 19 मई को थम जाएगा। लगभग दो महीने चले चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अगर किसी पर सर्वाधिक अत्याचार हुआ तो वह है वाणी अर्थात जो आशीर्वाद है मां सरस्वती की। प्रचार के दौरान किस नेता ने किसके बारे क्या कहा इसे दोहराना उचित नहीं परंतु दुर्भाग्य है कि यह उस देश के वासियों की भाषा थी जिसके पूर्वजों ने भाषा को प्रथमेश गणपति जी से भी पहले स्थान दिया है। रामचरितमानस में तुलसीदास जी बालकाण्ड के आरंभ में मंगलाचरण में वाणी की सर्वप्रथम वंदना करते हुए लिखते हैं: -
वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि।
मंगलानां च कत्र्तारौ वंदे वाणीविनायकौ।।
अर्थात अक्षरों, अर्थ, रसों, छंदों और मंगल करने वाले वाणी विनायक जी की मै वंदना करता हूं। वाणी विनायक ऐसे शुभ चिंतन और विवेक के प्रतीक हैं जिनके अह्वान से भाषा में कल्याणकारी तत्व दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इन तत्वों में भाषाई वर्णों-शब्दों के ज्ञान, अर्थ की जानकारी और रसमयी व मंगल वाणी गिनाए गए हैं। लेकिन देश के राजनेताओं को तो छोडि़ए इन दिनों बुद्धिजीवियों या साहित्य की भाषा में भी क्या इन गुणों का पालन देखने को मिल रहा है? देश का तो यह सनातन विचार रहा है कि जो सत्य कड़व हो और हित न करता हो तो भी अनुकरणीय नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो हित करने वाला असत्य भी अहितकारी सत्य से ज्यादा श्रेष्ठ है। जैसे एक मरणासन्न व्यक्ति को डाक्टर दिलासा दिलाता है कि वह ठीक हो जायेगा। यद्यपि यह असत्य है पर गलत नहीं, क्यूंकि यह झूठ मरीज में नई जान भी फूंक सकता है। देश के बहुत से नेता अपनी बदजुबानी के लिए जाने जाते हैं परंतु इनके इतर अन्यों ने भी जहर से जहर धोने का ही काम किया है। जिस तरह महाभारत में धर्म का उल्लंघन दोनों तरफ से हुआ उसी तरह आज भी भाषा की गिरावट के लिए एक दल या नेता को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। इस बदजुबानी ने लोकतंत्र का जो अहित किया है उसकी भरपाई में काफी समय लग सकता है।
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इस चुनाव में देशवासियों ने प्रधानमंत्री के लिए पहली बार 'चोर' जैसा अश्लील और असभ्य शब्द सुनने को मिला और वह भी बिना किसी प्रमाण के। देखने में आया है कि प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियों में भी इतनी सूझबूझ होती है कि वे बड़ों के प्रति सम्माजनक भाषा का प्रयोग करते हैं परंतु न जाने क्यों चोर-चोर चिल्लाने की जिद्द में कुछ लोग इतनी ढिठाई पर क्यों उतर आए कि सर्वोच्च न्यायालय में माफी मांगने के बावजूद निरंतर भाषा का चीरहरण करते रहे। याद रहे कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, लक्खू भाई पाठक व सेंट किट्स रिश्वत मामलों में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव का नाम लिया गया तो विपक्ष के कुछ लोगों ने संसद में 'श्री 420' के नारे लगाए। इस पर विपक्ष के नेता दिवंगत श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इनको डांटा और प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखने को कहा। हालांकि एक मामले में तो अदालत ने राव को कसूरवार ठहरा दिया था परंतु इसके बावजूद उनके पद के मान-सम्मान का विपक्ष ने पूरा ध्यान रखा। इसके विपरीत वर्तमान विपक्ष ने तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाएं तार-तार करके रख दीं। याद रखें कि अभद्र वाणी कटुता को जन्म देती है और कटुता हिंसा को। बंगाल में ममता बनर्जी उदाहरण हैं कि जिस पार्टी के नेता ज्यादा कंटीली जुबान का प्रदर्शन करते हैं वे अपरोक्ष रूप से अपने समर्थकों को हिंसा के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वैचारिक मतभेद लोकतंत्र का श्रृंगार है जबकि कटुता व बदजुबानी उसके दुश्मन।
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इस बार लोकसभा में इतनी बेजुबानी हुई कि पूरी चर्चा में जनता के मुद्दे व राजनीतिक दलों के वैचारिक सिद्धांत गौण हो कर रह गए। पहले चुनावों में नेहरु के समाजवाद, वामपंथियों के माक्र्सवाद, भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्मवाद सहित अनेक तरह के सिद्धांतों पर खुल कर बहसें सुनने को मिलती थीं परंतु अब पूरे फसाने में इनका जिक्र तक नहीं था। न तो बुद्धिजीवियों ने वैचारिक विषयों के बारे लिखना जरूरी समझा और आज के नेताओं की तो बात ही क्या करें। जब नवजोत सिंह सिद्धू जैसों की बेलगाम जिव्हा, अरविंद केजरीवाल जैसों का वाचालपन, ध्रुवीकरण फैलाती यूपी के धुरंधरों की जुबान, मणिशंकर जैसे पढ़ेलिखों की गालियां सुर्खियां बटोरती हों, टीवी पर चीखना चिल्लाना ही प्रस्तोताओं (एंकरों) और प्रवक्ताओं की योग्यता मानी जानी लगे तो भला कौन मत्थापच्ची करे सिर खपाउ सिद्धांतों पर। सारगर्भित चर्चा के लिए जरूरी है किताबों में दिमाग खपाने की परंतु जब आरोप-प्रत्यारोपों पर छिछोरी चर्चाओं से काम चलता हो तो बौद्धिक परिश्रम की जहमत कौन उठाए। पढऩा,पढ़ाना और स्वाध्याय वैसे भी गूगल गुरु के दौर में पुराना फैशन माने जाने लगा है। गाली देने व गाली लिखने से काम चलता हो तो राजनीतिक सिद्धांत जाएं भाड़ में। लेकिन याद रहे, इस तरह का राजनीतिक व वैचारिक शार्टकट इस्तेमाल करके राजनीतिक आकांक्षाओं की तो पूर्ति हो सकती है परंतु स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह घातक है। लोकतंत्र सत्ता की म्यूजिकल रेस सरीखा खेल नहीं बल्कि इसका उद्देश्य अंतत: जनकल्याण है जिसको हासिल करना अस्वस्थ साधनों से संभव नहीं। अब्राहिम लिंकन ने जनतंत्र की परिभाषा करते हुए इसे जनता द्वारा, जनता की और जनता के लिए शासन प्रणाली बताया था। नेताओं की बदजुबानी से इस प्रणाली को आघात पहुंच रहा है तो जरूरी है कि सभी मिल कर इस विषय में विचार करें। श्री मद्भगवद गीता के 17वें अध्याय के 15वें श्लोक में वाणी के तप के बारे में कहा गया है कि:-
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्याय अभ्यसनम चैव वाड़्मयम् तप उच्यते।।
अर्थात जो वाक्य उद्वेग न करने वाले हों, किसी को पीड़ा न पहुंचाने वाले हों, सत्य हों, प्रिय हों और हित करने वाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद्ग्रंथों के पढऩे, मनन करने के अभ्यास का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते हैं। अक्षर को भारतीय संस्कृति में ब्रह्म का ही स्वरूप माना गया है। हमें बोलते-सुनते, लिखते-पढ़ते समय वाणी की मर्यादा का पालन करना सीखना ही होगा।
- राकेश सैन
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