आशा पारिख की कहानी, हिंदी सिनेमा के 70 बरस के सफर की कदम दर कदम हमसफर
बेहद खूबसूरत, बिंदास और अपने जमाने की बेहतरीन फिल्म अभिनेत्री, सुलझी हुई निर्माता-निर्देशक और संवेदनशील इंसान के रूप में आशा पारिख ने पिछले 70 साल के अपने फिल्मी सफर में कदम दर कदम सिनेमा को आगे बढ़ते देखा है और वह श्वेत श्याम से रंगीन और फिर तकनीकी रूप से आधुनिक होते सिनेमा के हर दौर की गवाह रही हैं।
नयी दिल्ली। बेहद खूबसूरत, बिंदास और अपने जमाने की बेहतरीन फिल्म अभिनेत्री, सुलझी हुई निर्माता-निर्देशक और संवेदनशील इंसान के रूप में आशा पारिख ने पिछले 70 साल के अपने फिल्मी सफर में कदम दर कदम सिनेमा को आगे बढ़ते देखा है और वह श्वेत श्याम से रंगीन और फिर तकनीकी रूप से आधुनिक होते सिनेमा के हर दौर की गवाह रही हैं। आशा पारिख को सिनेमा से जुड़े सबसे प्रतिष्ठित सम्मान ‘दादा साहब फालके’ पुरस्कार से सम्मानित करके हिंदी सिनेमा के साथ उनके जुड़ाव का सम्मान किया गया है।
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हिंदी सिनेमा में सफलता के नए आयाम स्थापित करने वाली आशा पारिख का जन्म दो अक्टूबर 1942 को एक गुजराती परिवार में हुआ। उनकी मां सुधा सलमा पारिख मुस्लिम थीं, जबकि पिता बच्चू भाई पारिख गुजरात के बनिया समुदाय से ताल्लुक रखते थे। आशा की मां ने बहुत छोटी उम्र में ही उन्हें भारतीय शास्त्रीय नृत्य का प्रशिक्षण दिलाना शुरू कर दिया था और उन्होंने पंडित बंसीलाल भारती सहित कई गुणी गुरुओं से नृत्य की शिक्षा ग्रहण की।
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आशा पारिख ने दर्जनों फिल्मों में अभिनय किया और उनकी ढेरों फिल्मों ने लोकप्रियता के रिकॉर्ड बनाए। लोग उनके अभिनय और नृत्य के दीवाने थे तथा एक समय तो ऐसा था कि वह हिंदी सिनेमा में सबसे ज्यादा पैसे लेने वाली अदाकारा हुआ करती थीं। एक के बाद एक उनकी कई फिल्मों की सफलता की वजह से उन्हें ‘जुबली गर्ल’ कहा जाता था। दस साल की उम्र में बाल कलाकार के रूप में अभिनय की दुनिया में कदम रखने वाली आशा पारिख ने 1995 में अभिनय को अलविदा कह दिया और उसके बाद टेलीविजन धारावाहिकों के निर्माण और निर्देशन में हाथ आजमाया। इस दौरान वह सिने जगत से जुड़े प्रमुख संगठनों से जुड़ गईं। वह 1994 से वर्ष 2000 तक सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन की अध्यक्ष रहीं और 1998 से 2001 तक भारत के केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) की भी अध्यक्ष रहीं। फिल्मों में अपशब्दों के इस्तेमाल पर सख्त एतराज रखने वाली आशा पारिख द्वारा सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के तौर पर कुछ फिल्मों को मंजूरी देने से इनकार किए जाने के कारण एक समय फिल्म जगत दो हिस्सों में बंट गया था।
कुछ को उनके फैसले पर एतराज था, जबकि कुछ ने इसे सही ठहराया। एक इंटरव्यू के दौरान आशा पारिख ने स्वीकार किया था कि इस तरह के पद और कुछ दें या न दें पर बदनामी जरूर दे देते हैं। सिनेमा के बीते हुए कल और मौजूदा हालात की तुलना करते हुए आशा बताती हैं कि एक समय कलाकारों के पास वैनिटी वैन नहीं हुआ करती थी। आउटडोर शूटिंग के समय कई बार तो ऐसा होता था कि कपड़े बदलने तक के लिए मुनासिब जगह नहीं मिल पाती थी। आज की फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों को तमाम सुविधाएं हासिल हैं।
उन्हें फिल्मों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को लेकर शिकायत है। वह कहती हैं कि महिलाओं को पुरुष अभिनेताओं के मुकाबले कम पैसा दिया जाता है और महिला चरित्रों पर आधारित कहानियां कम लिखी जाती हैं। हालांकि उनके अनुसार हालात कुछ सुधरे हैं और अब फिल्म की हर विधा में ज्यादा महिलाएं आने लगी हैं। आशा के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि उनके करियर के शुरुआती दौर में उन्हें एक फिल्म से यह कहकर निकाल दिया गया था कि उनमें ‘‘स्टार मटीरियल’’ नहीं है, लेकिन आशा पारिख ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर वह मुकाम हासिल किया कि उनकी सफलता अपने आप में एक मिसाल बन गई।
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